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उलझन (लघुकथा)

 किसी साहित्यिक गोष्ठी में पहली बार शामिल हुआ था वह I सीखने को आतुर मन !! चर्चा जोरों पर थी साहित्य का स्वरुप क्या हो ? असमंजस में पड़ गया वो !! दिल से लिखी गयी कुछ पंक्तियों के लिए कल कितनी कटु आलोचना सहनी पड़ी थी उसे I मन का लेखक अब लेखनी से त्रस्त होकर सोच रहा था कि ...... " किसके लिए लिखे वो ? " 

मीना पाण्डेय
बिहार
मौलिक व् अप्रकाशित

Added by meena pandey on April 27, 2015 at 9:00pm — 4 Comments

तन्हाईयों में लौट जाएगी......

तन्हाईयों में लौट जाएगी......

किसको सदायें देते हो

कोई रूह को चुराये जाता है

यादों के खंज़र से

आज खामोशी का दामन

तार- तार हुआ जाता है

हवाओं में

साँसों की सरगोशियों का शोर है

आँखों की मुंडेरों पर

दर्द के मौसम आ बैठे है

धड़कनें ज़ंजीरों में कैद हैं

भला दिल की सदा

कौन सुन पायेगा

ये पत्थरों का शहर है

यहां दिल शीशे सा टूट जायेगा

हर मौसम का यहां

अलग मजाज़ है

हर मौसम अब यहां 

चश्मे सावन में डूब जाएगा…

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Added by Sushil Sarna on April 27, 2015 at 8:04pm — 14 Comments

जज्बा....(लघुकथा)

उस घर के आँगन में लोगों का जमावड़ा लगा हुआ और माहौल एकदम शांत था. अचानक जैसे ही तिरंगे में लिपटे हुए शव को सेना के वाहन से लाया गया तो सबसे पहले अपना होश खोकर वो घर के अन्दर से पागलों की तरह चीख मारती हुयी अपने दस वर्षीय बेटे के साथ,  बाहर आकर सीमा पर शहीद हुए अपने पति के शव से लिपट-लिपट कर रोने लगी. शहीद सीमा सुरक्षा बल का जवान था. उसने दुश्मनों की सीमा में घुसकर उनके दल-बल को तहस-नहस कर डाला. बाद में दुश्मनों ने धोखे से उसे बंदी बनाकर रखा, फिर  उसकी आँखें फोड़ दी गईं और शरीर को गोलियों से…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 27, 2015 at 12:18pm — 23 Comments

कवि की मृत्यु के बाद / गीत (विवेक मिश्र)

दूर कोई कवि मरा है



जो मुखर संवेदना थी

आज कोने जा लगी है

थक चुका आक्रोश है यूँ

मौन इसकी बानगी है



अब इन्हें स्वर कौन देगा?

भाग्य का ही आसरा है



अनगिनत सी भावनायें

बीजता रहता है यह मन

किन्तु विरले जानते हैं

भावनाओं पर नियंत्रण



कब किसे है छाँटना और

कौन सा पौधा हरा है?



लेखनी जर्जर पड़ी है

पृष्ठ रस्ता तक रहे हैं

भाव, शब्दों से कहें अब

'हम अकेले थक रहे हैं'



पूर्ण है 'मुख' गीत का,… Continue

Added by विवेक मिश्र on April 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments

सजा (लघुकथा)

पूरी जवानी उसने नशे और जुएँ की लत और बाप की नीली बत्ती के रौब में होम कर दी ।

 

"अभी माँ व बाप को मरे अभी साल भर ही नहीं हुआ, और तुम्हारा नशे में यूँ दिन रात झूमना , आखिर तुम कब इसे छोड़ोगे ?

देखना रमन ! यह ड्रग्स कभी तुम्हारी जान ले के छोड़ेगी आज घर की एक एक चीज नीलाम हो चुकी है , यहाँ तक की नाते-रिश्तेदार , नौकर चाकर सब साथ छोड़ कर चले गये ।  मैं तुमसे तंग आ चुकी हूँ  अब तुम्हारे साथ और नहीं…

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Added by Pankaj Joshi on April 27, 2015 at 7:30am — 14 Comments

तृष्णा ........इंतज़ार

देह में तृष्णा के सागर
रेशम में ढकी गागर
इत्र से दबी गंध
लहू के धब्बों में
धुन्दलाया चेहरा
मुखोटों के पीछे
छिपाया मोहरा
न कोई मंजिल
ना कोई पहचान
बैठ ऊँचे मचान पर
ढूंढे नये आसमान
बे-माईने वक़्त का ये जहान
प्रेम परिभाषा ढूँढता वासना में
तम के घेरे में घिरा इंसान !!

