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ग़ज़ल

वह शौक से मेरी जान लेगा,
हर कदम पे मेरा इम्तेहान लेगा,


पिघलेगा एक दिन मोम की तरह,
वह संगदिल मुझे जब पहचान लेगा,

गिर ही जायेँगी दीवारेँ नफरतोँ की,
मोहब्बत से काम जब इंसान लेगा,

मिलेगी 'आबिद' यहां मंजिल उसी को,
हौसलोँ से अपने जो भी उड़ान लेगा!

(मौलिक व अप्रकाशित)

_______आबिद

Added by Abid ali mansoori on June 3, 2013 at 1:30pm — 11 Comments

(नई कविता) अतुकान्त

(नई कविता) अतुकान्त

================

तपतॆ हुयॆ,

रॆत कॆ भूगॊल मॆं,

पढ़ रही हूं

तुम्हारी यादॊं का,

इतिहास,

और,,

गढ़ रही हूँ,

उम्मीदॊं कॆ,

विज्ञान की,

नई प्रयॊगशाला,

समाज-शास्त्र कॆ,

दु:सह नियम,

जकड़ॆ हुयॆ हैं,

मर्यादाऒं की बॆड़ियाँ,

फिर भी,,,,

विश्वास का गणित,

कह रहा है,

एक दिन,…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on June 3, 2013 at 9:30am — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी – 3 : अंटार्कटिका.. उफ़ ! वह रात

उफ़ ! वह रात... आँखों देखी – 3

भूमिका : मैं इससे पहले आपको बता चुका हूँ कि भारत के अंटार्कटिका अभियान की सूचना कब और क्यों हुई. अंटार्कटिका का सूक्ष्म परिचय भी मैंने आपको दिया है लेकिन यह एक ऐसा विशाल विषय है कि इस पर किसी भी आलोचना या विचार विमर्श का अंत मुझे नहीं दिखता.

आप सब जानते हैं कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप है जिसको घेरकर दक्षिण महासागर (Southern Ocean ) का रहस्यमय साम्राज्य है. यह महाद्वीप पृथ्वी के दक्षिण छोर पर होने के कारण यहाँ दिन-रात का चक्र कुछ दूसरे ही नियम से चलता…

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Added by sharadindu mukerji on June 3, 2013 at 1:30am — 6 Comments

ग़ज़ल/ चुभती रही

आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।

2122, 2122, 2122, 212 

चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही

याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही

 

सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते…

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Added by बृजेश नीरज on June 2, 2013 at 7:30pm — 54 Comments

गंजे का दर्द (घनाक्षरी )

बाल सभी झड़ गये,बुढ्ढा अब  दिखता हूँ !

हमउम्र औरतें भी,चाचा कह देती हैं !!

पत्नी भी मारे है ताना,भाग्य मेरे फूट गये !

कभी कभी वो भी मुझे,बुढ्ढा कह देती है !!



अपने ही जब कभी,अपना मज़ाक ले लें  !

किससे कहूँ कितनी,पीड़ा मुझे होती है…

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Added by ram shiromani pathak on June 2, 2013 at 1:30pm — 25 Comments

हे पथिक

एक अँधेरी गली

सुनसान

वीरान

पथिक व्यथित

हलाकान

 

न कोई

हलचल

न कोई

आवाज

न साज

पथिक व्यथित

उदास

 

गहन अँधेरा

कालिमा का बसेरा

ह्रदय के स्पंदन

स्वर में बदल रहे हैं

चीत्कार

स्वयं की

बस स्वयं की

 

वर्षों सुनसान

गली में

चलते चलते

स्वयं से

परिचर्चा करते करते

कभी थाम लेता था

हाथ

स्वयं का दिलासा…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 2, 2013 at 12:00pm — 21 Comments

विश्व में आका हमारे//गजल//

 २१२२/२१२२/२१२२/२१२

 

वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।

विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।

 

लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े  हैं सीढ़ियाँ,

शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।

 

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,

दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।

 

बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,

दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।

 

खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,   

अब हलक की…

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Added by कल्पना रामानी on June 2, 2013 at 12:00pm — 27 Comments

शहर की तंग गलियों से

शहर की  तंग  गलियों से निकलना चाहती हूँ,

मैं अपने गाँव के अंचल में  जाना चाहती  हूँ .



