'ममत्व-विस्तार'
'कितने दिन हो गए बेटा .....तुम्हे ...घर को छोड़े हुए।",बहुत दिन बाद मिले अपने बेटे को बूढ़ी माँ ने याचना पूर्वक कहा।
"बेटे! तुम्हे पढ़ाया-लिखाया,काबिल बनाया ताकि तुम ठीक प्रकार से अपनी गृहस्थी और काम सम्भाल सको।पर तुम पर पता नहीं किस पागलपन की धुन सवार है।जो किसी के बारे में नहीं सोचते और किसी कई भी नहीं सुनते।"
"ऐसा क्यों कहती हो माँ कि मैं किसी के बारे में कुछ नहीं सोचता?"
"सोचते तो ,ऐसा बर्ताव करते?कभी घर की सुध लेते हो?"
"माँ!तेरा ये लाल समाज और देश…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 6, 2015 at 6:02pm —
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औपचारिकता – ( लघुकथा )
शहर के मशहूर,युवा व्यवसायी और समाजसेवी राहुल जी का सडक हादसे में निधन हो गया!पार्थिव शरीर घर आ गया था!सारा शहर उमड पडा था!कोठी में पैर रखने को जगह नहीं थी!मातम का माहौल था!औरतों के रोने के अलावा अन्य कोई आवाज़ नहीं आरही थी! करीबी लोग दाह संस्कार की व्यवस्था में लगे थे!
राहुल जी के बहनोई विनोद जी भी मौजूद थे!मगर वे जब से आये थे , तभी से अपने मोबाइल को कान से लगाये हुए थे!अन्य सभी उपस्थिति लोगों ने माहौल की नज़ाकत को देखते हुए अपने मोबाइल बंद कर दिये…
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Added by TEJ VEER SINGH on October 6, 2015 at 5:25pm —
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पूरे पच्चीस हजार ! ठीक से गिनकर रूपये पर्स में रखे उसने ।
किटी पार्टी खत्म होते ही उमंग भरी तेज कदमों से पर्स को हाथों में भींच घर की तरफ निकल पड़ी ।
पच्चीस महीने में एक बार ये अवसर आता है । हर महीने घर- खर्च से बचा - बचा कर ही यहाँ पैसे भरती रही है ।
" माँ ,आ गई तुम , क्या इस बार भी नहीं खुली तुम्हारी किटी ? "
" खुल गई , देख ! "
" अब तो मेरा कम्प्यूटर आ जायेगा ना ? "
" हाँ , अब उतावली ना हो ,आ जायेगा । "
" देखना माँ ,अबकी बार…
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Added by kanta roy on October 6, 2015 at 4:00pm —
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"मिथ्या अतिविश्वास" - (लघु कथा)
"आप लोग मुझ पर क्यों बरस रहे हैं ? आपसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा हूँ।अख़बार और क़िताबें ही नहीं पढ़ता, इन्टरनेट तक खंगाल डालता हूँ !"
रूपेश के ये शब्द सुनकर पड़ोसी शर्मा जी ने उसे समझाया- " अच्छी बात है, लेकिन जो तुमने किया, उसे सही नहीं कह सकते। क्या ज़रूरत थी अपने मन से दवाओं में कटौती करने की और दवायें खुद ही बदलने की ? आखिर तुमने अपने पिताश्री को इतनी कम उम्र में इतनी सीरियस कन्डीशन में पहुंचा ही दिया न ! साइड इफेक्ट्स के बारे में अपने डॉक्टर…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2015 at 12:07pm —
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"कड़वी याद"--(लघु कथा)
ख़ूबसूरत पूजा ने बुरा सा मुँह बनाकर डैडी को कोहनी मार के सामने बैठे श्रीमान की तरफ संकेत किया। डैडी ने इसी तरह अपनी पत्नी को इशारा किया, तो होंठ भींचते हुए उन्होंने इशारे से उन दोनों को शान्त रहने को कहा। कुछ सकपकाते-घबराते से श्रीमान अपनी पत्नी से धीमे स्वर में बोले- "चलो शालू, आगे वाली बोगी पूरी खाली हो गई है, वहां अच्छी सीट मिल जायेगी ।"
"क्यों भला, यहीं तो ठीक है ?"
