हर रूप में हर रंग में,
कभी दूर से कभी संग में
अकेले कमरा-बंद में ,
कभी भीड़ के हडकंप में
तपते आँगन में नंगे पाँव से,
कभी पीपल की ठंडी छांव से
हकीक़त कि कम्पित नाव से,
कभी सपनों के रेशमी गांव से
नदिया कि बहती धार पे,
कभी क्षितिज के उस पार पे
पेड़ों कि हिलती डार पे,
कभी वीणा कि झंकृत तार पे
दूर चाँद के मुस्कुराने पर,
कभी दिन में आंसू बहाने पर
फूलों के खिलखिलाने…
ContinueAdded by Priyanka Tripathi on May 25, 2013 at 1:00pm — 15 Comments
| मानव जब दानव बन जाता , खो देता आचार विचार | |
| घूमता है जानवर जैसे , कुछ भी समझाये परिवार | |
| जान की परवाह ना करता , भूल जाता भरा संसार | |
| पाप का घडा जब भरता है , कोई ना मिले… |
Added by Shyam Narain Verma on May 25, 2013 at 11:50am — 2 Comments
ऐ मेरी मुश्किलों सब मिलके मेरा सामना करो
मै अकेला ही बहुत हूँ तुमसे निबटने के लिए ,
ऐ मेरी मुश्किलों सब मिलके मेरा…
Added by Mukesh Kumar Saxena on May 24, 2013 at 9:30pm — 5 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 24, 2013 at 9:00pm — 5 Comments
इतना मुझे बता दो , मै कौन हूँ तुम्हारा ।
तेरी ओर बहती जाये , मेरी ज़िन्दगी की धारा ।
साँसों से बन्ध के जैसे , कोई डोर खींचती है ।
जाने मुझे क्यों पल पल , तेरी ओर खींचती है ।
हर सांस में सिसक कर, दिल ने तुम्हे पुकारा ।
तेरी ओर बहती जाये , मेरी ज़िन्दगी की धारा ।
मैकश अगर मै कोई , तू मेरा मैकदा है ।
पीता हूँ जाम तेरे , मुझको तेरा नशा है ।
आँखों में तैरता है , तेरे प्यार का नज़ारा ।
तेरी ओर बहती जाये , मेरी ज़िन्दगी…
Added by Neeraj Nishchal on May 24, 2013 at 2:54pm — 19 Comments
क्या है - जिंदगी ,
संध्या है या प्रभात,
शीत है या उष्ण,
सूरज की लाली या चांदनी है चाँद की ,
आदि है या अंत
स्वप्न है या चैतन्य…
ContinueAdded by Anuj kumar Pandey on May 24, 2013 at 12:30pm — 8 Comments
14 पंक्तियां, 24 मात्रायें
तीन बंद (Stanza)
पहले व दूसरे बंद में 4 पंक्तियां
पहली और चौथी पंक्ति तुकान्त
दूसरी व तीसरी पंक्ति तुकान्त
तीसरे बंद में 6 पंक्तियां
पहली और चौथी तुकान्त…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on May 23, 2013 at 3:30pm — 23 Comments
खण्ड खण्ड में विभक्त है मनुष्यता अपार
आसुरी प्रवृत्ति का प्रहार ये प्रचण्ड है
आ रहा समक्ष भी न देव शक्ति का प्रभाव
दुष्ट को प्रताड़ना विधान या न दण्ड है
सन्त हीन है समाज, शक्तिवान में प्रभूत --
आज देख लो सखे बढ़ा हुआ घमण्ड है
भारती अपंग हो गई सुनो परन्तु मित्र
घोष हो रहा कि राष्ट्र नित्य ही अखण्ड है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 23, 2013 at 10:41am — 11 Comments
चले चलो, बढे चलो...
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बढे चलो, बढे चलो
हिन्द के ओ सुरमाओ
बढे चलो, बढे चलो
सीमाओं की तुम ढाल हो,
रणभूमि की तुम नाल हो,
देश के द्वारपाल हो
माँ के तुम लाडले,
वतन के तुम कर्णधार हो,
बढे चलो बढे चलो
दुश्मन तुम्हे निहार रहा
ताक़त को है ललकार रहा
लहू को अपने उबाल के
जान अपनी वार के
धरती पर उसको मार के
बढे चलो बढे चलो.
-दिनेश सोलंकी
-फोटो महू छावनी के माल रोड का, छाया: दिनेश…
ContinueAdded by dinesh solanki on May 23, 2013 at 7:00am — 6 Comments
जीवन में सद्काम का,........... हुआ सदा सम्मान |
आये दिन अब कर्म के,........ जाने सजग किसान ||
कारी रैना भोर में,..................... बीती देकर ज्ञान |
चार प्रहर में दोपहर,.............…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on May 22, 2013 at 10:00pm — 7 Comments
भीषण विनाशकारी बदलाव हो रहा है,
मासूमियत पे जमकर पथराव हो रहा है,
आदत बदल रही है फितरत बदल रही है,
रिश्तों में प्यार का भी अभाव हो रहा है,…
Added by अरुन 'अनन्त' on May 22, 2013 at 10:00pm — 8 Comments
अब चाँद…
ContinueAdded by sanju shabdita on May 22, 2013 at 8:30pm — 22 Comments
जिस वक्त कोई
बना रहा होता क़ानून
कर रहा होता बहस
हमारी बेहतरी के लिए
हम छह सौ फिट गहरी
कोयला खदान के अंदर
काट रहे होते हैं कोयला
जिस वक्त कोई
तोड़ रहा होता क़ानून
धाराओं-उपधाराओं की उड़ा-कर धज्जियां
हम पसीने से चिपचिपाते
ढो रहे होते कोयला अपनी पीठ पर..
