//ॐ//
हंसवाहिनी वाग्देवी शारदे उद्धार कर
अर्चना स्वीकार कर माँ, ज्ञान का विस्तार कर
स्वप्न की साकारता संस्पर्श कर लें उंगलियाँ
ज्ञान की अमृत प्रभा द्रुमदल की खोले पँखुड़ियाँ
नवल सार्थक कल्पना में हौंसलों की धार कर …
Added by Dr.Prachi Singh on May 28, 2013 at 8:00pm — 37 Comments
वाह! तरही मुशायरा के इस अंक में क्या ही शानदार, एक से बढ़कर एक गजलें पढने को मिली...आनंद आ गया... सभी गजलकारों को तहेदिल से मुबारकबाद देते हुए मुशायरा के दौरान व्यस्तता की वजह से पोस्ट नहीं हो सकी 'मिसरा ए तरह' पर गजल प्रयास सादर प्रस्तुत...
क्या पता अच्छा या बुरा लाया।
चैन दे, तिश्नगी उठा लाया।
जो कहो धोखा तो यही कह लो,
अश्क अजानिब के मैं चुरा लाया।
क्यूँ फिजायें धुआँ धुआँ सी हैं,
याँ शरर कौन है छुपा…
ContinueAdded by Sanjay Mishra 'Habib' on May 28, 2013 at 5:21pm — 20 Comments
पछुआ की यह गर्म हवा व्याकुल करती है,
सूरज की भी किरणें हैं ले रहीं परीक्षा।
गर्मी के दिन याद दिलाते हैं गांवों की,
काश! छुअन छू जाती हमकों अमराई की,
गर्मी के दिन याद.........................।
शहरों की यह आपाधापी, कमरे में बंद अपनी दुनिया।…
Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on May 28, 2013 at 1:00pm — 10 Comments
लो झेलो अब गर्मी
भयानक-विकराल और
शायद असह्य भी..है न ?!!
देखो अब प्रकृति का क्रोध
तनी हुई भृकुटि और प्रकोप...
विज्ञान के मद में चूर
ऐशो आराम की लालच में
भूल बैठे थे कि है कोई सत्ता
तुमसे ऊपर भी,
है एक शक्ति - है एक नियंत्रण
तुम्हारे ऊपर भी...
एसी चाहिये-फ्रिज चाहिये
हर कदम पर गाड़ी चाहिये
लेकिन इन सबकी अति से
होने वाली हानि पर कौन सोचे
किसके पास है समय ?!!!
वैज्ञानिक कर रहे हैं शोध
पर किसके…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on May 27, 2013 at 9:30pm — 17 Comments
!!! गजल !!!
वज्न- 2122, 2122, 2122, 212
अब वतन को लूटकर सिर कांटना क्या पीर है।
आम जनता रोज मरती शापता क्या पीर है।।
घूस खोरी या कमीशन खूब करते ठाठ से।
मुफलिसी का हाथ थामे रास्ता क्या पीर है।।1
जिन्दगी की डोर टूटी बम धमाका जोर से।
आदमी अब आदमी ना वासना क्या पीर है।।2
न्याय भी अब राग गाती या गरीबी-ताज हो।
जन्म का अधिकार कहती आत्मा क्या पीर है।।3
जेठ सूरज की नवाजिश वृक्ष जलकर मर रहे।
आश का पंछी…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2013 at 7:46pm — 16 Comments
जिंदगी
दर्द है या गम,
कि है नीरस सावन,
या कागज कोरा..
जाती हुयी शाम को ..
आती हुयी रात को ..
खिलखिलाती वो हंसी को,
पंक्षियों के कोलाहल को...
