बर्तन की जाली में एक लोटा और कुछ चम्मच थे | सारे चम्मच लोटा को दुनिया का सबसे अच्छा बर्तन मानते थे, उसकी जय-जयकार करते थे, लोटा हमेशा उनको चमक - दमक की दुनिया से बचने नसीहतें देता था, हमेशा उनको बताता था कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है, चम्मचों ! परदे के पीछे का खेल देखने की कोशिश किया करो, सच्चाई वहाँ छुपी होती है, बहुत लोग तुमको ऐसी नकली दुनिया में घसीटने की कोशिश करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहो,,, और भी जाने क्या क्या .....…
Added by वीनस केसरी on July 17, 2013 at 2:04am — 19 Comments
ग़मों के घाव अभी भरे नही i
दवा में लगता मिला ज़हर है i i
बेनाम बस्ती में लोग रहते है i
उन्ही बस्तियों से बना शहर है i i
आदमी -आदमी को नहीं जाना i
ज़िन्दगी सात दिनों का सफ़र है i i
नदियाँ भी डरती है भरने से i
उनसे लगी बड़ी सूखी नहर है i i
खामोश आज सभी हवायें है i
वक़्त का उनपर भी असर है i i
मै भूला अपना रास्ता आज i
पता नहीं जाना मुझे किधर है i i
मौलिक /अप्रकाशित
दिलीप कुमार तिवारी
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 16, 2013 at 10:37pm — 7 Comments
दर्पण पे जमी हो धूल तो श्रृंगार कैसे हो,
भूखा हो जब आदमी तो प्यार कैसे हो .
पढ़ लिख कर सब बन गए दफ्तर के बाबू ,
खेतों में अनाज की अब पैदावार कैसे हो .
मंहगाई को जीद है अब छूने को आसमां,
गरीबों के घर तीज और त्यौहार कैसे हो .
मतलब नहीं है देश के आदमी को देश से,
राम जाने इस देश का बेड़ा पार कैसे हो .
ले चल मुझे अब दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
मुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
.…
ContinueAdded by Neeraj Neer on July 16, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
इतना ओवर री एक्ट क्यूँ कर रही हो ऋतिका! मुंह कब तक फुलाए रखोगी ऐसा क्या कर दिया मैंने? तुम ही तो चाहती थी कि मैं तुम्हारी तरह समाज सेवा करूँ इसी लिए तो उस एक्सीडेंट के केस को अपनी कार में उठा के लाया पूरी कार ब्लड से गन्दी भी करवाई ,अपने हॉस्पिटल में एडमिट भी किया और ट्रीट मेंट भी कर रहा हूँ और क्या चाहिए तुमको ? और अच्छी खासी रकम भी तो ली है ये क्यूँ नहीं कहते!!! ,ऋतिका का दबा गुस्सा मानो अचानक ज्वाला मुखी बनकर फूट निकला ,केवल दो…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 16, 2013 at 9:42pm — 15 Comments
!!! दुर्मिल सवैया !!! ......8 सगण
बदरा बरसे हरषे धरती, नदिया-सर-खेत भरे जल से।
वन-बाग झकोर हवा पहिरे, फल जामुन-आम पके जल से।।
हर ओर घटा घन घोर घिरी, मन-मोर-चकोर कहे जल से।
विरही मन नारि छली मचली, नहि प्यास बुझे बरखा जल से।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 16, 2013 at 9:27pm — 10 Comments
तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां!
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कोई परिंदा भी हो
कि खलिहानों में फसलें उगाई जाएँ,
कोई पखेरू भी हो
कि दीवारों पे पानी रखा जाए,
कोई भूला भटका राही भी हो
कि कोई राह निकाली जाए
कुछ शिकस्ता भी हो कि जो जोड़ा जाए,
कोई सरगिराँ भी हो कि जिसे मनाया जाए
कोई याद भी आता हो कि जिसे भूला जाए...
वीरान दयारों में वरना.....
क्या शहनाइयां क्या सिसकियाँ?…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 7:36pm — 2 Comments
जब भी देखता था रात को जमी से चाँद को
यही सोंचता था,कि
अगर चाँद इतनी दूर से इतना खूबसूरत, इतना चमकदार नजर आता है
तो पास जाकर क्या नजारा होगा ?
