मणिपुर में बिताए दिन सपनों जैसे थे. एक रूमानी फ़साने की तरह जिसमें एक राजकुमार, एक राजकुमारी और पंख लगा कर उड़ने और उड़ाने को ढेर सारे ख्व़ाब थे. हक़ीकत जहां इक पहाड़ की तरह सीना तान कर खड़ी थी वहीं रूमानियत की रुपहली फंतासी नस-नस में नशा घोल रही थी. ज़िंदगी में हर चीज़ का इक मुअय्यन (तय) वक़्त होता है- मुहब्बत के दौर में अल्हड़ और अंजान बने बेफ़िक्र जीते रहे और फ़र्ज़ के दौर में दिल लगा के कई अपनों का दिल तोड़ दिया.
घुमावदार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
ज़िंदगी भी क्या मज़ाक़ है? माज़ी को अपने शानों (कांधों) से पीछे मुड़कर देखो, सब एक मज़ाक़ ही तो है. जवानी का जोशोखरोश, कमसिनी (कमउम्री) की नाज़ुकी, वफ़ा की दोशीज़गी (तरुणावस्था), लबेचश्म (आँखों के किनारे) हैरान मुहब्बत की मजबूरियां, पएविसाल (मिलन के लिए) माशूक का जज़्बाएइंतेशार (उलझन का भाव), किसी तनहा शाम के धुंधलके में लौटते कदमों की चीखती सी आहटें.....उससे मिलके घर लौटते सफ़र की कचोटती तनहाइयाँ, घर के गोशे गोशे में (कोने कोने में) दुबकी वीरानियाँ, दीवार पे लटकती तस्वीरों की तरह अपना लटका…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
मैं लिखा करता हूँ
भाव की ध्वनियों को;
उतारता हूँ
नए शब्दों में
नए रूपों में।
रस, छंद, अलंकार
तुक, अतुक
सब समाहित हो जाते हैं
अनायास।
ये ध्वनि के गुण हैं;
शब्द के श्रंगार।
इन्हें खोजने नहीं जाता।
मुझे तो खोज है
उस सत्य की
जिसके कारण
मैं सब कुछ होते हुए भी
कुछ नहीं
और कुछ न होते हुए भी
सब कुछ हो जाता हूँ।
शायद किसी दिन
किसी…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 3:00pm — 20 Comments
Added by Lata tejeswar on July 18, 2013 at 1:30pm — No Comments
वो बिलकुल साफ़ ओ सफ्फाफ़ थी, टाटा साल्ट की तरह फ्री फ्लोइंग, एक एक दाने की तरह उसकी शख्सियत के रेज़े (कण) धुले धुले और चमकते से. मगर साथ साथ हालात-ओ-सिफात (स्थितियां और स्वभाव) की बंदिशें (बंधन) भी आयद (लागू) थीं और कुदरत (प्रकृति) ने हमारी निस्बतों की हदें (मिलने जुलने की सीमाएं) और मुबाहमात की मिकदार (संबंधों की मात्रा) तय कर दी थी. हम मिल तो सकते थे, मगर घुल मिल नहीं सकते थे...एक दूसरे को चाह और समझ तो सकते थे मगर एक दूसरे में शामिल नहीं हो सकते थे...वरना तमाम रिश्तों के ज़ायके बिगड़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 1:00pm — 2 Comments
"दस हजार रूपये की व्यवस्था कर ले रमेश, मुझे मेरे बच्चो को स्कूल ड्रेस और किताबें दिलानी है"
किशन ने लापरवाही से अपने छोटे भाई रमेश को दवाब देते हुए बोला.
पिछले बड़े कर्जे से अभी अभी निपटा रमेश, अपने साले द्वारा भी की गयी रुपयों की मांग को लेकर परेशान होते हुये बोला "हाँ, ठीक है, मै मालिक से बात करता हूँ." अपने दोस्त लखन के साथ रमेश मालिक के पास पैसे मांगने गया.
