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फिर कोई आग बुन

फिर कोई आग बुन

क्यों बुझा- बुझा सा है,फिर कोई आग बुन

छेड़ कर सुरों के तार ,फिर कोई राग चुन ।

 

गहन अँधेरी रात में.भोर कीआवाज़  सुन

नींद से जाग जरा,फिर कोई ख्वाब बुन ।

 

मन की हार, हार है,हार में भी जीत ढ़ूँढ़

हौंसला बुलंद कर ,फिर कोई आकाश चुन ।

 

वक्त रुकता नहीं कभी,वक्त की पुकार सुन

भूल जा कल की बात ,फिर कोई आज बुन ।

********

महेश्वरी कनेरी /मौलिक व अप्रकाशित रचना

Added by Maheshwari Kaneri on July 24, 2013 at 9:00pm — 11 Comments

बचपन, पंछी और किसान

बचपन, पंछी और किसान

बचपन

अकेला बचपन,

न कोई संगी न साथी.

मुँह अंधेरे माता पिता घर से निकल जाते,

कर जाते मुझे आया के हवाले;

शाम को वे घर आते थके मांदे,

मैं रूठती अभिमान करती

तब पिता बड़े प्यार से कहते-

‘’बेटे! हम काम करते हैं तुम्हारे ही

उज्ज्वल भविष्य के वास्ते.’’

पंछी

सूनी आँखें ताक रही थीं

सूना आकाश,

बंद मुट्ठी में भुरभुरी हो कर,

बिखर रहे थे ज़मीन पर,…

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Added by coontee mukerji on July 24, 2013 at 1:32pm — 6 Comments

खिड़कियाँ घर की तुम खुली रखना

खिड़कियाँ घर की तुम खुली रखना 

नजरें दर पे ही तुम टिकी रखना 

फिर से परवाना न मिटे कोई 

बज्म में शम्मा मत  जली रखना 

दिल मेरा रहता बेक़रार बड़ा  

तुम जरा सी तो बेकली रखना 

कैद मुझको तू कर ले दोस्त मेरे 

जुल्फ की ही पर हथकड़ी रखना 

है हवाओं में अब जहर बिखरा 

तू मगर आदत हर भली रखना 

आरजू दिल में बस मेरे इतनी 

अपने दिल में ही अजनबी रखना 

आशु वो देगा सौं न पीने…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 24, 2013 at 1:00pm — 10 Comments

दोहे ( प्रथम प्रयास )

दोहे ( प्रथम प्रयास ) 

दर दर भटके पूजता, तू महंत फकीर ।

चरण छुये माँ-बाप के, बनती है तकदीर ॥ 1 ॥

प्यासे को पानी मिले, भूखा जाये जीम ।

ऐसे घर मे लक्ष्मी, कृपा करे आसीम ॥ 2 ॥

जर जोरु दोनो मिले, बिछ्डे पुन मिल जाँए ।

जग छोड माँ-बाप गये, फिर वापस न आँए ॥ 3॥

छ्प्पन भोग तेरे धरे, देव प्रसन्न न होए ।

जब घर पे माता पिता, भूखे बैठे होए ॥4॥

बाल रुप धर तीन देव, करते अमृतपान…

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Added by बसंत नेमा on July 24, 2013 at 11:30am — 19 Comments

प्रणय

फिर वही गीत दुहराओ प्रिय

 

मन की सूखी धरती पर

कुछ बूंद प्रेम जल छलकाओ प्रिय

वीरान हो चला है हृदय

कुछ प्रेम पुष खिलाओ प्रिय

फिर वही गीत दुहराओ....................

 

भग्न हदय सुप्त मन प्राण

अभिशापित सा हो चला जीवन

गहराती धुंध के बादल

कुछ  रशमियां बिखराओ प्रिय

फिर वही गीत दुहराओ...............अन्नपूर्णा

 

मौलिक एवं अप्रकाशित  

Added by annapurna bajpai on July 24, 2013 at 11:00am — 19 Comments

प्रकृति और मानव (दोहा)

घर मकान की आड़ में , बचा नहीं कुछ शेष!

