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हल चलाना जानता हूँ (गीत)

है कला,मिट्टी से मैं,

सोना उगाना जानता हूँ।

पुत्र हूँ किसान का,

मैं हल चलाना जानता हूँ।।



ताप से दिनकर के मैं

तपकर कभी पिघला नहीं

रोक सकती हैं नहीं

मुझको मचलती भी बयारें



प्रात हो या रात,रहता

मैं सदा ही मस्तमौला

बरखा मूसलाधार चाहे

हलकी-फुल्की हों फुहारें



काल के भी गाल से,

मैं लौट आना जानता हूँ..!



लहलहाती है फसल जब

मैं ख़ुशी से झूमता हूँ

संग मेरे झूमते हैं

प्रकृति के सब नज़ारे



ये… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on October 2, 2015 at 7:40pm — 9 Comments

गजल

गजल

2122 2122 2122 212

आपका ऐसे यहाँ आना ठिकाना हो कभी

खिल उठे बगिया मिलन का तो बहाना हो कभी।

धूप का धोया पथिक मैं जल रहा हूँ कामिनी

रूप के जी नेह जल से अब नहाना हो कभी।

लय भरे थे दिन कभी फिर लय भरी थी यामिनी

लौट आयें दिन वही फिर से तराना हो कभी।

भाव मन का भाँप लेतेे बिन कहे बातें हुईं

आ चलें फिर आजमा लें क्यूँ बताना हो कभी?

वक्त ने कितना सताया याद रखना लाजिमी

छक चुके अबतक बहुत अब क्यूँ छकाना हो कभी?

कह रहा हर पल कथाएँ आज अपने प्यार… Continue

Added by Manan Kumar singh on October 2, 2015 at 6:00pm — 4 Comments

पैमाना (कहानी)

पैमाना(सोमेश कुमार )

राम-राम अम्मा जी |(मुकेश बंसल के साथ सैर पर निकलते हुए सुरेश गुप्ता चौखट पर बैठी वृद्धा को देखकर )

राम-राम बेटा |ठीक हो !(वृद्धा ने उनको देखकर हाथ उठाते हुए पूछा )

बस आपका आशीष है |(कहते हुए आगे बढ़ जाते हैं )

कुछ दूर चलने के बाद |अरे सुरेश जी !ये आप क्या कर रहे थे ?

मैंने क्या किया ?

उस औरत को - - -!

क्यों ?कुछ गलत कर दिया |

और क्या ?

कैसे ?

कहाँ आप,कहाँ वो ?

मतलब !

आप जाति के बनिया पढ़े-लिखे शिक्षक फ्लैट में रहने… Continue

Added by somesh kumar on October 2, 2015 at 5:30pm — 4 Comments

प्राकृतिक सौन्दर्य पर हमने दाग लगाया है (कविता )

चहुँ ओर फैली हरियाली 

देती जो हमको खुशहाली 

पर यह कब तक बनी रहेगी 

जब न मोटर - कार रहेगी 

इसे चलाकर हमने दूषित वायु किया 

जानबूझकर हमने छोटा आयु किया 

कर वायु प्रदूषित हमने महाप्रलय बुलाया है 

प्राकृतिक सौन्दर्य पर हमने दाग लगाया है |

भारतवासी पवन गंगा जिससे बुलाते हैं 

पापतारने हेतु इसी गंगा में डुबकी लगाते हैं

भूल गए पावन गंगा ,हम भूल गये कहानी को

अपवित्र करडाला गंगा लाकर गंदे पानी को

खुद की…

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Added by maharshi tripathi on October 2, 2015 at 2:52pm — No Comments

ग़ज़ल-वो दुश्मनी की सब हदों को--

                           ग़ज़ल

 

                  (वहर :  2212  2212  2212  2212 )

वो दुश्मनी की सब हदों को पार करता ही रहा I

मैं माफ़ उसको जान कर हर बार करता ही रहा II

 

जो आह भर भर हर समय थे देखते राहें सदा ,

उनके दिलों से वो सदा व्यापार करता ही रहा I

 

दिल से न शाया था हटा, कुछ तो नजर ढूंढे तभी ,

पहचानता है क्या उसे, इनकार करता ही रहा I

 

राजा दिलों का वो बनें, है मर नहीं…

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Added by कंवर करतार on October 2, 2015 at 2:23pm — 10 Comments

