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फूल चोर

"फूल चोर"



मंदिर में वर्मा जी की थाली में अपने बागीचे के विदेशी फूल देखकर वृंदा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे पूजा की थाली हाथ में पकडे मूर्ति के सामने खड़े हुए थे, जिसे देखकर वृंदा के चेहरे पर अविश्वास और क्रोध के मिश्रित भाव उभर आए।



दरअसल बचपन से ही वृंदा को जूनून की हद तक बागवानी का बेहद शौक था। तरह तरह से रंग सजावटी पौधों, हरी भरी घास, रंग बिरंगे फूलों तथा विभिन्न प्रकार के बेल बूटों से भरा बगीचा पूरी कॉलोनी में चर्चा का विषय बन चुका था। जो भी देखता, बगीचे और वृंदा की… Continue

Added by Nita Kasar on October 19, 2015 at 5:04pm — 25 Comments

सच्चा आनंद – (लघुकथा ) -

  सच्चा आनंद – (लघुकथा ) -

 "शुक्ला जी,सुना है आप पूरे नव रात्र छुट्टी पर हो"!

"सही सुना है आपने गौतम जी"!

"ऐसा क्या कठोर  व्रत पूजा पाठ   कर रहे हो कि पूरे नौ दिन की छुट्टी ले ली, व्रत उपवास तो हम भी करते हैं,पर छुट्टी खराब करके नहीं"!

"कुछ ऐसा ही  व्रत कर रहा हूं इस बार "!

"कुछ विस्तार से बताओगे"!

"गौतम जी अपने कार्यालय के पीछे जो कुष्ठ रुग्णालय है, उसमें दस कुष्ठ रोगी हैं!मैं पूरे नव रात्र उस रुग्णालय में अपनी सेवायें दे रहा हूं!प्रातः सात बजे से…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 19, 2015 at 3:45pm — 10 Comments

मेरी कुछ हाइकू रचनाएँ [हाइकू] (2)/ _शेख़ शहज़ाद उस्मानी

(1)
छंद रच ले
छंद का समारोह
काव्य आरोह।

(2)
मन पसंद
लिख ले कुछ छंद
बिना पैबंद।

(3)

छंद में बंद
भावनायें पसंद
विधान द्वंद।

(4)
छन-छन के
निकलते ये छंद
उत्कृष्ट चंद।

(5)
छंद सुनाओ
सत्य हमें बताओ
चेतना लाओ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 19, 2015 at 10:30am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जरा सा पास आकर देख तो लो----(ग़ज़ल)---मिथिलेश वामनकर

1222---1222---122

 

जरा सा पास आकर देख तो लो

कभी पलकें उठाकर देख तो लो

 

अगरचे तिश्नकामी गम बहुत है

उसे आँसू…

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Added by मिथिलेश वामनकर on October 19, 2015 at 2:08am — 18 Comments

तो बेहतर था

1222 1222 1222 1222



तेरे नैनों के पर्दे को उठा लेती तो बेहतर था।

निगाहों को मेरे मुख पर टिका देती तो बेहतर था।।



हाँ बेहतर तो यही होता कि तुझमें खो ही जाता मैं।

औ तुम भी मेरी आँखों में समा जाती तो बेहतर था।।



न खाली हो सके तुम भी बहुत मशरूफ थे हम भी।

घड़ी कोई हमें तुमसे मिला देती तो बेहतर था।।



पता है, मेरे इस दिल में कई सपने सुहाने थे।

तू अपने ख़्वाब सारे जो बता देती तो बेहतर था।।



यहाँ खोने का डर था तो वहाँ संकोच का…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 18, 2015 at 11:00pm — 12 Comments

स्वेटर (लघुकथा)

जनवरी की हड्डी कंपा देने वाली ठंड..मैं ऊपर से नीचे तक गर्म कपड़ों के बावजूद कांप रही थी ।कक्षा में पहुंच कर एक नजर, मेरे सम्मान में खड़े सभी बच्चों पर डाली और बैठने का इशारा किया । तभी मेरी नजर उन बच्चों पर पड़ी जिनके बदन पर कपड़ों के नाम पर बस कपड़ों का नाम था।मैंने उन सभी बच्चों को खड़ा कर दिया ।