"मैंने कहा न, उठो"- पत्नी का हाथ खींचते हुये शर्म से आँखें झुकाये श्रीमान वहां से…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2015 at 8:29am —
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"माया और काया" - (लघु कथा)
"वाकई बहुत अच्छा गुजरा यह एक घंटा पार्क में ... पर अब तो बताओ, तुम ने लेगी-जीन्स वगैरह छोड़ कर आज मेरी पसंद की ये साड़ी क्यों पहनी ?"-अपने पति के इस सवाल को अनसुना सा कर मालती उसे काफी दिनों बाद एक टक देख रही थी।
"पीयूष, तुम सचमुच सुंदर हो, सूरत से ....और... सीरत से भी !" अपना सिर उसकी गोदी में रखकर वह बोलती गई-"मेरे बिना मेकअप वाले सादे रूप में जिस सहजता से मुझे निहारते हुये जब तुम मुझसे बातें करते हो न, तो... तो पता नहीं क्यों मुझे अजीब सी सुखद…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2015 at 7:31am —
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चिर प्रतीक्षित पत्रिका का अंक हाथ में आते ही कुसुम ने जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने शुरू कर दिए । उसकी दृष्टि विशेष पृष्ठ पर जाकर ठहर गईं । हर्षातिरेक से दौड़कर पापा के पास पहुँची।" पापा , आज मैंने आपका सिर गर्व से ऊँचा कर दिया ।ये देखिये इस प्रतिष्ठित पत्रिका द्वारा आयोजित आलेख प्रतियोगिता में मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है और आप हो कि सदा ही मुझे लिखने - पढ़ने से डाँटते रहते हैं । ये तो मम्मी है जो मुझे सदैव प्रोत्साहित करती हैं और लिखने में सहायता करतीं हैं ।"
उन्होंने कुसुम के हाथों से…
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Added by shashi bansal goyal on October 5, 2015 at 8:44pm —
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कुम्हार हैं हम
सपनों को दीयों
हंडियों
और गुल्लकों की
शक्ल देते हुए
समय और बाज़ार से बेख़बर
चाक के साथ
घुमाते हैं अपनी ज़रूरतें
नही जानते
कि चाक है हमारी पृथ्वी
और बदलने के लिए
समय और मौसम
पृथ्वी का अपने अक्ष पर
घूमना आवश्यक है......
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Jayprakash Mishra on October 5, 2015 at 4:27pm —
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'ब्लैकमेल'
"अब तो बस करो। पहले ही लाखों रूपए दे चुका हूँ तुम्हें इस मामले को निपटाने के।"
"हा हा....बस दस लाख और।...... उन लोगों को भी तो देने हैं..........जिन्होंने......पूरी योजना बनाई....और उसे..... सफल बनाने में हमारा साथ दिया।"
"देखो इतना ब्लैकमेल करना ठीक नहीं है।किसी शरीफ़ आदमी को झूठे छेड़-छाड़ के मामले में फंसाना और उससे लाखों ऐंठ कर भी उसे चैन से न जीने देना बहुत गलत और बुरा है।और तुम ख़ुद को समाजसेवक कहते हो।"
"ऎसे ही तो समाज सेवा करती है हमारी संस्था 'प्रयास-एक…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 5, 2015 at 9:26am —
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उलटी गंगा
बात जब तक घर में थी, सभी परिवार के मैंबर उसे समझा रहे थे । ये तुम गलत कर रहें हो ,रौशनी का ख्याल हमें पहले रखना चाहिए था, न कि अब हमसाया के घर की तरफ खिड़की रख कर । मगर वह अपनी फौजियों सी ज़िद छोड़ नहीं रहा था ।
पड़ोसी तो इस कि बारे पहले ही विरोध दर्ज करवा चुके थे, “क्योंकि कि बिल्डिंग के पीछे कोई अधिकारित रास्ता न होने की वजह से अपना हक भी नहीं बनता है” उसकी घर वाली ने कहा। पड़ोसी के पास अब क़ानूनी करवाई कि सिवाए कोई चारा नहीं रहा था । पर फिर…
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Added by मोहन बेगोवाल on October 4, 2015 at 7:30pm —
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1222 1222 122
बहुत बेकार सा चर्चा रहा हूँ
मैं सच हूँ, आँख का कचरा रहा हूँ
बहा हूँ मै सड़क पर बेवजह भी
लहू इंसाँ का हूँ , सस्ता रहा हूँ
जो समझा वो सदा नम ही रहा फिर
मै आँसू ! आँखों से बहता रहा हूँ
