जन्माष्टी के उपलक्ष में निवेदित रचना-
विमुग्ध हो फूल का रसपान कर
ज्यों त्यागते हों भ्रमर !
भाँति तेरे कृष्ण भी,
बंशी सुनाते,
चुरा कर चित्त कुब्जा में रमें
छोड़ दी मेरी खबर ।
पीत पर लहराता है तू भी,
निज मित्र के पट पीत सम,
तू भी काला श्याम सा
कपटी कुचाली प्रीति डोरी तोड़ पल में
मन रिझाता है ।
भृंग की भनक संदेश है क्या?
पर...
गोपियां सुनतीं व्यथा कह उससे,
द्वन्द्व, मन का घटातीं,
प्रेम जो…
Added by Vindu Babu on August 24, 2013 at 6:30pm — 5 Comments
2 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2
हँसते मौसम यूँ ही आते जाते रहे
गम के मौसम में हम मुस्कुराते रहे
यादें परछाइयाँ बन गयीं आजकल
हमसफ़र हम उन्हें ही बताते रहे
कल तेरा नाम आया था होंठों पे यूँ
जैसे हम गैर पर हक़ जताते रहे
दिल के ज़ख्मों को वो सिल तो देता मगर
हम ही थे जो उसे आजमाते रहे
तल्ख़ बातें ही अब बन गयीं रहनुमाँ
मीठे किस्से हमें बस रुलाते रहे
चल दिये हैं सफ़र में…
Added by sanju shabdita on August 24, 2013 at 5:00pm — 25 Comments
दुमहले के ऊँचे वातायन से
हलके पदचापों सहित
चुपके से होती प्रविष्ट
मखमली अंगों में समेट
कर देती निहाल
स्वयं में समाकर एकाकार कर लेती
घुल जाता मेरा अस्तित्व
पानी में रंग की तरह
अम्बर के अलगनी पर
टांग दिए हैं वक्त ने काले मेघ
चन्द्रमा आवृत है , ज्योत्सना बाधित
अस्निग्ध हाड़ जल रहा
सीली लकड़ियों की तरह
स्मृति मञ्जूषा में तह कर रखी हुई हैं
सुखद स्मृतियाँ.....
.. नीरज कुमार…
ContinueAdded by Neeraj Neer on August 24, 2013 at 3:30pm — 23 Comments
२१२२ १२२ २१२२
इक नजर इक नजर से मिल रही है
बात जग को भला क्यूँ खल रही है
वो हसी चाल कोई चल रही है
रोज हल्दी वदन पे मल रही है
सर्द मौसम तन्हाई का अलम है
चांदनी शब् भी हमें अब खल रही है
इस तरफ हैं तडपती बाहें मेरी
उस तरफ उम्र उनकी ढल रही है
हो रहा बस अलावों का जिकर् ही
आग कब से दिलों में जल रही है
बाहुपाशो में बंधे हैं वदन दो
अब घड़ी मौत की भी टल रही…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on August 24, 2013 at 2:30pm — 17 Comments
"मीता देखो अभी वक़्त है फैसला बदल लो, ईद का दिन है कहीं कुछ भी हो सकता है.. फ्लाईट से चलते हैं.."