खुद को ढूँढती फिरूँ,कूप कोई अंध में

कभी अतीत फंद में ,कभी भविष्य द्वन्द में 

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में 

शब्द ठिठके से खड़े ,भाव बहने पे अड़े  

अश्रु भी लो अब यहाँ ,बन गए जिद्दी बड़े

अब रुकेंगे ये कहाँ छन्द  के किसी बंद में

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में

प्रेम में रहस्य क्या ,जो छिपा वो प्रेम क्या

 प्रेम हो  कुछ इस तरह ,उदय  रवि लगे नया

खुल जाय हर इक गिरह, मुस्कान एक मंद में

खुद को ढूँढती फिरूँ कूप कोई अंध में 

ह्रदय धरा…

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Added by pratibha pande on October 2, 2015 at 11:12am — 14 Comments

शहर में आ गया पर भूला नहीं गाँव दोस्तों

२१२२ १२२२ २१२२ १२१२

शहर में आ गया पर भूला नहीं गाँव दोस्तों 

भूल सकता नहीं पीपल की मैं वो छाँव दोस्तों 

खेल के नाम पे होती है सियासत ही बस यहाँ 

चल नहीं सकता मेरा कोई यहाँ दाँव दोस्तों 

सजदा करने में भी आती है शरम सबको आजकल 

कोई बूढों के झुक के छूता नहीं पाँव दोस्तों 

माँ ने जिस बाँध के सहरा है बसाया मेरा जहाँ 

मैं उसी माँ की भी बैठा ही नहीं ठाँव दोस्तों 

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Dr Ashutosh Mishra on October 2, 2015 at 10:42am — 12 Comments

''कोई कैनवास नया दे''

११२१२ / ११२१२ / ११२१२ / ११२१२

आ के फ़िर से खूने जिगर तू कर, दिलो-जान तुझपे फ़िदा करूँ

कोई कैनवास नया दे, रंगे-वफ़ा मैं फ़िर से भरा करूँ

.

तेरी आँख को कभी झील तो कभी आसमां कहूँ और शाम

उसी खिडकी पर मै पलक बिछा, अपलक क़ुरान पढ़ा करूँ

.

नहीं चाँदनी है नसीब मेरा तो ख़्वाब रख के सिराहने

तेरी स्याह गेसुओं में छुपे हुए, जुगनुओं को गिना करूँ

.

तेरी बज्म के हैं जो क़ायदे, न कभी कुबूल रहे मुझे

मुझे तिश्नगी…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on October 2, 2015 at 10:31am — 12 Comments

‘गंगा‘, ‘यमुना‘ के तीर पर बैठे,

गंगा‘, ‘यमुना‘ के तीर पर बैठे,

टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,

तुझे देखा है कई लोगों ने।

और मैं ने, ‘बेबस‘ और ‘धसान‘ में गोता लगाते

बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।

जबकि अन्यों को तू गिरिराज की

तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।

मेरे निताॅंत एकान्तिक क्षणों में क्या

तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?

आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया

जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित , घ्रणित और अस्पृश्य ।

तेरी विराटता…

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Added by Dr T R Sukul on October 2, 2015 at 10:30am — 8 Comments

अमीरों की बैसाखी (लघुकथा)

" तुम्हारे नम्बर तो मुझसे कम आये थे ना ! फिर ये एडमिशन .... ? "



" रहने दो अब ये सब पूछना - पूछाना ,लो पहले मिठाई खाओ , आखिर तुम्हारा जिगरी दोस्त तो डाक्टर बन रहा है ना ! "



" मतलब ? "



" अरे नहीं समझे अब तक क्या ! वही पुरानी शिक्षा नीति की घटिया चालबाज़ी , डोनेशन ! और क्या ! "



" लेकिन तुम तो कहते थे डोनेशन देकर नहीं पढोगे । अपने कोशिशों की नैया पर सवार रहोगे ! सो , उसका क्या ? "



" कोशिशों की नैया ! हा हा हा हा ....वो सब स्कूली बातें थी ।…

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Added by kanta roy on October 1, 2015 at 7:30pm — 8 Comments

प्रीत की रीत में प्रणय शामिल। मन्त्र अर्पण के बोलिये आख़िर।।

फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन।

फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन।।

========================================

( 2122 / 1212 / 22)

