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ग़ज़ल :- अब तो माँ भी नहीं दुआ के लिये

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान

तोड़ क्या लाऊँ इस बला के लिये
अब तो माँ भी नहीं दुआ के लिये

रह्म शैताँ के पास मिलता नहीं
ये सिफ़त है फ़क़त ख़ुदा के लिये

जान से हाथ धोना पड़ते हैं
बस ये इनआम है वफ़ा के लिये

हक़ अदा कर दिया मुहब्बत का
क्या सज़ा देंगे इस ख़ता के लिये

सब उसे तोता चश्म कहते हैं
है वो मशहूर इस अदा के लिये

मुश्किलें मेरी दूर कर देना
कोई मुश्किल नहीं ख़ुदा के लिये

क़त्ल का मेरे फ़ैसला ये हुवा
सब थे तैयार खूँ बहा के लिये

धमकियाँ देके वो डराते हैं
छोड़ देंगे "समर" सदा के लिये

-----------


तोता चश्म :- तोते की तरह आँखे बदलने वाला

खूँ बहा :- एक रिवाज के मुताबिक़ क़ातिल तय शुदा रक़म क़त्ल होने वाले के घर वालों को दे दे,और वो रक़म लेने को तैयार हो,उस रक़म (दौलत) को खूँ बहा कहते हैं ,और इसे अदा करके क़ातिल मौत की सज़ा से बच जाता है ।

समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 11:05pm
जनाब "जान" गोरखपुरी जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 11:01pm
आली जनाब डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 10:59pm
जनाब सुशील सरना जी, आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 10:58pm
आली जनाब डॉ विजय शंकर जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 10:56pm
जनाब रवि शुक्ल जी,आदाब,'जान से हाथ धोना'
मुहावरा है,हाथ चूँकि बहुवचन है,इस लिहाज़ से 'पड़ते हैं' लिया है ,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 10:51pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on October 5, 2015 at 10:13pm

क़त्ल का मेरे फ़ैसला ये हुवा
सब थे तैयार खूँ बहा के लिये

गज़ब सर....आपने जो अर्थ बताया है वहाँ तो बिना संकेत कोई विरला ही पहुच सकता है! गज़ल में ऐसे तजुर्बे हम जैसे कहाँ से लायेंगे???? हा हा हा!!...सादर अभिनन्दन !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 5, 2015 at 8:49pm

आ० समर कबीर जी ,आपकी गजल छुट जाये तो कोफ़्त होती है , मिलती है तो पढ़ना लाजिम है मेरे लिए - बहुत सीखने को मिलता है . सादर ,. 

Comment by Sushil Sarna on October 5, 2015 at 6:40pm

वाह बहुत ही मार्मिक और दिलकश अशआर कहे हैं आपने इस ग़ज़ल में हार्दिक बधाई।
तोड़ क्या लाऊँ इस बला के लिये
अब तो माँ भी नहीं दुआ के लिये
_/\_

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 5, 2015 at 8:46am
मुश्किलें मेरी दूर कर देना
कोई मुश्किल नहीं ख़ुदा के लिये।
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , बहुत उम्दा ग़ज़ल बनी है ,बधाई , सादर।

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