******************************************

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 27, 2015 at 6:30am — 18 Comments

"अलार्म"

आरव ने खेल खेल में मेज पर प्लेट और गिलास से एक मीनार बना दी थी।""
"आरव बेटा यह क्या किया आपने"
आरव की मम्मा ने जिज्ञासावश आरव से पूछा।
"मम्मा मैंने यह अलार्म बनाया है ,अब जैसे ही भूकंप आयेगा हम जल्दी से घर से बाहर निकल जायेगे।कैसा है यह अलार्म मम्मा "
"बेटा जी अलार्म तो बहुत अच्छा है ।पर भगवान ना करें कि इसके बजने की नौबत आये"!

"मौलिक एवंम अप्रकाशित"

Added by neha agarwal on April 27, 2015 at 2:00am — 18 Comments

नूर -अतुकांत/ छंदमुक्त रचना

चाँद,

फ़क़त तुम्हारा नहीं,

मेरा भी है.

इसलिए नहीं की मै,

उसे निहारता हूँ

किसी रेतीले किनारे से

या इंतज़ार करता हूँ,

ईद के चाँद…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 26, 2015 at 12:30pm — 24 Comments

राहत कार्य (लघुकथा)

"सर, कुछ देर पहले उत्तर भारत में बड़ा भूकम्प आया है|"

"ओह, तुरंत कार्यवाही करो| संस्था के बीस बैनर और बनवा दो, पिछले भूकम्प वाले पत्र दिनांक और स्थान बदल कर सभी दानदाताओं को भिजवा दो| मैं भूकम्प प्रताड़ित क्षेत्र में चला जाता हूँ, गाड़ी तैयार करवा देना और राहत सामग्री के साथ उसमें दस-पन्द्रह खाली बैग रखना मत भूलना|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
प्रेम भाव को समर्पित कुछ दोहे ..........(डॉ० प्राची)

स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार 

हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार 

ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप 

हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप 

कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान 

प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान 

भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?

सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !

प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन…

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Added by Dr.Prachi Singh on April 26, 2015 at 11:30am — 19 Comments

कुछ उलटा , कुछ सीधा -- डॉo विजय शंकर

अच्छाइयों के लिए फ़िकर क्यों करें
बुराइयों में बड़ा मजा आता है ||

भजन भगवान के करम शैतान के
कर के देखो बड़ा मजा आता है ||

सीधी बातें छोडो, गलतफहमियां
पालो, देखो,बड़ा मजा आता है ||

सच है, पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
राजनीति है ,बड़ा मजा आता है ||

सबसे लड़ लेते हो, इक बार लड़ो ,
खुद से, देखो, बड़ा मजा आता है ||

झूठ सौ बोलते हो , एक बार सच
बोलो, देखो,बड़ा मजा आता है ||

मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉo विजय शंकर

Added by Dr. Vijai Shanker on April 26, 2015 at 10:00am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बहरे वाफर में मेरी पहली कोशिश

मुफाइलतुन मुफाइलतुन मुफाइलतुन

 

हयात मेरी न लज़्ज़ते कायनात मेरी

सहर को है वक्त और सियाह रात मेरी

 

निचोड़ के खून तक मेरे जिस्म से वो कहें

कि बख़्श दी जान देखिये इल्तिफ़ात* मेरी                    *कृपा

 

न दोस्त न दिलनवाज़* रहा कोई मेरा अब                  *दिल को तसल्ली देनेवाला

ख़ुदा से ही कहता हूँ मैं हर एक बात मेरी

 

उतरने लगेंगे खोल वफ़ा के अब पसे मर्ग                     *मौत के…

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Added by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 9:00am — 14 Comments

दोहे -रमेश चौहान



अटल नियम है सृष्टि की, देखें आंखे खोल ।

प्राणी प्राणी एक है, आदमी पिटे ढोल ।।

इंसानी संबंध में, अब आ रही दरार ।

साखा अपने मूल से, करते जो तकरार ।।

खग-मृग पक्षी पेड़ के, होते अपने वंश ।

तोड़ रहे परिवार को, इंशा देते दंश ।।

कई जाति अरू वर्ण के, फूल खिले है बाग ।

मिलकर सब पैदा करे, इक नवीन अनुराग ।।

वजूद बगिया के बचे, हो यदि नाना फूल ।

सब अपने में खास है, सबको सभी कबूल ।।

पत्ते छोड़े पेड़ जो, हो…

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Added by रमेश कुमार चौहान on April 25, 2015 at 2:54pm — 6 Comments

बाराती

मौसा, मौसी, ताऊ, फूफा

दुल्हे के सब साथी

बज रहे हैं गाजे बाजे

नाच रहे बाराती.