मालिक युगल ने अचरज करते हुए पूछा " अरे! तुझे इतनी बड़ी रकम की जरुरत पड गयी? तू अभी तो कर्जे से निपटा…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 11:30am — 8 Comments
सावन आया झूम के,देखो लाया तीज
रंगबिरंगी ओढ़नी, पहन रही है रीझ
पहन रही है रीझ, हार कंगन झाँझरिया
जुत्ती तिल्लेदार, आज लाये साँवरिया
उड़ती जाय पतंग, लगे अम्बर मनभावन…
Added by Sarita Bhatia on July 18, 2013 at 10:30am — 6 Comments
बहर : हज़ज मुरब्बा सालिम
1222, 1222
परेशानी बढ़ाता है,
सदा पागल बनाता है,
अजब ये रोग है दिल का,
हँसाता है रुलाता है,
दुआओं से दवाओं से,
नहीं आराम आता है,
कभी छलनी जिगर कर दे,
कभी मलहम लगाता है,
हजारों मुश्किलें देकर,
दिलों को आजमाता है,
गुजरती रात है तन्हा,
सवेरे तक जगाता है,
नसीबा ही जुदा करता,
नसीबा ही मिलाता…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 18, 2013 at 10:30am — 20 Comments
वज्न - 2122 1122 22
महफिलें यूँ ही सजाये रखना
हौसला अपना बनाये रखना
चाँद के पहलू में अन्धेरा है
इन चिरागों को जलाये रखना
रविशे-आम आज हरीफ़ाना है
संग हाथों में उठाये रखना
अपनी यादों के वही दिलकश पल
इन निगाहों में छिपाये रखना…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 18, 2013 at 10:00am — 19 Comments
चाँद नगर को जाते-जाते,जिनका अश्व भटकता है;
उडुगण की उजली बस्ती में,चुँधियाया सा रुकता है।
स्वर्णकिरण की राहों पर जो,चलते हुए झिझकते हैं;
जिनके स्वप्न जहाँ विस्फारित,होते वहीं पिघलते हैं।
नीरदमाला बन कर उनके,निःश्वासों में गलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
जग में चौराहे कितने हैं,कितनी परम्पराएँ भी;
बनती-मिटती बस्ती भी है,अडिग अट्टालिकाएँ भी।
जीवन भर दोराहे पर जो,पथ-निर्धारण करते हैं;
आशा की कच्ची गागर में,सदा हताशा भरते हैं।…
Added by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 7:00am — 8 Comments
एक प्रयास
(बहर- 2122 2122 2122)
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं।।
ढूंढ साधन,साधने को लक्ष्य सोंचा,
ना सधा ये,सब 'स्व' को ही रौंदते हैं।
जग छलावे में भटकते इस तरह हम,
शांति के हित शांति खोते भासते हैं ।
*समर्पण हो पूर्ण,या लब सीं लिए हों,
क्या शिला भी प्रेम को पा सीलते हैं?
ना पहुंचू पर मुझे हो भान तो वह,
तब बढेंगे, आज तो बस खोजते हैं ।।
*संशोधित …
Added by Vindu Babu on July 18, 2013 at 5:00am — 22 Comments
(२१२२, २१२२,२१२२,२१२)
नफरतों की बात छोड़ें, प्यार की बातें करें
दुश्मनों को रहने दें, दिलदार की बातें करें ।
तोड़ दें हथियार सारे, फेंक दें तलवार भी
क्या बुरा जो हम कलम की धार की बातें करें ।
'गोधरा' के भूत को फिर याद कर होगा भी क्या
ईद-होली और कुछ त्यौहार की बातें करें ।
है सियासत, खेल-कारोबार है, सब कुछ तो है
मेज पर रक्खे हुए अखबार की बातें करें ।
गाँव कस्बे और फिर इस शहर की बातें हुई
आज छत पर बैठकर संसार की बातें करें…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 18, 2013 at 1:10am — 15 Comments
नाम ही बस नाम बाकी रह गया है
कहाँ अब इंसान बाकी रह गया है
क्यों नही करता वो मुझको अब क़ुबूल
कौन का इम्तिहान बाकी रह गया है
बस तसल्ली है जो मेरे पास है
कौन सा सामान बाकी रह गया है
दिल मेरा कहता है वापस आएगा वो
क्या कोई तूफान बाकी रह गया है
अब कहाँ खुद्दारियों का है ज़माना
अब कहाँ ईमान बाकी रह गया है
अजय कुमार शर्मा
मौलिक अप्रकाशित
Added by ajay sharma on July 17, 2013 at 11:00pm — 10 Comments
जब सोचने का नज़रिया
बदल जाये तो
राहें भटक जाया करती हैं,
मंजिलें तब दूर कहीं
खो जाया करती हैं...
काफिले के संग
चल निकलो तो बात अलग,
वर्ना परछाईं भी अक्सर
साथ छोड़ जाया करती है...
