121 22 121 22
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जहाँ जरूरी हुआ अड़े हैं,
इसीलिए हम यहाँ खड़े हैं
जिन्हें जरूरत जहान भर की
वहीँ मशाइल बड़े-बड़े हैं
समय उन्हीं के लिए बना है
जिन्हें कि हर पल लगे बड़े हैं
मिली जरा सी उन्हें जो शुहरत,
लगे जताने बहुत बड़े है
जिन्हें नाकारा है तेरी दुनिया
हम उनके हक़ में सदा लड़े हैं
किसी की कमियों से क्या है लेना
अगर है खूबी, वहीँ अड़े…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 15, 2013 at 6:30pm — 7 Comments
आज फिर किसी ने पारस को चाकू मार दिया था, उसकी किस्मत अच्छी थी कि घाव बेहद मामूली था. डाक्टर बाबू देखते ही पारस को पहचान गये, क्योंकि कोई आठ दस महीने पहले की ही तो बात है जब पारस के घर मे डकैती हुई थी और बदमाशों ने पारस के शरीर पर चाकू से अनगिनत वार किये थे, तब इलाज के लिए उसे इसी डाक्टर के पास लाया गया था, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के बावजूद भी इस बहादुर नौजवान के मुँह से उफ़ तक नहीं निकली थी, लेकिन इस बार अत्यधिक…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 15, 2013 at 5:30pm — 63 Comments
साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद
जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद
हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात
अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात
त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात
छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप
सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप
प्रिंटर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2013 at 2:34pm — 26 Comments
ग़ज़ल लिखने का एक प्रयास और किया है मैने, प्रकृति की सुंदरता का हमेशा से ही कायल रहा हूँ इसलिए मेरी रचना प्रकृति के आस पास ही रहती है.
वज्न -1222 1222 1222
हजज मुसद्दस सालिम
सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री
वो लहराती हुई बादे सबा गुज़री
दिखी थी पैरहन वो धूप की लेकर
कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री
फ़िज़ा सरशार भीगी…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 15, 2013 at 1:00pm — 7 Comments
अबला नारी को कहें, उनको मूर्ख जान |
नारी से है जग बढ़ा ,नारी नर की खान ||
नारी नर की खान , प्यार बलिदान दिया है |
नारी नहिं असहाय , मर्म ने विवश किया है
पाकर अनुपम स्नेह ,नारी बनेगी सबला |
नर जो ना दे घाव ,तो क्यों रहे वह अबला||
..........................
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Sarita Bhatia on July 15, 2013 at 10:30am — 8 Comments
वफ़ा कि राह में सब कुछ लुटा दिया अपना॥
मगर न बदला मुहब्बत का फलसफ़ा अपना॥
बड़े खुलूस से तुझको है मशवरा अपना।
हर एक शख़्स को देना नहीं पता अपना॥
दिलों के बीच मुहब्बत के गुल खिलाता गया,
जहाँ- जहाँ से भी गुजरा है काफ़िला अपना॥
हम एक दूजे से चुपचाप हो गए है अलग,
ज़रा सी बात पे टूटा है सिलसिला अपना॥
कुछ इस अदा से दिखा के वो चाँद सा चेहरा,
बस एक पल में दिवाना बना गया अपना॥
ये चंद साँसे भी…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 15, 2013 at 1:00am — 8 Comments
जरूरत है प्रयास की
कोशिश की
कंक्रीट का जंगल
और ठसाठस सड़के हैं
नीला अंबर धूल धूसरित है
उहापहो की स्थिति है
इतने विशाल शहर में
हम और तुम निहायत अकेले हैं
जीवन का उद्देश्य
केवल जीवन यापन है
नित्य क्रम की नियति को
समझ लिया खुशी का समागम
खोखली हंसी
छिछला प्यार
दिखावे के लिए मिलना जुलना
केवल सतही संतुष्टि है
झाँक कर देखा अंदर
तो अजीब तरह का खोखलापन है
गाहे…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 14, 2013 at 10:30pm — 6 Comments
वो मानते हैं कि हो सकती उनसे कोई खता नहीं
खुद तक तो खुदा के सिवा कोई और पहुंचता नहीं|
वो जुस्तजू करते हैं हमारे क़दमों के निशाँ की भी
उनके हाथों में छुपे खंजर को तो कोई खोजता नहीं|
वो जिन्होंने तय की हैं बुलंदियां लाशों की सीढ़ी पे
कदमों में लगे खून से कब फिसल जाएँ पता नहीं|
वो हो जाते हैं नाराज़ हमारी ज़रा सी लडखडाहट से
जैसे उनके जहां में मदमस्त तो कोई गिरता नहीं|
वो हैं जैसे भी दूर उनसे सोच में भी नहीं…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 14, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
नकारात्मक ग्रोथ से, होवे बेडा गर्क ।
सकल घरेलू मस्तियाँ, इन्हें पड़े नहिं फर्क-
आम जिंदगी नर्क बनाए ।
पर परिवर्तन नहीं सुहाए ॥
रोटी थाली की छिने, चाहे रोजी जाय ।
छद्म धर्म निरपेक्षता, मौला-ना मन भाय -
फिर भी फिर सरकार बनाये ।
पर परिवर्तन नहीं सुहाए ॥
पाक बांग्लादेश से, दुश्मन की घुसपैठ ।
सीमा में घुस चाइना, रहा रोज ही ऐंठ -
अन्दर वह सीमा सरकाए ।
पर परिवर्तन नहीं सुहाए ॥
चला…
ContinueAdded by रविकर on July 14, 2013 at 8:00pm — 4 Comments
आनंद जीवन है , शब्द मात्र नहीं
संसार के बियाबान सुनसान अधेरी राहों में,
रोशनी की तरह इसकी तलाश है
हम तुम यह जग जबसे है आनंद आस -पास है
ये उजड़ी गलियों में भी था ,थकी हुई सडको में भी है , तुम्हारे पगडण्डी में भी है i