वो मौसम आम के ,डालियों से झूलना मेरा,

उन्हीं शाखों पे फिर झूम जाना चाहती हूँ .



बहुत ही याद आती हैं मेरे गांव की सखियाँ,

उन्हीं सखियों के संग खिलखिलाना चाहती हूँ .



बड़ी रफ़्तार वाली है शहर की ज़िन्दगी लेकिन,

मैं फुर्सत के वे लम्हे फिर चुराना चाहती हूँ .



चढ़ती ही जाऊं आस्मां की सीढ़ियाँ लेकिन,

जमीं पे ही अपना घर बसाना चाहती हूँ .…



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Added by sanju shabdita on June 2, 2013 at 11:30am — 13 Comments

माँ चुप रही (लघु कथा )

मेरे वास्तविक भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार में माता पिता और पांच भाई हैं . छोटे तीन भाई जो तिडुआ हैं, मुझसे ५ साल छोटे .

रौशन और जलज बी. टेक कर रहे है और पवन बी. ए. अंतिम वर्ष में है ..

होली के बहाने सब इकट्ठा हैं.

माँ (पवन से) – कल तुम फिर खा पी कर आये थे . खाना ख़राब हुआ . पहले बता नहीं पाते हो की ढूस के आओगे ?

पवन कुछ नहीं बोला ..

माँ (लगभग मुझे सुनाते हुए )- कल गेट नहीं खोल पा रहा था . पता नहीं ये लड़के क्या करेंगे ? रोज पार्टी , रोज दारू .

पवन कुछ…

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Added by DRx Ravi Verma on June 2, 2013 at 11:00am — 6 Comments

ग़ज़ल : जीतने तक उड़ान जिंदा रख

बहर : २१२२ १२१२ २२

----------------------------------

बाजुओं की थकान जिंदा रख

जीतने तक उड़ान जिंदा रख

 

आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं

है जो खुद पे गुमान जिंदा रख

 

तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं

वो पुराना मकान जिंदा रख

 

बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ

तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख

 

नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ

एक ऐसी दुकान जिंदा रख

 

जान तुझमें ये डाल देंगे कभी

नाक, आँखें व कान…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 1, 2013 at 11:32pm — 29 Comments

आज भी - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२



साथ जिसकी हर निशानी आज भी

हूँ न  उस  को  राजधानी  आज भी।।



काम में खटता है बचपन देश का

भूख से मरती  जवानी  आज भी।।



प्यासा पन्छी ढूँढता है हर तरफ

सूखी नदिया में रवानी आज भी।।



फूल सूखे  पुस्तकों  में  कह  रहे

नेह की बिसरी कहानी आज भी।।



जन के सेवक ठाठ करते देश में

बनके राजा और रानी आज भी।।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2013 at 10:00pm — No Comments

माहिया- कजरा ये मुहब्बत का

माहिया पंजाब से उपजा है। जो कि शादी-ब्याह में गाया जाता रहा है।

माहिया का छन्द है मात्रायें- तीन चरणों में पहले में 2211222 दूसरे में 211222 तीसरे में 2211222

************************************

माहिया-1.

कजरा ये मुहब्बत का,

तुमने लगाया है,

आँखों में कयामत का।

2.

कजरा तो निशानी है,

अपनी मुहब्बत की,

चर्चा भी सुहानी है।

3.