महज़ इक बूँद समझा तिश्नगी ने
भँवर के वास्ते तिनका रहा हूँ
जलादूँ एक तो बाती किसी की
इसी उम्मीद में दहका रहा हूँ
मुझे मानी न पूछें ज़िन्दगी का
अभी…
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Added by गिरिराज भंडारी on October 4, 2015 at 10:43am —
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दुनियाँ,क्या से क्या
हो गई,
रफ़्तार, हवा से तेज
हो गई ,
जिंदगी, बस एक रेस
हो गई ,
मेहबूब की बातें,
मेहबूब से बातें ,
ग़ज़ल न जाने कहाँ ग़ुम
हो गई,
इश्क न जाने कहाँ खो गया
अफेयर का ज़माना हो गया ,
चलते हैं ,
बदलते हैं ,
कितने फेयर होते हैं ,
जफ़ा को अब कोई रोता नहीं ,
जिक्रे वफ़ा अब कहीं होता नहीं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on October 4, 2015 at 10:31am —
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फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
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मैं समस्यायें गिनानें के लिए आया नहीं।
धर्म नैतिकता सिखानें के लिए आया नहीं।।
सो रहे हैं आत्मा को बेचकर इंसान जो।
मत डरें उनको जगानें के लिए आया नहीं।।
जानता हूँ कल्कि युग की मान मर्यादा भी है।
नीतिगत बातें बतानें के लिए आया नहीं।।
तुम मगन अपनी लगन में ही रहो ओ साथियों।
राह में कंटक बिछाने के लिए आया नहीं।।
आचरण की सीख दूं, मुझको…
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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 4, 2015 at 12:38am —
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फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान
तोड़ क्या लाऊँ इस बला के लिये
अब तो माँ भी नहीं दुआ के लिये
रह्म शैताँ के पास मिलता नहीं
ये सिफ़त है फ़क़त ख़ुदा के लिये
जान से हाथ धोना पड़ते हैं
बस ये इनआम है वफ़ा के लिये
हक़ अदा कर दिया मुहब्बत का
क्या सज़ा देंगे इस ख़ता के लिये
सब उसे तोता चश्म कहते हैं
है वो मशहूर इस अदा के लिये
मुश्किलें मेरी दूर कर देना
कोई मुश्किल नहीं ख़ुदा के लिये
क़त्ल का मेरे फ़ैसला ये…
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Added by Samar kabeer on October 3, 2015 at 11:41pm —
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ख़ौफ़ खाता हूँ …
ख़ौफ़ खाता हूँ
तन्हाईयों के फर्श पर रक्स करती हुई
यादों की बेआवाज़ पायल से
ख़ौफ़ खाता हूँ
मेरे जज़्बों को अपाहिज़ कर
अश्कों की बैसाखी पर
ज़िंदा रहने को मज़बूर करती
बेवफा साँसों से
ख़ौफ़ खाता हूँ
हयात को अज़ल के पैराहन से ढकने वाली
उस अज़ीम मुहब्बत से
जो आज भी इक साया बन
मेरे जिस्म से लिपट
मेरे बेजान जिस्म में जान ढूंढती है
और ढूंढती है
ज़मीं से अर्श तक
साथ निभाने की कसमों के…
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Added by Sushil Sarna on October 3, 2015 at 8:30pm —
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अंतहीन अवकाश ( लघुकथा )//शशि बंसल
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मुसलाधार बारिश होने के कारण आज अस्पताल से अवकाश ले घर पर ही थी ।काम से फ़ारिग़ हुई तो खिड़की पर आ बैठी ।नीचे झाँका , गली में ज्यादा रौनक नहीं दिखाई दी ।दो-तीन स्कूली बच्चे थे , जो सड़क पर भरे हुए पानी में उछल-कूद करते हुए हँस रहे थे । सामने की दुकानों ने भी ग्राहकी न होते देख आधे शटर गिरा दिए थे । कुछ रिक्शेवाले रिक्शे खाली छोड़ सामने गुमटी पर गरम - गरम चाय की सुड़कियाँ लगा रहे थे । तभी एक रिक्शा गाड़ी आते हुए दिखाई दी, '…
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Added by shashi bansal goyal on October 3, 2015 at 5:56pm —
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तीन दिन से जितनी तेज़ी से मूसलाधार बारिश हो रही है , उतनी ही तेज़ी से रामचरण के घर में भूख की भट्टी ज़ल रही है।
" अदालत तक चलोगे भाई ?"