बस इसे पाने का विश्वाश खो गया है ,हमारा अपनापन इससे कितनी दूर हो गया है i
कही हम इसे बदनाम बस्तियों में ढूढ़ते है
कही हम अपने से बड़ी हस्तियों में ढूढ़ते है
अल्पकालीन किन्तु सर्वव्याप्त है
जितना मिला क्या…
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 14, 2013 at 7:30pm — 3 Comments
कजरे गजरे झाँझर झूमर , चूनर ने उकसाया था
हार गले के टूट गये सब , ऐसा प्यार जताया था
हरी चूड़ियाँ टूट गईं , क्यों सुबह-सुबह तुम रूठ गईं
कल शब तुमने ही तो मुझको , अपने पास बुलाया था
जितनी करवट उतनी सलवट, इस पर काहे का झगड़ा
रेशम की चादर को बोलो , किसने यहाँ बिछाया था
हाथों की मेंहदी ना बिगड़ी और महावर ज्यों की त्यों
होठों की लाली को तुमने , खुद ही कहाँ बचाया था
झूठ कहूँ तो कौवा काटे…
Added by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 7:30pm — 13 Comments
रचना पूर्व प्रकाशित होने के कारण, लेखिका से वार्ता के पश्चात हटा दी गई है ।
एडमिन
Added by shashi purwar on July 14, 2013 at 5:30pm — 14 Comments
जेल जाय अपराध में, करते वे पद त्याग,
जन प्रतिनिधि क़ानून में,इससे उल्टा राग |
संविधान में निहित है, मूलभूत अधिकार,
सबको समान हक़ मिले, भेद करे सरकार |
रुपया गिरता देखकर, डालर मुंह बिचकाय,
बढे कर्ज के बोझ से, चिंता घेरे जाय |
कर्ज विदेशी बढ़ रहा, इधर तेल के दाम,
काला धन स्विस बैंक में,भुगते जन अंजाम|
रकम जमा स्विस बैंक में, घरवाले अनजान,
भेद दिए बिन चल बसे, घर के सब हैरान|
(मौलिक…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 14, 2013 at 4:00pm — 12 Comments
माँ वो है-
जो जन कर जुड़ जाती है
चेतना के अंधकूपों में भी
अपने जने का करती है पीछा,
एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,
पालना ही जिसका
सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;
शायद इसीलिए हमारे
उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने
तेरे कगारों पर दण्डवत कर के
उर्मिल जल की
अँजुरी भर के
कोई संकल्प किया था
और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास
तुझे माँ कह कर।
वो शायद आदिम थे
इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे
और हम सभ्य…
Added by Ravi Prakash on July 13, 2013 at 5:30pm — 10 Comments
Added by vijay nikore on July 13, 2013 at 3:00pm — 36 Comments
कभी सपने सज़ाता है कभी आंसू बहाता है
खुदा दिल चीज़ कैसी है जो पल में टूट जाता है
ये उठते को गिराता है व गिरते को उठाता है
अरे ये वक्त ही तो है सदा हमको सिखाता है
मेरी ज़र्रा नवाज़ी को न कमज़ोरी समझना तुम
अदाकारी परखने का हुनर हमको भी आता है
जो ज़ेरेख्वाब ही मदमस्त हो अपने लिए जीता
ये आदमजात है भगवान को भी भूल जाता है
मै रोऊँ या हंसूं मंज़ूर पर उसको ही लेकर के
भला क्यों आज भी हम पर वो इतना हक जताता है…
Added by Anurag Singh "rishi" on July 13, 2013 at 11:00am — 21 Comments
जो चिरागों की लौ में पिघलता है
वो हसरतों को रौ में बदलता है .
तेरे वजूद पे भरोसा है जिसको
आस्माँ से गिर कर भी सँभलता है.
ख्व़ाब जो नींदों के पार रहता है
वो जागती आँख में मचलता है .
चाँद है ,तारे हैं, तन्हाइयाँ भी हैं
ये दिल किसे ढूँढने निकलता है.
हर कदम गुजरा इम्तहाँ से मेरा
हर मोड़ पर रास्ता बदलता है .
हासिल ए हयात अब भी बाकी है
सिर्फ याद से दिल नहीं बहलता है
.
-ललित…
ContinueAdded by dr lalit mohan pant on July 13, 2013 at 2:30am — 6 Comments
बहर : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारखानों पर
ये फन वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर
कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है
हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर
लड़ाकू जेट उड़ाये खूब हमने रातदिन लेकिन
कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर
सभी का हक है जंगल पे कहा खरगोश ने जबसे
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी बैठे मचानों पर
कहा सबने बनेगा एक दिन…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 12, 2013 at 11:46pm — 21 Comments
मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,
भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,
तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !
उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,
अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !
_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments
अन्तर्मन की लौ अति उज्ज्वल
निश-दिन प्रेम बढ़ाए, प्रकृति अमरता लाए।
गुलमोहर की चुनरी ओढ़ी
पटका अमलतास पीताम्बर
लचकारा लटकाए, झूम-झूम हरषाए।
धानी वाली साड़ी झिल-मिल
घूंघट में आभा छवि पाकर
गाल गुलाल उड़ाए, आंचल किरन सजाए।
सुन्दर सूरत प्यारी मूरत
माथे की बिन्दी चन्द्राकर
घुंघर केश मुख छाए, शबनम भाल थिराए।
अंधड़-लू से कांवरि दौड़े
सांय-सांय शहनाई संजर
डोली जिय धड़काए, मछली मन…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 12, 2013 at 10:00pm — 15 Comments
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