मानव मद में डूबकर,बदल दिया परिवेश !!१

जल थल दूषित हो रहे, मानव फिर क्यों मौन ?

नयन खोल जब सो रहा , इसे जगाये कौन!!३

बूँद बूँद संचय करो, पौधे भी दें रोप!

स्नेह करेगी फिर धरा,झेलेगा न…

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Added by ram shiromani pathak on July 23, 2013 at 10:30pm — 14 Comments

ग़ज़ल - दुआओं की तिजारत हो रही है !

ग़ज़ल -
.

भुलाए पर, यहाँ तक भी न कोई ।

सताए पर, यहाँ तक भी न कोई ।



मुझे हर आइने ने झूठ बोला ,

निभाये, पर यहाँ तक भी न कोई ।



मुहब्बत से भरोसा उठ गया है ,

सताए, पर यहाँ तक भी न कोई ।



फिर औलादें ही अपनी गलियां दे,

लुटाए, पर यहाँ तक भी न कोई ।
.
पतंगे खेल  कुदरत के बिगाड़ें ,
उड़ाए, पर यहाँ तक भी न कोई ।
.
दुआओं की तिजारत हो रही है
कमाए पर यहाँ तक…
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Added by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:30pm — 31 Comments

ग़ज़ल - तितलियाँ आती नहीं मकरंद पाने के लिए !

ग़ज़ल - 
हमने कुछ पौधे लगाए नाम पाने के लिए ।

और जंगल काट डाले आशियाने के लिए



टंग गए हर छत हर एक मुंडेर पर पिंजरे मिया,

हसरते सब मर गयीं चिड़िया चुगाने के लिए ।


 अब खबर में खेल में और ख़्वाब में बन्दूक हैं,

 कौन आगे आएगा बचपन बचाने के लिए ।



 पर्वतों ने आदमी को घर बनाता देखकर,

 बादलों को दे दिया ठेका भगाने के लिए  ।



 क्यों करें बर्दाश्त बादल, आखिरश वो फट पड़े

 हम हदों को लांघते थे मौज पाने के लिए…
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Added by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:28pm — 37 Comments

गज़ल//कल्पना रामानी//

212221222122212 

 

हक़ किसी का छीनकर, कैसे सुफल पाएँगे आप?

बीज जैसे बो रहे, वैसी फसल पाएँगे आप।

 

यूँ अगर जलते रहे, कालिख भरे मन के दिये,

बंधुवर! सच मानिए, निज अंध कल पाएँगे आप।

 

भूलकर अमृत वचन, यदि विष उगलते ही रहे,

फिर निगलने के लिए भी, घट- गरल पाएँगे आप।

 

निर्बलों की नाव गर, मझधार छोड़ी आपने,

दैव्य के इंसाफ से, बचकर न चल पाएँगे आप।

 

प्यार देकर प्यार लें, आनंद पल-पल बाँटिए,

मित्र! तय…

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Added by कल्पना रामानी on July 23, 2013 at 8:00pm — 49 Comments

चले गए तुम

अश्कों की बारिश में,

ऐसे हैं भींगे हम…..
जिंदगी पल पल अब,
हो रही है बे दम……
सांसों से भीख जैसे,

हैं माँग रहे हम……

क़िस्त-क़िस्त दे रहा,
है कर, हमपे रहम…
जब से जिंदगी से,
चले गए हो तुम…...
अब न कोई हमसफ़र,
रहा न कोई हमदम….
या ख़ुदा कर मदद,
इतना सा कर करम…

अश्कों की बारिश में………
….अभिषेक कुमार झा…
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Added by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 23, 2013 at 5:00pm — 14 Comments

सुनो ऋतुराज! – ११

सुनो ऋतुराज! – ११



ये मान मनौव्वल, झूमा-झटकी

बरजोरी, करजोरी और मुँहजोरी

तभी तक, जब तक

इस वैभवशाली ह्रदय का

एकछत्र साम्राज्य तुम्हारे नाम है

जिस दिन यह रियासत हार जाओगे

विस्थापित होकर कहाँ जाओगे?