जिस वक्त कोई
कर रहा होता आंदोलन
व्यवस्था के खिलाफ लामबंद
राजधानियों की व्यस्ततम सड़कों पर
हम हाँफते- दम…
ContinueAdded by anwar suhail on May 22, 2013 at 8:20pm — 3 Comments
वजहों के बोझों तले क्यों , बेवजह है ज़िन्दगी |
जीने वालों के लिए , जैसे सज़ा है ज़िन्दगी |
साँसों के संग ही चल रही साँसों के संग थम जायेगी ,
आती जाती सांसो का एक सिलसिला है ज़िन्दगी |
हमने बनाये जो यहाँ खो जायेंगे वो सब मकाँ
जिसकी मंजिल मौत है वो रास्ता है ज़िन्दगी |
हम जी रहे हैं आज में और सोचते कल की सदा ,
इस जगह को छोड़कर क्यों उस जगह है ज़िन्दगी |
ये दिल हमारा है मगर यहाँ ख्याल है किसी और का…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on May 22, 2013 at 11:30am — 11 Comments
(प्रवास पर होने के कारण तरही मुशायरा अंक ३५ की ग़ज़ल यहाँ पेश कर रही हूँ )
आज जिस हाल में खुदा लाया
वक्त सपने वहीँ सजा लाया
रात सपने हसीन लाती है
दिन बुलाकर करीब क्या लाया
चाँदनी से सितारे रूठेंगे
चाँद दिल रात का चुरा लाया
तुम मिलोगे हजार कोशिश की
फिर हमें आज वास्ता लाया
जाते- जाते यही कहा उसने
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
मोड़ जिसपर जुदा हुए थे हम
फिर वहीँ आज…
ContinueAdded by rajesh kumari on May 22, 2013 at 11:00am — 18 Comments
काल अग्नि युक्त है तृतीय नेत्र और शम्भु
कन्ठ कालकूट युक्त आपका बना हुआ
और माल भी भुजंग ही बने हुए अनेक
दंग हूँ शिवत्व किन्तु आपका घना हुआ
बाँटते रहे प्रसाद आप भक्त के निमित्त
सोम वृष्टि से कृतार्थ मुक्त-वेदना हुआ
आशुतोष भक्ति ध्यान में रहूँ रमा सदैव
और भाल स्वाभिमान से रहे तना हुआ
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 22, 2013 at 10:47am — 8 Comments
सुधि पाठकगण,
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ई-पत्रिका “प्रयास” का चतुर्थ अंक ’माँ’ विशेषांक के रूप में विश्व की कोटि-कोटि माओं को पूरे आदर के साथ समर्पित है। हमें पूरा विश्वास है कि समस्त हिंदी प्रेमियों को यह अंक पसंद आयेगा।
आप इस अंक को www.vishvahindisansthan.com/prayas4 पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। पेज को बड़ा-छोटा करने की सुविधा पेज पर ही उपलब्ध है। पेज की बायीं तरफ़ नीचे एक + चिन्ह वाला लैंस है, उस पर क्लिक करेंगे तो पेज/फ़ांट…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on May 22, 2013 at 7:55am — 2 Comments
मई का महीना, जेठ की दुपहरी
पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है
धरती जलती और सूरज तपता है.
एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर
जूते दस्ताने और हेलमेट पहन
क्या खटाखट चढ़ता है.
सेफ्टी बेल्ट के एक हुक को
ऊपर के पट्टी में फंसाता
दूसरे हुक को खोलता,
ऊपर और ऊपर चढ़ता है
"अरे क्या सूर्य से टकराएगा?
सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?"
वह मुस्कुराता
अपने साथियों को इशारे से…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on May 22, 2013 at 4:30am — 10 Comments
जब नयन गुनगुना हो गया
तो सृजन गुनगुना हो गया
रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया
तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया
उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया
नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया
थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया
उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया
साँस ने साँस को आग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 22, 2013 at 1:33am — 4 Comments
बस इतनी थी
खता हमारी
कि थोड़ा
जीना चाहा
कॉफी के
हर घूंट में हमने
कितना कुछ
पीना चाहा
मगर बेहया
इन रातों को
इतना भी
मंजूर न था
पलट हंसा
सारे प्रश्नों को
जब उत्तर कुछ
दूर ना था
और छपे तब
कितने किस्से
चेहरे के
अखबार में
समझ चुका था
गहन दहन ही
मिलता इस
संसार में
बस इतनी थी
ख़ता हमारी
कि…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 21, 2013 at 1:11pm — 7 Comments
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