वो लोग अलग होते हैं
जो डूब के पार निकलते हैं,
हौसलों से तो बिन पंख भी
ऊँची उडान भरी जाया करती…
Added by Priyanka singh on July 17, 2013 at 10:52pm — 17 Comments
!!! जमीं-फलक में हैं तारें, निकल के देखते हैं !!!
1212 1122 1212 112
लहर-लहर में कशिश है, मचल के देखते हैं।
हवा हवाई सफर से, बहल के देखते है।।
नदी कहे कि सितारें भरी हैं रेत हसीं।
लहर चमक के किनारे उछल के देखते हैं।।
हवा दिशा से कहे कामना सकल शुभ हो।
मगर तुफान कहे तो संभल के देखते हैं।।
ये अग्नि-वारि गगन में, धरा भुलाए नफरत।
प्रलय से कष्ट मिले हैं, संभल के देखते हैं।।
गगन से बरसे है…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 17, 2013 at 8:34pm — 16 Comments
की बोर्ड से चिपका
स्क्रीन की सुंदरता से मुग्ध
हर सवाल का जबाब
चेट्टिंग से चेट्टिंग तक
मोबाइल से चीटिंग करते
झूठ से भरमाते
फिर भी मुस्कुराते
आँखें कान नाक
सब अंधे
जिनसे हमेशा
रिसता है
ज़हरीला
फरेब
ऐसे रिश्ते
प्रेम की पराकाष्ठा है
आज का प्रेम
संदीप पटेल "दीप"
मौलिक व अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 17, 2013 at 3:09pm — 9 Comments
धरती तो आधार है, जा न सके उस पार
जन्म,मरण अरु परण का,धरती ही आधार|
पञ्च तत्व से जन्म ले,पाय धरा की गोद
हरेभरे उपवन खिले, प्राणी करे प्रमोद |
धरती गगन जहां मिले,लगे नीर की झील
हिरन दौड़ते खोजने, निकले मीलो मील |
हीरे मोती कुछ नहीं, जितनी धरा अमूल्य,
सभी मिले भूगर्भ में, बिन माटी सब शून्य|
निर्धन या धनवान हो, दो गज मिले जमीन,
साँसों की डोरी थमे, जाय संपदा हीन |
(मौलिक व्…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 17, 2013 at 12:00pm — 12 Comments
बहर: हज़ज मुसम्मन सालिम
वही दिलकश नज़ारा हो वही मौसम सुहाना हो,
वही खिलते हुए फूलों सा तेरा मुस्कुराना हो,
जुबां से कह नहीं पाया नज़र से तुम नहीं समझी,
बताना हो बड़ा मुश्किल कठिन उससे छुपाना हो,
पलटकर देखना तेरा ग़लतफ़हमी सही मेरी,
इसी धोखे के चलते बेवजह हँसना हँसाना हो,
अदा इक तो सनम कातिल खुदा से तुमने है पाई,
गिरे बिजली मेरे दिल पे जो तेरा भीग जाना हो,
चुराने आँखों से काजल फलक से आ गए…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 17, 2013 at 12:00pm — 41 Comments
सितारों जड़ी चुनरी नित-निश
लहर दिशा महके री।
झांक रही केसर
मुख नारी,
पर्वत ओट लिए
दृग कारी।
काजल रेख दूर
तक पारी,
गाल गुलाल
मुस्कान प्यारी।
अधर बीच बिजली री !
स्वर्ण किरन ने
ली अंगड़ाई,
शबनम करती
चली रूषाई।
कल कल धुन सुन
सरिता मचले,
गिरि से गिर कर
झरना उछले।
बांह बॅधें नहि मछरी !
पानी में केसर
मुख धोए,
हर हर गंगे
बोल सुहाए।
निखरा रूप
सलोना सुन्दर,
जल रक्त…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 17, 2013 at 8:19am — 14 Comments
भूख थी जेरे बह्स और प्यास भी था मुद्द'आ
फैसला होना नहीं था, मुल्तबी वह फिर हुआ
रहमतों की बारिशें होंगी, मुनादी हो गयी
और बातें छोडिये, पर रोटियों का क्या हुआ
लाख बोलो कान पर,जूँ तक नहीं अब रेंगता
क्या असर होगा इन्हें, दो गालियाँ या बददुआ
हाथ इनके हैं बहुत लम्बे, मगर डरना नहीं
चाहे संसद में गढ़ें वो नामुआफ़िक मजमुआ
वारदातें भी रहम की मांगती हैं हर नज़र
कुछ दरीचा हो यहाँ पर,…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 17, 2013 at 7:09am — 12 Comments
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