आँखों से बता देना,

तुमने कंहाँ सीखा,

ये तीर चला…

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Added by सूबे सिंह सुजान on June 1, 2013 at 10:00pm — 9 Comments

"दिल में उठता पीर देखो"

दिल में उठता पीर देखो
द्रोपदी का चीर देखो

मोल जिसका खो गया है
आँख का वो नीर देखो

दिल में जो सीधे लगे बस
शब्द के वो तीर देखो

फिर हुआ बलवा कहीं पे
खो गया जो वीर देखो

थी कभी नदियाँ यहाँ पर
बह गया जो छीर देखो

सांवरे को भूल कर के
आज राँझा हीर देखो

अनुराग सिंह "ऋषी"

मौलिक व अप्रकाशित रचना

Added by Anurag Singh "rishi" on June 1, 2013 at 6:00pm — 6 Comments

केंचुल

आशंकित सशंकित इंसान

लगा है निज आवरण बचाने में

जो बनाता रहा जीवन पर्यंत

कभी चाहे , कभी अनचाहे

जुटा है अपनी केंचुल बचाने में…

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Added by DRx Ravi Verma on June 1, 2013 at 11:55am — 13 Comments

आये थे लेकर के हम भी आँख मे नक्शे किसी के ॥

क्या कहा सुनसान हवा कह रही किस्से किसी के 

ये भी लगता पड़ गयी मेरे जैसे हिस्से किसी के …

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Added by Yogendra Singh on May 31, 2013 at 11:30pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रीती है मन की गागर

साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी  रीती है मन की गागर 

नदिया  की तृष्णा  हरे कैसे लवणित  बूँद -बूँद सागर 

 अवगुंठित भाव होकर अधीर 

गीतों में निरी  भरते हैं  पीर

विरह कंटक चुभ हिय  घाव करें…

Continue

Added by rajesh kumari on May 31, 2013 at 11:00pm — 22 Comments

ग़ज़ल- जिन्दगी तुमसे लड नहीं पाया।।।

जिन्दगी तुमसे लड नहीं पाया ।

हमने आख़िर में ख़ुद को समझाया।।

कुछ नहीं आदमी के हाथों में,

मरते-मरते ये सबने समझाया।।

जिन्दगी भर गरूर रहता है,

मौत के वक़्त ये नहीं पाया।।

जिन्दगी हर कसौटी पर जी,ली,

इसलिये राम,राम कहलाया।।

आदमी लालची ही होता है,

भूल जाता है राम की माया।।

मैं बहकता रहा हूँ उतना ही,

आपने मुझको जितना बहकाया।।

रात से हमको मिलती शीतलता,

रात ने शांत रहना…

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Added by सूबे सिंह सुजान on May 31, 2013 at 11:00pm — 19 Comments

आशा की नवकिरण

आशा की इक नवकिरण

भर देती है संचार तन में

पंख पखेरू बन के ये मन

भर लेता है ये ऊँची उड़ान

जा पहुंचा है दूर गगन पर

पीछे छोड़ के चाँद सितारे

छू रहा है सातवाँ आसमां

गीत गुनगुनाये धुन मधुर

रच  रहा है हर पल नवीन 

सृजन निरंतर रहा है कर

झंकृत करता तार मन के

बन  जाता मानव  महान 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Rekha Joshi on May 31, 2013 at 8:41pm — 5 Comments

दोहा-रोला गीत ==ग्रीष्म==

========ग्रीष्म=========

सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार

धधके धूं धूं कर धरा, सूखी सरिता धार  

 

मचले मनु मन मार, मगर मिलता क्या पानी

ठूंठ ठूंठ हर ठौर, ग्रीष्म की गज़ब कहानी

उड़ा उड़ा के धूल, लपट लू आंधी चलती

बंजर होते खेत, आह आँखें है भरती

 

रिक्त हुए अब कूप भी, ताल गए सब हार

सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार

 

पेड़ पौध परजीव , पथिक पक्षी पशु प्यासे

मृग मरीचिका देख, मचल पड़ते मनु…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on May 31, 2013 at 7:30pm — 19 Comments

गरमी बाकी है |

झमाझम गिरे बारिश  ,  राहत मिला मिली तपन से |
लू का घेरा  बंद हुआ   ,  मलय शीतल पवन से |
आँखों में  पड़े ना धूल , कीचड से पाँव…
Continue

Added by Shyam Narain Verma on May 31, 2013 at 4:00pm — 3 Comments

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