"नहीं पहले प्रोग्राम के अनुसार ही चलते हैं", मीता अपने पति से बोली, "देखो आते वक़्त जम्मू से श्री नगर के रास्ते की कितनी खूबसूरत यादें हमारे कैमरे में बंद हैं ! जाते वक़्त भी जो जगह छूट गई थी.. उनकी तस्वीरें भी कैद करुँगी, ईद के दिन कश्मीर कैसा लगता है.. देखना चाहती हूँ.. देखो कैसा दुल्हन की तरह सजा है.. लोग बड़े बूढ़े बच्चे स्त्रियाँ कितने सुंदर लिबास में सजे धजे घूम रहे हैं, इस…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 24, 2013 at 12:00pm — 22 Comments
तुम सोई
सपनों में खोई
अधर मंद मुस्काते हैं
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।
बागों में
चंपा महकी है
मंद हवा
बहकी बहकी है
घनी रात को, तारे आकर
रूप नया दे जाते हैं।
रंग भरे
यह श्वेत चांदनी
कण कण में
इक मधुर रागिनी
नींद भरे बोझिल ये नयना
सुध बुध सब हर जाते हैं।
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 11:00am — 42 Comments
आँखों देखी – 4 डॉक्टर का चमत्कार
भूमिका :
मैं प्राय: लोगों से कहता रहता हूँ कि जिसने अंटार्कटिका का अंधकार पर्व अर्थात तथाकथित शीतकालीन अंटार्कटिका नहीं देखा है उसके लिये इस अद्भुत महाद्वीप को जानना अधूरा ही रह गया, भले ही उसने ग्रीष्मकालीन अंटार्कटिका कई बार देखा हो. ऐसा इसलिये कि दो महीने तक लगातार सूरज का उदय न होना हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है. एक छोटे से स्टेशन के अंदर…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on August 24, 2013 at 1:51am — 12 Comments
उषा आज फिर देर से आई । मै कुछ पूछने को लपकी ही थी कि उसका चेहरा देख रुक गई, वह सिर पर पल्लू रखे चेहरे को छुपाने का प्रयास कर रही थी । वह अंदर आई और चुपचाप बर्तन उठाये और धोने बैठ गई । उसकी एक आँख पूरी काली थी चेहरे पर और गर्दन पर कई निशान थे । कुछ न पूछना ही मुझे ठीक लगा । काम निपटा कर वह अंदर आई । मुझसे रहा न गया मैंने पूंछ ही लिया – “उषा क्या बात है आज फिर तुम्हारे पति ने तुम्हें .......” बात पूरी भी न हो पाई कि वह बीच मे ही काट कर बोली – “ नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है ,…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 6:00pm — 36 Comments
ख़्वाब पूरे हुए आस भी रह गई
जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
फ़ौज से लौट कर आ सका वह नहीं
माँग भरकर सुहागन खड़ी रह गई
खैर तेरी खुदा से रही मांगती
चाह तेरी मुझे ना मिली रह गई
छोड़ कर तुम भँवर में न होना खफा
घाव दिल को दिए जो छली रह गई
आजमाइश तूने की अजब है सबब
मांगने में कसर जो कहीं रह गई
प्यार गुल से निभा बुल फिरे पूछती
आरजू में बता क्या कमी रह गई
घाव…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on August 23, 2013 at 1:30pm — 13 Comments
Added by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 11:15am — 24 Comments
बह्र : मफऊलु फायलातु मफाईलु फायलुन (221 2121 1221 212)
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चंदा स्वयं हो चोर तो जूता निकालिये
सूरज करे न भोर तो जूता निकालिये
वेतन है ठीक साब का भत्ते भी ठीक हैं
फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये
देने में ढील कोई बुराई नहीं मगर
कर काटती हो डोर तो जूता निकालिये
जिनको चुना है आपने करने के लिए काम
करते हों सिर्फ़ शोर तो जूता निकालिये
हड़ताल, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, जूलूस तक
कोई…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 22, 2013 at 9:54pm — 29 Comments
मैं तेरा हूँ बस तेरा
तेरे दिल में मेरा बसेरा
मेरे दिल में तेरा ही डेरा
सारी उम्र तू हसीन कर ले
मुझ पर तू यकीन कर ले.....
क्यूँ बार बार दिल तोडती है
इरादों को यूँ मोड़ती है
जब किस्मत हमें जोड़ती है
दूरियों को तू महीन कर ले
मुझ पर तू यकीन कर ले.....
आजा छोटा सा जीवन है
चार दिनों का यौवन है
हर मौसम ही सावन है
खुशी को तू आमीन कर ले
मुझ पर तू यकीन कर ले....
हम दोनों है…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 22, 2013 at 6:30pm — 28 Comments
बोलो नेहा ! इतनी उदास क्यों हो ?