मेट्रो सी चमक रही

दिल्ली वाली भाभी

चक्करघिन्नी सी घूमे अम्मा

टांग कमर में चाभी

घुटनों का दर्द छुपाये

देख सभी को मुस्काती



नई सूट पहन कर भैया,

नाश्ते का पैकेट बाँट रहा

अपने लिए भी कोई

कटरीना, करीना छांट रहा

लहंगा चोली पहन के छोटी

घूमती है इतराती



जनक जीवन की मुश्किल बेला

विदा हो रही सीता

भीतर में कुछ टूट रहा…

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Added by Neeraj Neer on April 25, 2015 at 12:03pm — 14 Comments

काला पानी (लघुकथा)

"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"

"अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"

"सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी…

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Added by Mala Jha on April 25, 2015 at 10:00am — 23 Comments

ग़ज़ल - कुछ तो उसने कभी कहा होगा -पूनम शुक्ला

2122 1212 22
ऐसे कैसे कोई मरा होगा
कुछ तो उसने कभी कहा होगा
जब भी देखा जो आइना उसने
खुद से कह कर वो थक गया होगा
कितनी रातें गुजार दी होंगी
जाने कब तक वो जागता होगा
आँसू भी जब नहीं रहे साथी
मौत का साथ चुन लिया होगा
कितनी हैरत में जिन्दगी होगी
जब किसी ने नहीं सुना होगा
ख़ाक उड़ती है अब हवा में क्यों
जब कि घर लापता हुआ होगा
रूहे तामीर आज रोती है
जिसका कोई न अब पता होगा

पूनम शुक्ला

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Poonam Shukla on April 25, 2015 at 9:55am — 5 Comments

देशभक्ति (लघुकथा)

"अरे इस बॉल पे तो चार रन बन जाते पर सब तो पेप्सी के एड से ही कमाते है..। देश जाए भाड़ में." रेस्टोरेंट में टी वी देखते हुए स्वदेश ने ज्यूँ ही बिल देखा।"अरे ये १४० रूपये टैक्स के क्यों जोड़ दिए कच्चा बिल ही बना देते।"

"पर बाबू जी इसी टैक्स से तो देश चले है। चुप कर जानता है कौन हूँ मैं ?" "सेल्स टैक्स की रेड पड़वा दी तो भूल जाएगा ये देशभक्ति।"

मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by Sudhir Dwivedi on April 25, 2015 at 9:47am — 12 Comments

बदलते चेहरे (लघुकथा)

दानशीलता , सज्जनता और खुली सोच के कारण लाला गजेन्द्र प्रसाद का हर कोई कायल था । चुनाव में वे दमदार प्रत्याशी होकर जब बस्ती में गये तो गरीबों की दशा देख रो पडे । स्त्री सम्मान और गरीबों के प्रति बेहद संवेदनशील भाषण भी दिया । अपने ऑफिस से निकले तो ड्राइवर को नदारद देख उनका पारा चढ़ गया।उसके आते ही एक तमाचा उसके गाल पर दिया और बिना कारण जाने सप्ताह भर की तनख्वाह काट लेने का आदेश भी। उनकेे कार्यकलाप के ब्यौरे के लिए पीछा कर रही संवाददाता छाया उनके ये बदलते रूप देखकर चौंक गई।पर कुछ सोच समझ पाती…

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Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 4 Comments

चार दिन की चांदनी (लघुकथा)

श्रेया अपने से बड़ी उम्र के,अत्यंत आकर्षक एवं विवाहित बॉस रजत के प्रेम में पड़कर ज़माने को भूल बैठी। माँ व भाई ने कितना समझाया, विवाह के लिए,पर वह तो कुछ सुनने को तैयार ही न थी। अलग फ्लैट लेकर रहती थी,जहाँ सुविधा के अनुसार रजत आकर उसके साथ वक़्त बिताते थे।



उस दिन वह ज्वर से तप रही थी। रजत को पता लगा तो तुरंत भागे चले आये।श्रेया को उनका साथ बहुत अच्छा लग रहा था।

तभी मोबाइल बज उठा । उन्होंने दूसरी ओर से जो कहा गया सुना,

फिर उठते हुए कहा - "सॉरी श्रेया-आज तुम्हारे पास नहीं रुक…

Continue

Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 5 Comments

तोहफा (कहानी )

तोहफा :

हेमा के हाथों में मेहँदी लग चुकी थी | विवाह में अब केवल दो ही दिन शेष रह गए थे |

रिश्तेदारों के नाम पर आए हुए कुछ लोगों में से दो महिलाएं खुसर फुसर कर रहीं थीं ||

“अरे इसके चेहरे पर तो दुल्हनों जैसी चमक ही नहीं है कितना बुझा बुझा सा मुखड़ा लग रहा है!

“अब क्या करे बेचारी ! माँ बाप ने कैसे न कैसे, जोड़ तोड़ करके तो यह रिश्ता करवाया है | “

"हाँ तुम सही कह रही हो | लेकिन यह अकेली ही तो इस घर की जिम्मेदारी उठा रही थी| अब क्या होगा इसके जाने के बाद ?"

"भाई है न…

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Added by डिम्पल गौड़ on April 25, 2015 at 12:47am — 10 Comments

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