फिर हम कहाँ और तुम कहाँ

सुनो ऋतुराज

हर नगरी की हर चौखट पर

पी की बाट जोहती सुहागिने

मुझ जैसी अभागन नही होती

खोने को सुख चैन

पाने को बेअंत रिक्त रैन

सुख की अटारी और दुख की पिटारी

अब दोनो तुम्हारे नाम…

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Added by Gul Sarika Thakur on July 23, 2013 at 3:30pm — 12 Comments

जब तुम कहते हो

तुम्हारा प्रेम -

खुद तुम्हारा ही

गढ़ा  फलसफा

सुविधाजीवी सोच से

तौला हुआ

 नुक्सान नफ़ा

जब तुम कहते हो -

प्रेम है तुम्हें

बुनते हो

मोहक भ्रमजाल

अंतस- द्वीपों में

ज्यों भित्तियां

रचते प्रवाल

 

१- मित्रों की मंडली में

वह अनर्गल सी हंसी

देह के ही व्याकरण में

उलझकर रहती फंसी

 हो न सकती

उसमें मुखरित

सहचरी या प्रेयसी

जब तुम कहते हो-

प्रेम है तुम्हें

झूठ होता है

वह…

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Added by Vinita Shukla on July 23, 2013 at 3:00pm — 12 Comments

काश : होते परिंदे

चाँद यहाँ भी ,

चाँद वहाँ  भी 
इंसान में लहू 
 यहाँ भी वहाँ भी
फिर भी क्यूँ है ?
सरहदों पर लकीरें 
लोग बने क्यों फिर रहे 
लकीर के फ़क़ीर 
क्यूँ बना डाली 
नफरतों की  दीवार 
कुछ वक्त पहले तक 
थे दोनों एक 
मुल्क एक दुःख एक 
राज एक सुख एक 
थे एक ही जगह के वाशिंदे 
काश  हम इंसान भी होते परिंदे 
जो उड़ते यहाँ भी…
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Added by shubhra sharma on July 23, 2013 at 12:00pm — 20 Comments

प्यार और मनुहार - (रवि प्रकाश)

अधिकार भरी मादकता से,दृष्टिपात हुआ होगा;

मन की अविचल जलती लौ पर,मृदु आघात हुआ होगा।



साँसों की समरसता में भी,आह कहीं फूटी होगी;

सूरज के सब संतापों से,चन्द्रकिरण छूटी होगी।

विभावरी ने आते-जाते,कोई बात सुनी होगी;

सपनों ने तंतुवाय हो कर,नूतन सेज बुनी होगी।

कितने पल थम जाते होंगे,बंसीवट की छाँव तले;

मौन महावर पिसता होगा,आकुलता के पाँव तले।



सन्ध्या का दीप कहीं बढ़ कर,भोरों तक आया होगा;

मस्तक का चंदन अनायास,अलकों तक छाया होगा।…



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Added by Ravi Prakash on July 23, 2013 at 12:00pm — 7 Comments

उन्हें ख्वाबो में देखता हूँ

एक कोशिश विरह रस की कविता कहने की आशा है आप सब को पसंद आएगी



फिर से सावन की घटा छाई है

तन्हाई में मुझे तेरी याद आई है

क्यों है दूर मुझसे तू न जानू

क्यों है मजबूर मैं न जानू



है कुछ मेरी भी मज़बूरी 

बिन तेरे मैं भी अधूरी

क्या बताऊ दिल का हाल

करता है मुझे ये बेहाल



तुमसे मैं क्या करू सवाल

मेरा क्या तुम बिन हाल

मैं कहु कैसे मेरी प्रियतम

सहा है कितना मैंने सितम



मैं समझती हूँ तेरे दिल का हाल

तेरे…

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Added by Ketan Parmar on July 23, 2013 at 11:30am — 8 Comments