पर सूनी आँखों में कोई ज़वाब न देख, अपने हक के लिए कभी एक शब्द भी न कह पाने वाली दिव्या, अचानक हाथ में प्रोस्पेक्टस के ऊपर एडमीशन फॉर्म के कटे-फटे टुकड़े लिए, बिना किसी से इजाज़त मांगे और दरवाजा खटखटाए बगैर, सीधे ऑफिस में घुसी और डीन की आँखों में आँखे डाल गरजते हुए बोली “देखिये और बताइये– क्या है ये? आपकी शोधार्थी नें एडमीशन फॉर्म के इतने टुकड़े क्यों कर डाले? दो साल से सिनॉप्सिस तक प्रेसेंट नहीं हुई, क्यों ? इतना कम्युनिकेशन गैप? आखिर समय क्यों नहीं…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 22, 2013 at 6:30pm — 31 Comments
2122 2122 2122 2122
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क्या हवायें आज कुछ पैग़ाम ले के आ रही है
धूप भी कुछ गा रही है, छाँव भी इतरा रही है
बेख़याली मे कहीं हम हद के बाहर तो नहीं है
आदमीयत आज बैठी क्यूँ यहां शर्मा रही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 22, 2013 at 6:00pm — 36 Comments
तड़पा करूँ तेरी याद में हर पल ।
बन के रहूँ तेरे प्यार में पागल ।
मेरी जाना । मेरी जाना ।
मेरी जाना । मेरी जाना ।
तुझे भूलूं न कभी तुझे छोड़ूं न कभी ।
तेरे लिए मै जियूँ तू है मेरी ज़िन्दगी ।
दीवाने दिल की चाहत बनकर ।
आती हो मेरे ख़्वाबों में अक्सर ।
मेरी जाना । मेरी जाना ।
मेरी जाना । मेरी जाना ।
तेरा सपना सजाऊं तुझे अपना बनाऊं ।
लाऊं तोड़ के तारे तेरी मांग सजाऊं ।
तोड़ न जाना जन्मों…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on August 22, 2013 at 4:57pm — 4 Comments
तुमसे बिछड़ के क्यों जीता हूँ ,
मेरे पागल दिल से पूछो ।
दर्द के आंसू क्यों पीता हूँ ,
मेरे पागल दिल से पूछो ।
तनहाई के दौर बहुत हैं ।
दर्द मिले इस तौर बहुत हैं ।
ये न समझना एक तुम्ही हो,
दिल के साथी और बहुत हैं ।
टूटे सपने क्यों सींता हूँ ,
मेरे पागल दिल से पूछो ।
माना तुमसे दूर बहुत हैं ।
हम दिल से मजबूर बहुत हैं ।
प्यार की रस्मे कैसे निभायें,
दुनिया के दस्तूर बहुत हैं ।
किन…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on August 22, 2013 at 4:31pm — 11 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले)
शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार
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आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.
मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 2:00pm — 2 Comments
अकथ्य व्यथा
अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,
क्षुब्ध अनासक्त अनुभवों से अनुबध्द,
फूलों के हार-सी सुकुमार
मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?
पँक्ति-पँक्ति में संतप्त, कुछ टटोलती,
विग्रहित शिशु-सी रुआँसी,
बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से
किसी पुराने रिश्ते को थामे,
मेरे क्षत-विक्षत शब्दों में तुम
इतनी जागती रातों में क्या ढूँढती हो ?
अथाह सागर के दूरतम…
Added by vijay nikore on August 22, 2013 at 12:30pm — 31 Comments
Added by Lata tejeswar on August 22, 2013 at 9:30am — 8 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
"पक्के-बाड़े" में पिले , जबसे सु-वर तमाम ।
मल-मलबा से माल तक, खाते सुबहो-शाम ।
खाते सुबहो-शाम, गगन-जल-भूमि सम्पदा ।
करें मौज अविराम, इधर बढ़ रही आपदा ।
उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े ।
"मत" हिम्मत से मार, शुद्ध कर "पक्के-बाड़े" ।।
Added by रविकर on August 22, 2013 at 8:58am — 6 Comments
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