(रूबरू आ/प हो लिये/ आख़िर।

ख़ूबरू अक् /श खोलिये/ आख़िर।।)

=======================================

रूबरू आप हो लिये आख़िर।

ख़ूबरू अक्श खोलिये आख़िर।।



रूह से जो मिलन की है ख़ाहिश

आये हैं शर्म क्यों लिये आख़िर।।



आपके सुर सुनूँ तो मैं झूमूँ।

कूक कानों में घोलिये आख़िर।।



तन जो हिरणी सा आपका… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 1, 2015 at 5:00pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
खंडित प्रतिमा (लघु कथा ‘राज’)

राजमहल का वो बड़ा सा हॉल  खचाखच भरा हुआ था| सभी शिल्पकार अपनी अपनी ढकी हुई मूर्तियों को  एक पंक्ति में व्यवस्थित करने में लगे थे | थोड़ी देर में ही राजा मानसिंह मूर्तियों का अनावरण शुरू करने वाले थे| आज का विषय ‘सिर पर घड़ा लिए एक देहाती महिला’ था |

इस बार एक खास बात ये थी की पड़ोसी देश के राजा जो राजा  मानसिंह के मेहमान थे मूर्ति का चुनाव करने वाले थे| सभी आपस में फुसफुसा रहे थे की क्या इस बार भी हर बार की तरह मशहूर शिल्पकार पुष्कर सिंह ही ले जायेंगे ईनाम|

भीड़ को…

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Added by rajesh kumari on October 1, 2015 at 4:33pm — 12 Comments

"पानी" (लघुकथा)

रोज की तरह आज भी सुबह सुबह हो-हल्ला सुन कर में उठ गयाI  घड़ी की तरफ देखा तो चार बज रहे थेI घर के सभी सदस्य अपने दोनों हाथोँ में पानी के बर्तन लेकर तैयार खड़े थेI और मेरे लिए भी पानी के बर्तन तैयार थेI हम सब लोग पानी भरने के लिए निकल पड़ेI 3 घंटे बाद पसीने से लथपथ दो दो बाल्टी पानी मिला तो सुकून की साँस लीI  लाइन में खड़े खड़े पाँव अकड़ गए थे, इसलिए थोड़ा बैठकर राहत की साँस ली, फिर अपने घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में चौबे जी के घर के आगे पड़े अख़बार की हेडलाइन "मंगलग्रह पर मिला पानी" पढ़कर ख़ुशी से बाँछे…

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Added by harikishan ojha on September 30, 2015 at 3:00pm — 9 Comments

"तीन प्रत्युत्तर"-- [प्रत्युत्तर संदर्भित लघु कथा]

"तीन प्रत्युत्तर" [ प्रत्युत्तर संदर्भित लघु कथा]



पति देव जी की ज़िद पर आज पैदल ही दोनों एक समारोह में शामिल होने घर से निकले थे।

बाज़ार में एक सड़क पर एक सात-आठ साल का बच्चा स्कूल बैग लिए बुरी तरह रो रहा था। ट्यूशन से लौटते समय शौच पर नियंत्रण न कर पाने से उसका पैन्ट और पैर पतले 'मल' से सने हुये थे।



पत्नी के विरोध के बावजूद सक्सेना जी ने उस अनजान बच्चे को पास की ही एक प्याऊ तक ले जाकर उसकी सफाई करने में सहायता की। बच्चे का चेहरा खिल उठा। वह सामान्य हो कर घर की ओर चल… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 30, 2015 at 12:51am — 11 Comments

मैं आज अपने दिल के ज़ज़्बात भर कहूँगा

फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन

2212 122 2212 122



मैं आज अपने दिल के ज़ज़्बात भर कहूँगा।

तुम पास आज बैठो मैं बात भर कहूँगा।



तुम मुस्कुराके सुनना, मुझे गुनगुनानें देना।

ग़ज़लों में इस हृदय के हालात भर कहूँगा।



ज़ुल्फ़ों के बादलों से ये चाँद झाँकने दो।

तुम चाँदनी बिखेरो मैं रात भर कहूँगा।।



छलका रही हो मदिरा,मयकदे नज़र से।

मधु रस की सिर्फ इसको बरसात भर कहूँगा।।



बेसुध हुआ हूँ ऐसे जैसे कोई शराबी।

मदिरा ए हुश्न की मैं सौगात भर… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 29, 2015 at 11:30pm — 14 Comments

तुम इसे तवज्जो न देना........