"क्यों!स्वेटर कहां है तुम्हारे?स्कूल से स्वेटर के लिये पैसा मिला ना तुम लोगों को फिर..?"लहजा सख्त था । बच्चे सहम गये ।फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा…

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Added by Rahila on October 18, 2015 at 9:30pm — 39 Comments

"गुम्मन चाय वाला" - (लघु कथा) (20)

"चच्चा, लो पियो जे कड़क चाय, लेकिन मेरी कविता ज़रूर पढ़कर जाना" - गुम्मन ने बड़े उत्साह से कहा।

थोड़ी देर बाद वहीद चच्चा बोले- "ओय गुम्मन, तू तो बड़ी अच्छी कविता लिख लेता है, आज पता चली तेरी काबीलियत और तेरा 'असली' नाम।"

"हाँ चच्चा, छुटपन में एक बार ठण्ड के साथ तेज़ बुख़ार होने पे बिना किसी को बताये टेबल पे रखी रजाई की तह में छिपकर सो गया था। घरवाले घण्टों ढूंढते रहे। जब मिला तो "गुम" कहके चिढ़ाने, बुलाने लगे। इस चाय की दुकान पे सब "गुम्मन" कहने लगे। स्कूल छूटा तो असली नाम भी गुम…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 18, 2015 at 8:30pm — 7 Comments

असहज अनियंत्रित- डा0 गोपल नारायन श्रीवास्तव

आज भी कभी

जब उधर से गुजरता हूँ

उतर जाता हूँ

उस खास स्टेशन पर

टहलता हूँ देर तक

लम्बे प्लेटफार्म पर

बेसुध आत्मलीन

 

फिर चढ़ जाता हूँ रेलवे पुल पर

तलाशता हूँ वह् रेलिंग

वह ख़ास जगह

टटोलकर देखता हूँ 

शायद वही जगह है

स्तब्ध हो जाता हूँ

लगता है कोई

सोंधी महक

सहसा उठी और

सिर से गुजर गई

 

नीचे आता हूँ

फिर पुल के नीचे

पुल के आधार…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2015 at 7:56pm — 5 Comments

शाकाहारी

“और भाईजान कैसे है...सब खैरियत तो हैं न?” चिकन शॉप में काम करने वाले प्रकाश के मित्र जावेद ने शिष्टाचार के तहत पूँछा ।

“बस, रहम हैं ऊपर वाले का..और तुम्हारी कैसी गुजर रहीं है, बड़े दिन बाद आना हुआ ईधर ।” प्रकाश ने कहा ।

“बस, काम के सिलसिले में दिल्ली गया था कल ही तो लौटा हूँ...सोचा प्रकाश भाई कि शॉप से चिकन लेता आऊँ वैसे भी बड़े दिन हो गये तुम्हारे दुकान का चिकन खाए हुए ।” जावेद ने जवाब देते हुए कहा ।

“हाँ...हाँ, क्यों नहीं ।” प्रकाश ने कहा ।

“अरे! यार प्रकाश तुम…

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Added by DIGVIJAY on October 18, 2015 at 7:13pm — 6 Comments

जिगर से पूछकर देखो,नज़र से पूछकर देखो (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222



मज़ा क्या है सफ़र का,हमसफ़र से पूछकर देखो

है मंज़िल दूर कितनी,ये डगर से पूछकर देखो

-

सुनाएँगी दरो-दीवार,खिड़की रोज़ ही तुमको

कहानी अपने पुरखों की तो घर से पूछकर देखो

-

बिताई जिस के साये में थी तुमने धूप जीवन की

कि अब तो हाल उस बूढ़े शजर से पूछकर देखो

-

पता चल जाएगा, किसने फ़िज़ा में है ज़हर घोला

हवाओं से,ये बू आती किधर से..पूछकर देखो

-

वफ़ा के ज़ख्म कितने हैं,बहे कितने मेरे आँसू

जिगर से पूछकर… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on October 18, 2015 at 5:00pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -तेरी सुहबत में ऐ पत्थर, पिघलना छोड़ देंगे क्या - ( गिरिराज भंडारी )

1222     1222        1222      1222  

बहलने की जिन्हें आदत, बहलना छोड़ देंगे क्या

तेरे वादों की गलियों में, टहलना छोड़ देंगे क्या

 