मांगो वत्स क्या मांगते हो

रात स्वप्न में, प्रभु थे खड़े

बोले मांगो वत्स क्या मांगते हो

जमीं चाहते हो या आस्मां चाहते हो

बड़ी गाडी बड़ा घर नोटों की गट्ठर

या सत्ता सुख कुर्सी से हो कर

जो चाहो अभी दे दूँ

एक नयी ज़िन्दगी दे दूँ

मैंने माँगा तो क्या माँगा

एक बेंच पुरानीं सी

वो पीछे वाली मेरे स्कूल की

चाहिए मुझे

वो बचपन के ज़माने

दोस्त पुराने

मदन के डोसे पे टूटना

चेतन का वो टिफिन लूटना

अपना टिफिन बचाने में

टीचर…

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Added by shashiprakash saini on July 23, 2013 at 11:00am — 7 Comments

!!! शोर है सागर में तूफां !!!

छोटी बह्र में गजल-2122, 2122

तुम मुझे अच्छी लगी हो।

मन से तुम सच्ची लगी हो।।

रोज गुल की कामना सी,

शहर की बच्ची लगी हो।

शाम की मुश्किल घड़ी में,

जीत की बस्ती लगी हो।

हुस्न की मलिका सुनो तुम,

आज फिर हस्ती लगी हो।

बाग के हर बज्म में तुम,

राग सी मस्ती लगी हो।

शोर है सागर में तूफां,

मौज की कश्ती लगी हो।

चढ़ गया छत पर पकड़ कर,

सांप सी रस्सी लगी हो।

तुम…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 22, 2013 at 8:51pm — 9 Comments

शाश्वत प्रेम (कुंडलिया छंद)

1-

शाश्वत प्रेम सदैव है, सृष्टि आदि अनुमन्य।

यह ईश्वर का अंग है, करके सब हों धन्य॥

करके सब हो धन्य, जगत का सार यही है।

वश में होते ईश, प्रेम का काट नहीं है॥

कबिरा मीरा सूर, शशी आदिक इसमें रत।

नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥



2-

बहती गंगा प्रेम यह, बांध सका नहिं कोय।

अन्हवाये तन प्रेम में, हर मन निर्मल होय॥

हर मन निर्मल होय, कलुष अंतर का मिटता।

नहीं वासना युक्त, प्रेम वश ईश्वर मिलता॥

निकल अचल हिमवान, सिन्धु चंचल में… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 22, 2013 at 8:00pm — 22 Comments

गुरु पूर्णिमा की शुभकामनाएं

सार छंद / ललित छंद [प्रथम प्रयास]

छन्न पकैया छन्न पकैया के स्थान पर 

गुरु  का आओ सम्मान करें 

....................................................

गुरु का आओ सम्मान करें , 'गुरु' मतलब समझाएं

'गु' से होता अज्ञान तिमिर का, 'रु' से उसको हटाएँ

गुरु का आओ सम्मान करें ,गुरु पूर्णिमा आई

अज्ञान तिमिर का जो हर रहे ,सबके मन का भाई

गुरु का आओ सम्मान करें, अँधेरा दूर हटाएँ

गुरु दक्षिणा आज उसे देवें, ज्ञान प्रकाश…

Continue

Added by Sarita Bhatia on July 22, 2013 at 8:00pm — 7 Comments

मेरे पिता

याद आ गया फिर

मुझे मेरा बचपन ,

पिता  की उंगली थामे,

नन्हें कदमों से नापना,

दूरियाँ, चलते चलते ,

वो थक कर बैठ जाना ,

झुक कर फिर पिता का ,

मुझको गोदी उठाना ,

चलते चलते मेहनत का,

पाठ वो धीरे से समझाना ।

 

बच्चों पढ़ना है सुखदाई,

मिले इसी मे सभी भलाई,

पहले कुछ दिन कष्ट उठाना,

फिर सब दिन आनंद मनाना,

फिर आ गया याद, 

 उनका ये  गुनगुनाना ,

सिर पर वो उनका हाथ,

भर देता है मुझमे…

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Added by annapurna bajpai on July 22, 2013 at 6:30pm — 13 Comments

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