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राम जी रावणी मन हुआ है (दशहरा विशेष)

2122 122 122 2122 122 122


किस तरह से दशहरा मनायें; राम जी रावणी मन हुआ है।
राम नामी वसन पर न जायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।

वासना से भरा है कलश ये, हो गया कामनाओं के वश में।
भेष साधू का झूठा, भुलायें राम जी रावणी मन हुआ है।।

स्वर्ण का ये महल चाहता है, मन्त्र बस धन का ये बांचता है।
किस तरह से "स्वयं" को जगायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।

स्वार्थ का आचरण हर घड़ी है, नेक नीयत दफ़न हो गयी है।
आज खुद को विभीषण बनायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।

लोभ के मोह के मद के वश में, हो गया हूँ हाँ "मैं" से विवश मैं।
कैसे भीतर का रावण जलायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।



मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 27, 2015 at 11:20am
आदरणीय नीता कसार जी सादर धन्यवाद।
Comment by Nita Kasar on October 27, 2015 at 10:27am
यथार्थ के क़रीब है सुंदर कविता के हार्दिक बधाईयां आपको आद०पंकज मिश्रा जी बारंबार रावण दहन करते है पर मन रावणों ही रह जाता है ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 22, 2015 at 11:45pm
आदरणीय मिथिलेश सर; सादर धन्यवाद।

इसे "मेरे बांके बिहारी संवरिया, तेरा जलवा कहाँ पर नहीं है" भजन की लय पर गाइये।

कथ्य की तारीफ के लिए शुक्रिया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:40pm

आदरणीय पंकज भाई वाह वाह दिल खुश कर दिया आपने ये ग़ज़ल कहकर 

बह्र की लय पकड़ में नहीं आई मगर कथ्य ने दिल को छू लिया और बिलकुल नया प्रयोग लगा 

कुल मिलाकर शानदार 

आपको बहुत बहुत बधाई 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 22, 2015 at 10:45pm
सादर अभिवादन आदरणीय कान्ता रॉय मैम
Comment by kanta roy on October 22, 2015 at 10:33pm
आज के परिदृश्य में ऐसा लगता है कि सच में हर मन रावनी मन हुआ है । बेहद क्लांत से भाव उजागर हो रहे है पंक्तियों में आपके आदरणीय पंकज जी । कभी - कभी स्वार्थ का आचरण असह्य हो जाता है , लेकिन राम अब जल गया है सिर्फ रावनी मन रह गया है । रावनों में रहते - रहते अब तो किसी का राम होना ही मानो विसंगति लगती है इस धरती पर । हार्दिक बधाई इस सार्थक रचना कर्म के लिए आदरणीय पंकज जी ।

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