तुम इसे तवज्जो न देना ....



ये बादे सबा अगर

तुम्हें मेरे दर्द का पैगाम दे जाये

तो अपने ज़हन में

करवटें लेते खुशनुमा अहसासों पर

तुम तवज्जो न देना

किसी तारीक शब को

अब्र से झांकता माहताब

पीला नज़र आये

तो तन्हाई से गुफ़्तगू करती

मेरी खामोशियों पर

तुम तवज्जो न देना

सड़क पर चलते

तुम्हारे पाँव के नीचे

कोई ज़र्द पत्ता चीखे

तो गर्द में डूबे

मेरी मुहब्बत के

बदलते मौसम पर

तुम तवज्जो न…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 29, 2015 at 7:30pm — 10 Comments

हरसिंगार फूला नहीं समाया

शुभ्र चाँदनी ने था दुलराया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

तिर गया मदहोश हो

चमन की सुंदर हथेली पर

छुप कर खेलता आँखमिचौली

जान देता निशा की सहेली पर

सुंदरी ने जूड़े में सजाया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

खिल गया कपोलों पे

रजत कणों की कर्पूरी आभा लिए

वसुधा को करने सुगंधित

रूप अपना सादा लिए

भोर ने वृक्ष को धीरे से हिलाया

हरसिंगार फूला नहीं समाया

*****

बिछ गया बेसुध हो

मन में असीमित नेह…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on September 29, 2015 at 6:30pm — 6 Comments

गजल(मनन)

122 122 122 122

हिमालय बना था पड़ा ढल रहा हूँ

पिघलकर बना मैं नदी चल रहा हूँ।

उसाँसें धरा की सहेजे-सहेजे

बना मैं घटा कर अभी मल रहा हूँ।

बहा हूँ कभी मैं ढुलकता रहा था

अभी भी उसी आँख में पल रहा हूँ।

रही आग है जो जलाती- बुझाती

उसी आग में मैं अभी गल रहा हूँ।

जली थी कभी जो कहूँ नेह-बाती

अभी मैं वही लौ बना जल रहा हूँ।

पला था सपन जो घनेरे-घनेरे

रंगा मन उसीमें अभी चल रहा हूँ।

उषा की नवेली किरण तब हँसी थी

कभी बल रहा मैं कभी जल रहा… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 29, 2015 at 2:59pm — 4 Comments

नाम काफ़ी है किसी का,सिर झुकाने के लिये (ग़ज़ल)

(2122 2122 2122 212)

आज फिर आये वो मुझको आज़माने के लिये..

क्या मिले हम ही थे उनको दिल दुखाने के लिये..

-

बात से फ़िर जाएँगे,ये सोच भी कैसे लिया,

सर कटा देंगे, दिया वादा निभाने के लिये..

-

ये शिकन माथे पे मेरे,बेवजह ही है सही,

कुछ तो कारण चाहिये ना, मुस्कुराने के लिये..

-

थे भरे संदूक वो,शैतान सब धन खा गये,

हो गये हैं आज वो,मुहताज दाने के लिये..

-

मंदिरों औ' मस्ज़िदों में 'जय' भटकना छोड़…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 29, 2015 at 12:27pm — 10 Comments

तरही ग़ज़ल

रोटी कपडा दयार थे सदमे

मुफलिसी मे हज़ार थे सदमे



एक मुद्दत से साथ चलते थे

जान के दावेदार थे सदमे



खूब रोया था कहके चारागर

क्यों मेरा रोजगार थे सदमे



शाइरी भी फंसी सियासत मे

पहले ही बेशुमार थे सदमे



सारी बातें गलत तबीबों की

तेरे गम का गुबार थे सदमे



उनकी आँखों से नूर बहता है

हर तरफ मेरी हार थे सदमे



आज कह डाले तेरी महफ़िल है

मुझपे तेरा उधार थे सदमे



इश्क वालो के बीच कहता हु

रौशनी मे दरार… Continue

Added by मनोज अहसास on September 28, 2015 at 7:32pm — 2 Comments

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