यही सोंचकर एक दिन चाँद पर जा पहुंचा
पर वहां ना वो खूबसूरती नजर आई ना वो चमक
कुछ नजर आया तो बस चाँद के गाल में गड्ढे
और चाँद जला जला सा.......
तब समझ आया कि ,
मै चाँद कि जिस चमक को चाँद की खूबसूरती समझता था
वो उसकी चमक नहीं थी
कमबख्त जलाता था खुद को रातों …
Added by Kavi Pawan "Baddan" on July 16, 2013 at 5:00pm — 1 Comment
गाँव की ज़िंदगी में एक सुकून सा क्या है? खाली, काली, सरपट दौड़ती सडकों की तनहाई और दोनों बगल खड़े मुख्तलिफ (विभिन्न) दरख्तों की खामोशी भी क्यूँ अच्छी लगती है? दूर खेतों और ढलानों में चर रहीं बकरियों और गायों को देख के ऐसा क्यूँ लगता है कि ये दुनिया की सबसे बेहतरीन आर्ट गैलरी है?....जीती, जागती, पल पल नक्शोरंग बदलती.
मंडला मध्यप्रदेश सूबे का मानों दिल हो- हरियाली और ताज़गी से भरा, कहीं पहाड़ियों के आँचल से ढका तो कहीं जंगलों के बेल बूटों से सज़ा. गाँव गाँव आदिम प्रजाति के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:20pm — 6 Comments
मेरी मां मुझे रोज़ १० पैसे देती थी, स्कूल जाने के पहले. वही बहुत था मेरे लिए टिफ़िन में पाचक खरीद के खाने के लिए- एक पैसे के न जाने कितने हुआ करते थे, सफ़ेद अथवा पीले-सुनहरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक की पन्नी में, बच्चों की उँगलियों से भी बहुत पतले और सतर, ...लम्बे लिपटे हुए.
कुछ न सही तो कभी लेमनचूस की अंडाकार चपटी गोलियां ही सही.... संतरे के रस अथवा कालेनमक के स्वाद वाली नारंगी-बैंगनी गोलियां जिन्हें खा कर हमारी जीभ का रंग भी बदल जाता था और हम जीभ निकाल-निकाल के अपनी बहन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:09pm — 2 Comments
जुलाई की एक सर्द और भीगी-भीगी सी शाम आस्ताने (चौखट) पे आके खड़ी थी अन्दर आने को, दिन के उजाले कब के जा चुके थे दरीचों के रास्ते, बस बादलों के पीछे जैसे उनके सायों ने कुछ देर के लिए शाम के वुजूद को नुमूदार (ज़ाहिर) कर रखने का एहसान किया हो. कूचों में बहती पानी की धारें नालियों में जाके गिर रही थीं, तो नालियों में बहते तेज़ चश्मे (झरने, पानी के रेले) की घरघराहट आने वाली सन्नाटगी का खमोशियों से ऐलान कर रही थी. कभी-कभार किसी शख्स के गुजरने की आवाज़ उसके भारी जूतों की चरमराहट से कानों से आके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:05pm — No Comments
देश में कैसा बदलाव अब हो गया
नंगपन है रईसी ग़ज़ब हो गया
जबसे इंग्लिश मदरसे खुले, बाप और
माँ को आँखें दिखाना अदब हो गया
हाथ जोड़े थे जिसने कभी वोट को
आज कुर्सी पे बैठा तो रब हो गया
अब गधों की फ़तह, मात घोड़ों की हो
दौर दस्तूर कैसा अजब हो गया
हर्फ के कुछ उजाले लुटा प्यार से
"दीप" खुर्शीद सा जाने कब हो गया
संदीप पटेल "दीप"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 16, 2013 at 4:01pm — 8 Comments
मिली हैं करवटें औ याद सहर से पहले
पिए हैं इश्क़ के प्याले जो जहर से पहले
जो दिल के खंडहर में अब बहें खारे झरने
यहाँ पे इश्क की बस्ती थी कहर से पहले
ग़ज़ब हैं लोग खुश हैं देख यहाँ का पानी
नदी बहती थी जहाँ एक नहर से पहले
कहाँ उलझा हुआ है गाफ़ अलिफ में अब तक
रदीफ़ो काफिया संभाल बहर से पहले
नहीं आसां है उजालों का सफ़र भी इतना
जले है दीप सारी रात सहर से पहले
संदीप पटेल "दीप"…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 16, 2013 at 2:30pm — 6 Comments
मेरे जीवित होने का अर्थ -
-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ !
-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !
ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !
मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !
मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !
संभव है-
कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !
मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !
.
.
.
……………………................………… अरुन श्री…
ContinueAdded by Arun Sri on July 16, 2013 at 1:38pm — 17 Comments
Added by Ravi Prakash on July 16, 2013 at 6:00am — 14 Comments
सूरज की लालिमा और
उसे इस कदर थका हुआ देख ...
पंक्षियों को लौटते देख
दरख्तों के साये लंबे होते देख
ये आभास हुआ कि
सूरज डूबने वाला है
बच्चों का कलरव
गाड़ियों का सड़क पर
अचानक भागते हुये देख
यह एहसास हुआ
कि....
ये दिन डूबने वाला है
फिर आंखे मूंदकर
मैंने डूबते सूरज से कुछ मांगा
इस बात से बेपरवाह
कि डूबती हुयी चीज
किसी को कुछ नहीं दे सकती
जो खुद अँधेरों मे डूब रहा…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 15, 2013 at 10:30pm — 6 Comments
कभी यूं ही बैठकर सोचते हुए
कल्पना की असीम गहराइयों में
डूबते उतराते
भाव ध्वनियां बनकर
खुद रूप लेने लगते हैं
शब्द का।
शब्द बोलते हैं
एक भाषा
और फिर
गडमड हो जाते हैं
एक दूसरे में।
रह जाती है
एक ध्वनि
एक स्वर
वह जो
परम भाव है
परम ध्वनि
परम अक्षर!
जहां से उपजे
वहीं समा गए
परम शून्य में।
निर्विकार शान्ति!
भाव…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 15, 2013 at 10:00pm — 31 Comments
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 15, 2013 at 9:00pm — 26 Comments
वीणाधारी विद्यावाली , मातु शारदे तुम्हे नमन i
शव्द अर्थ के पुष्पों का ,व्याकरण बना तुमको अर्पण i i
संज्ञाए सेवाये करती ,सर्वनाम तेरे अनुचर i
क्रिया विशेषण की तारों से ,निकले वीणा के स्वर i i
नवरस के घुगरू प्यारे अलंकार की है झांझर i
काव्य गद्य श्रगारित तुमसे ,गीतवना महिमा गाकर i i
अनुपम छटा सवाँरे ,भाषाए है चरणो पर i
आलोडित मन मंदिर मेरा नेह सुधा तेरी पाकर i i
मुझको तेरा वरदान मिले ,चरणों में तेरे स्थान मिले i
शीख रहा माँ कविता करना ,अंतर मन…
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 15, 2013 at 8:22pm — 5 Comments
अलादीन का चिराग हूँ मैं
एक हसीन ख्वाब हूँ मैं
मचलती सुबह हूँ मैं
खिलखिलाती शाम हूँ मैं
हँसी का अंदाज हूँ मैं
प्रीत हूँ प्यार हूँ मैं
पहचान मेरी मुझसे है
दो कुलों की शान हूँ मैं
दायरों मे बंधी हूँ मैं
शर्म से सजी हूँ मैं
छाया हूँ बाबुल के आंगन की
पिया की परछाई हूँ मैं
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Pragya Srivastava on July 15, 2013 at 8:00pm — 11 Comments
प्रियतम कैसा यह विरह, तन्हाँ मैं निश-प्रात ,
मधुरिम-मधुरिम वेदना, पिया प्रेम सौगात //१//
अथक चला अब सिलसिला, मन ही मन संवाद ,
कसमें वादे नित गुनूँ, उर झूमे आह्लाद //२//
जुल्फों के छल्ले बना, खेले मन बेचैन,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 8:00pm — 36 Comments
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