"ज़रूर साहब जी"
"तेरा लाख-लाख धन्यवाद भगवान " कह रामचरण रिक्शा हाँकने लगा ।
"अरे भाई ! आज़ कोई चलने को तैयार ही नहीं हो रहा, तुम कैसे हो गए ?"
"साहब जी,ये पेट क्या न कराये ।"
"हाँ...ठीक कह रहे हो भाई ,कितना कमा लेते हो दिन भर में ?"
"बस चूल्हा ज़ल जाता है साहब जी।"
"सुनो,एक बात कहूँ ,मज़बूरी न होती तो मैं तुम्हारे रिक्शे…
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Added by Janki wahie on October 3, 2015 at 5:53pm —
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"नन्दू रिक्शे वाला" - (लघु कथा)
"कक्का तुम काहे को परेशान हो रहे हो, रोज़ की तरह मैं तो पैदल ही चला जाता।"- हत्थू- रिक्शे पर बैठे ज़ाहिद ने एक बार फिर गुज़ारिश की ।
"न बेटा न, मैं तेरे बुलन्द हौसले को तो जानता हूँ, लेकिन सड़क के गड्ढों और गाड़ियाँ दौड़ाने वालों पर भरोसा नहीं है मुझे। विधाता ने वैसे ही तेरी आँखों को लाइलाज़ बीमारी दे दी, कुछ दिखाई देता नहीं तुझे, कोई और चोट न लगे, बस यही चाहता हूँ।" यह कहते हुए बूढ़ा नन्दू रिक्शे वाला जैसे अतीत में खो गया। ज़ाहिद को वह बचपन…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 2, 2015 at 9:44pm —
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2122 2122 2122
श्याम से तो श्वेत सबका तन हुआ है..
लोभ से संत्रास लेकिन मन हुआ है..
अब कली भौरों से शर्माती नहीं है,
बेशरम अब सारा ही उपवन हुआ है..
खटने में ही बीतती है उम्र सारी,
कोल्हू के इक बैल सा जीवन हुआ है..
दिल के ग़म चहरे तलक आते नहीं क्यूँ,
सोच कर हैरान ये दर्पण हुआ है..
सूखी धरती की दरारें पूछती हैं,
तू भी धोखेबाज़ क्यूँ सावन हुआ है..
आजकल की फिल्मों में तो कुछ नहीं..बस,
'काम' का विस्तार से…
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Added by जयनित कुमार मेहता on October 2, 2015 at 9:00pm —
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हुआ है प्यार में पागल सुनो अंन्जाम इस दिल का
न तेरी बात माना मैं लगा इल्जाम इस दिल का
.
अँधेरा दूर हो करना जला, लो दिल सनम मेरा
न है जब जिन्दगी में तू न है क्या काम इस दिल का
.
रही जब पास तुम मेरे बडा अनमोल था ये दिल
न अब कोई मुझे पूछे न है कुछ दाम इस दिल का
.
तुम्हारा प्यार था जब तो बुलाते थे सभी दिलवर
सुना मैने पड़ा अब दिलजला हैै नाम इस दिल का
.
खता कोई न है इसकी, मगर बदनाम तो है ये
न करता है वफा…
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Added by Akhand Gahmari on October 2, 2015 at 8:00pm —
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