तू आँखें लाल कर सूरज, ये हक़ तेरा अगर है तो  

तेरी गर्मी से डर, बाहर निकलना छोड़ देंगे क्या

 

कहो आकाश से जा कर, ज़रा सा और ऊपर हो

हमारा कद है ऊँचा तो , उछलना छोड़ देंगे क्या

 

दिया जज़्बा ख़ुदा ने जब कभी तो ज़ोर मारेगा

तेरी सुहबत में ऐ पत्थर, पिघलना छोड़ देंगे क्या  

 

ये सूरज चाँद…

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Added by गिरिराज भंडारी on October 18, 2015 at 10:44am — 16 Comments

हर आदमी रो रहा है

अभी अभी जन्मे हो

फिर भी इतना रोना धोना

बात क्या है

क्यों रो रहे हो बच्चे ?

मैंने पूछ लिया

एक प्रश्न बेवजह ।।

बच्चा चमत्कारी था

बोल पडा झट से

क्यों नहीं रोऊँ मैं

इस दुनिया में आके

जबकि इस दुनिया में

गरीब रो रहा है

अमीर रो रहा है

बेऔलाद रो रहा है

औलाद वाला रो रहा है

इस दुनिया में सब लोग

मेरी तरह नंगे हाल आये

फिर भी सब के सब रो रहे हैं

जो हँस रहा है

वो भी रो रहा है

जो रो रहा है वो भी रहा है

जब पूरी…

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Added by umesh katara on October 18, 2015 at 9:49am — 4 Comments

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर / कान्ता राॅय

जिंदगी रेल सी

दौडती हुई

भागती हुई

स्टेशन दर स्टेशन

सरक कर रूकती हुई

चढते मुसाफिर

उतरते मुसाफिर

रेलम की पेल में

यादों का कारवां

सीट के नीचे दबकर

रह जाता है

ट्रेन में बैठा

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर

सब देखता हुआ

कुछ सोचता हुआ

बैठा रहता है अकेले



साथ बैठ कर

मुँगफली खाते हुए

चाय के सकोरे के संग

बनाए हुए कुछ रिश्ते ,कुछ संवाद और समस्त संवेदनाओं को

अपने बैग में कस कर

कंधे पर डाल

बीच स्टेशन… Continue

Added by kanta roy on October 17, 2015 at 2:33pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नौ दोहे सबको नवरात्र ही हार्दिक बधाई

दिव्य स्वरूपी संस्थिता ,इष्ट अलौकिक शक्ति|

शारदीय नवरात्र में ,शैल सुता की भक्ति||

ब्रह्मलोक संचालिका ,ब्रह्मचारिणी मात्र|

ध्यान ज्ञान आराधना ,शुभ दूजा नवरात्र ||

नाम चन्द्र घंटा सजा ,माँ दुर्गा का रूप|

देता अद्भुत ज्ञान है ,त्रय नवरात्र अनूप||

नाम अन्नपूर्णा धरे ,शाक भरी का पात्र|

माँ कूष्मांडा आ गई ,ले चौथा नवरात्र ||

शुभ पञ्चम नवरात्र है ,माता स्कन्द चरित्र|

खत्म तारकासुर किया…

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Added by rajesh kumari on October 17, 2015 at 12:35pm — 13 Comments

"एक और वार" - [लघु-कथा] (19)

हल्की 'टप्प' की आवाज़ के साथ स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर दो बूँदें गिरीं । एक लम्बी साँस लेकर पश्चाताप और आक्रोश की ज्वाला फिर भड़क उठी। यह वही तस्वीर है न, जो शालिनी के बेहद क़रीबी 'दोस्त' ने ली थी, उस दिन मोबाइल पर।फोटो लेते समय ही उसकी आँखें फटी की फटी सी रह गयीं थीं। उस छिछोरे के हाव-भाव ही संदेहास्पद थे। शालिनी ने तो उसे जीन्स या शोर्ट्स पहनकर चलने को कहा था , लेकिन वह सलवार सूट पहन कर ही उस 'आत्म-रक्षा प्रशिक्षण कैम्प' में गई थी। शालिनी का कुशल व्यवहार उसे पसंद था, लेकिन वह समझ न सकी कि…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 17, 2015 at 11:34am — 3 Comments