उसको है…
Added by Amod Kumar Srivastava on May 27, 2013 at 4:30pm — 7 Comments
नए रंग खिले नए फूल खिले ,
जीवन में जब से तुम आये |
आँखों से घटाएं बरस रहीं ,
ये प्रेम के सागर लहराए |
कभी पत्थर जैसे जीते थे |
बेहोशी में दिन बीते थे |
जीवन को बोझ सा ढोते थे |
तनहाई में अक्सर रोते थे |
मायूस मेरा दिल नाच उठा ,
जब देख हमे तुम मुस्काये |
सूना इस दिल का आँगन था |
कहीं भटका भटका सा मन था |
औरों को अपना कहते थे |
खुद से ही खफा हम रहते थे…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on May 27, 2013 at 3:00pm — 9 Comments
जो गीत ह्रदय से निकला हो , कागज़ पे लिखो बेमानी है ।
वो गीत ह्रदय पर लिखना, ही जीवन की प्रेम कहानी है |
जब दिल में प्रेम उमड़ता है, आँखों से आंसू बहते हैं ,
मोती हैं समझने वालों को, नासमझो को तो पानी है ।
हर प्रेमी अपने प्रियतम को, हर हाल में पान चाह रहा ,
नासमझ भला ये क्या जाने, प्रेम तो तो एक कुर्बानी है ।
जब प्रेम दिलों में फूटे तो, वो सबके लिए बराबर हो ,
पर प्रेम में भेद भी होता है, इस बात पे ही है…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on May 27, 2013 at 2:35pm — 19 Comments
सपने की झलक
स्वर्णिम कल्पनाओं में पले, सलोने-से, परितुष्ट सपने मेरे,
लगता है कई संख्यातीत संतप्त युगों पर्यन्त मैंने तुमको
आज जीवन-गति की लय पर यूँ ध्वनित देखा, गाते देखा।
वर्तमान के उजले संगृहीत प्रकाश में पुन: प्रदीप्त थे तुम,
समय की धारा पर मैंने तुमको लहरों-सा लहलहाते देखा।
जाने कितने अवशेष हैं अब सुख-निद्रा के यह प्रसन्न-पल,
गिने-चुने पलों की झोली भर कर रंजित मन में संप्रयुक्त
ऐसे ही उल्लास में अपने तू…
ContinueAdded by vijay nikore on May 27, 2013 at 1:00pm — 17 Comments
चीन ने भारतीय सीमा के अन्दर घुसकर ५ किलोमीटर लम्बी सड़क बनाई....तब कवि को लेखनी उठानी पड़ती है.......जागरण के लिए.....
1
भारती महान किन्तु अन्धकार का वितान, है अमा समान ज्ञान का नहीं प्रसार है
द्रोह वृद्धि की कमान, भ्रष्टनीति की मचान, क्यों सजी हुई कि स्वाभिमान तार तार है
मानवीयता न ध्यान, पाप पुण्य व्यर्थ मान, दानवी मनुष्य का मनुष्य पे प्रहार है
धर्म का रहा न मान, रुग्ण आँख नाक कान, शत्रु का लखो विवेक नाश हेतु वार है
2
क्यों नपुन्सकी प्रवृत्ति का…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 27, 2013 at 10:38am — 16 Comments
जब देखता हूँ इस युग के भारतवर्ष के मंत्रियों को
खौल उठता है दिल जब देखता हूँ भ्रष्टाचारियों को
हर सड़क पर खुदे हैं गड्ढे
हर गली में कचरों की भरमार
हर रोज़ अख़बारों में हत्या का समाचार
राजधानी होकर भी हर रोज़ होता बलात्कार
सदाचारियों से सरकार का नहीं कोई सारोकार
गरीबी बढती दिन पर दिन
सरकार करती रोज़ भ्रष्टाचार
सदाचारी मंत्रियों की बढती दरकार
दुष्कर्मियों पर परोपकार
सद्कर्मियों का तिरस्कार
मंत्रियों के पास धन की भरमार
आम नागरिकों को…
Added by Rohit Dubey "योद्धा " on May 27, 2013 at 10:00am — 5 Comments
Added by Vindu Babu on May 27, 2013 at 8:10am — 14 Comments
अद्भुत कला है
बिना कुछ किये
दूजे के कामों को
खुद से किया बताकर
बटोरना वाहवाही...
जो लोग
महरूम हैं इस कला से
वो सिर्फ खटते रहते हैं
किसी बैल की तरह
किसी गधे की तरह
ऐसा मैं नही कहता
ये तो उनका कथन है
जो सिर्फ बजाकर गाल
दूसरों के कियेकामों को
अपना…
ContinueAdded by anwar suhail on May 26, 2013 at 7:49pm — 5 Comments
आओ प्रिये ! आओं
फिर रात ढली
फिर चाँद पुकारे
ज्यों रोशनी को
चिराग तरसे
त्यों तुम्हारी याद में
नैन बरसे।।
आओ प्रिये ! आओ
दिल की हर धड़कन
तुम्हें पुकारे ।।
तुम्हारी छुअन से मिलती
नई चेतना मुझको ।
नेह में डूबी हुई
नई प्रेरणा मुझको ।
वही चिर-परिचित सम्बल,
वही तुम्हारा अहसास,…
Added by TARUN KUMAR SONI "TANVEER" on May 26, 2013 at 4:30pm — 8 Comments
आकंठ डूबे हुये हो क्यों,
अज्ञान तिमिर गहराता है।
ये तेरा ये मेरा क्यों ,
दिन ढलता जाता है।
क्यों सोई अलसाई अंखियाँ,
न प्रकाश पुंज दिखाता है ।
जीवन मरण का फंदा ,
आ गलमाल बन लहराता है।
तब क्यों रोते हो,
जब सब छिनता जाता है।
खोलो ज्ञान चक्षु औ,
हटा दो तिमिर घनेरा।
फैले पुंज प्रकाश का ,
होवे दर्शन नयनाभिराम।
(अप्रकाशित एवं मौलिक)
Added by annapurna bajpai on May 26, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
नाथ तुम अनुपम जाल बिछायो,
जगत को यहि मे भरमायो।
गरभवास मे करी प्रतिज्ञा,
यहाँ पर करि बिसरायो।
मातु पिता की गोदी खेलि के,
बाला पनहि बितायो ।
ज्वान भयो नारी घर आई,
तामे मन ललचायो।
सुंदर रूप देखि के भूल्यो,
जगत्पिता बिसरायो।
प्रौढ़ भए पर सुत औ नारी,
लई अंग लपटायो ।
आशा प्रबल भई मन भीतर,
अनगित पाप करायो।
पुण्य कार्य नहीं एकहु कीन्हे,
चारो पनहि बितायो…
ContinueAdded by annapurna bajpai on May 26, 2013 at 12:00pm — 7 Comments
ग्रीष्म शुष्क लागत बदन, जागत तन में पीर.
मनुज, पशु, खगवृन्द सभी, खोजत शीतल नीर.
अरुण अनल अति उग्र हैं, तपस लगत चहुओर.
श्वेद बूँद भींगे बदन, अगन लगे अति घोर.
पल-पल बिजली जात हैं, बिजली घर में शोर.
दूरभाष की घंटिका, बजन लगे घनघोर.
कोकिल कूके आम्र तरु, शीतल पवन न शोर.
वृन्द खगन के देखि के, नाचत मन में मोर.
वरुण,इंद्र, विनती सुनौ, बरस घटा घनघोर.
उमरि घुमरि मेघन परखी, नाचत वन में मोर.
मेघ घिरे नभ…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on May 26, 2013 at 5:56am — 8 Comments
Added by अमित वागर्थ on May 25, 2013 at 6:30pm — 8 Comments
ग़ज़ल -
नहीं युधिष्ठिर एक यहाँ पर ।
यक्ष छिपे हर तरफ बहत्तर ।
क्यों बैठा सीढी पर थककर ,
चल कबीर चौरा के मठ पर ।
साखी शबद सवैया गा तू ,
लोभ छोड़ अब चल दे मगहर ।
रिश्ते सारे स्वार्थ के धागे ,
झूठे हैं नातों के लश्कर ।
तुम गुडगावां के गुण गाओ ,
मेरे मन को भाता बस्तर ।
सेवक कोई रहा नहीं अब ,
सबके भीतर बैठा अफसर ।
ज्ञान की पगड़ी सर पर भारी ,
मगर ज़ुबाने जैसे नश्तर…
Added by Abhinav Arun on May 25, 2013 at 3:48pm — 14 Comments
ग़ज़ल :-
एक पर्वत और दस दस खाइयां |
हैं सतह पर सैकड़ों सच्चाइयां ।
हादसे द्योतक हैं बढ़ते ह्रास के ,
सभ्यता पर जम गयी हैं काइयाँ ।
भाषणों में नेक नीयत के निबन्ध ,
आचरण में आड़ी तिरछी पाइयाँ ।
मंदिरों के द्वार पर भिक्षुक कई ,
सच के चेहरे की उजागर झाइयाँ ।
आते ही खिचड़ी के याद आये बहुत ,
माँ तेरे हाथों के लड्डू लाइयाँ …
Added by Abhinav Arun on May 25, 2013 at 3:30pm — 22 Comments
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