तुमको मिली सजा है

2212 122 2212 122



रुसवा किया जो यारी, तुमको मिली सज़ा है।

फ़तवा हुआ है ज़ारी, पढ़लो मिली सज़ा है।।



बदनामियों की ज़द में, वो आ गए तो सदमा।

भिजवा दिया है भारी, सिसको मिली सज़ा है।।



उनकी निगाह में थी, जो भी हाँ छवि तुम्हारी।

हटवा दिया है सारी, भटको मिली सज़ा है।।



चोरी से चाहने की, उसनें ख़ता रपट में।

लिखवा दिया तुम्हारी, भुगतो मिली सज़ा है।।



खुद चाँद ने तुम्हारे, हिस्से की रात सारी।

लिखवा दिया है कारी, सुनलो मिली सजा… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 17, 2015 at 11:28am — 4 Comments

खडी परधानी में भऊजी

1222   1222    1222   1222



निशानी हार फूलो पे मुहर तुम सब लगा देना

खड़ा परधानी मेें देखो भऊजी को जिता देना





सुबह अब चार से पहले भऊजी रोज जागेगी

गली में हाथ जोडे़ मुस्‍कुरा कर वोट माँगेगी

बहुत खुश हैं न दॉंतो से जो पाते तोड़ अब रहिला

पता जब से चला उनको हुआ ये गॉंव है महिला

कहे बूढे़ सभी मुझसे, जरा उनसे मिला देना

निशानी हार फूलो पे मुहर तुम सब लगा देना

खड़ा परधानी मेें देखो भऊजी को जिता देना



रसोई में न काटे अब सुनो…

Continue

Added by Akhand Gahmari on October 17, 2015 at 10:00am — No Comments

तरही ग़ज़ल नं-3 "मुसहफ़ी" की ज़मीन में

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन



बयाँ कैसे करूँ क्या उसकी अंगड़ाई का आलम था

तसव्वुर में न आए ऐसा ज़ैबाई का आलम था



बस इक नुक्ते प आकर रुक गई थी ज़िन्दगी मेरी

न वो वहशत का आलम था न दानाई का आलम था



कोई सुनता भी कैसे एक शाइर की सदा भाई

वतन में हर तरफ़ हंगामा आराई का आलम था



अँधेरे में गिरी सुई भी हम तो ढूँढ लेते थे

जवानी में तो कुछ ऐसा ही बीनाई का आलम था



ग़ज़ल कहने का मौक़ा ख़ूब हम को मिल गया यारों

नहीं था घर में कोई सिर्फ़ तन्हाई… Continue

Added by Samar kabeer on October 16, 2015 at 11:25pm — 12 Comments

प्रयास (लघुकथा)

"मधु ! पिता जी का खाना भेज दिया ?"

"हाँ ! बाबा हाँ ! रोज नियम से भेज देती हूँ।" रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते:

"बेटा ! बहु-बच्चों का ख्याल रखना।"

आज मधु की छोटी बहन-जीजा आये हुए, देखकर रमेश ने मधु को बिना कुछ बताये टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। मधु ने भी खाना भिजवा दिया। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा तो मधु…

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Added by Vijay Joshi on October 16, 2015 at 7:00pm — 5 Comments

जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही (ग़ज़ल )

तन्हाइयों के ढेर में ख्वाहिश दबी रही ,

जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही

रोते रहे कुछ लोग और जलते रहे कुछ घर ,

पर निंदकों की बस्तियों में रोशनी रही

हमको बिठा के चल दिया ऑटो जब उसको छोड़ ,

मैं देखता रहा, वो मुझे देखती रही

सूखे के बावजूद भी उस दूब को देखो ,

जाने वो इस अकाल में कैसे बची रही

शायद वो समझती थी मुझे आईना, तभी ,

खुद रूप की गहराईयों को आंकती रही

हल है ये लोकतंत्र सियासत के हाथ का ,

जनता ही इस जुएं से मगर जूझती रही

बचपन…

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Added by Jayprakash Mishra on October 16, 2015 at 1:00pm — 2 Comments

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