उमर भर साथ तू शामिल रही परछाइयों में,
सहा जाता नहीं है दर्द-ए-दिल तन्हाइयों में,
जरा सी बात पे रिश्ता दिलों का तोड़ते हैं,
उतर पाते नहीं जो प्यार की गहराइयों में,
भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,
बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में,
जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,
जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,
निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,
गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 30, 2013 at 8:30pm — 22 Comments
शब्दों के घेरे
घेर लेते है मुझे
किसी चिड़िया की
मानिंद आ बैठते हैं
हृदय रूपी वृक्ष द्वार पर
कल्पनाओं की टहनी पर
फुदक फुदक कर
बनाते है नई रचनाये
गीत कवित्त कविताएं
कल्पनाओं की उड़ान
को देते हैं हर बार
नए पंख लगा बैठते
हर बार टहनी टहनी
मेरे नए जीवन की
हर सुबह को देते
एक सूरज नया । ............ अन्न्पूर्णा बाजपेई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by annapurna bajpai on July 30, 2013 at 2:00pm — 11 Comments
जब कभी अम्न की तदबीर नई होती है॥
हर तरफ जंग की तस्वीर नई होती है॥
ख़त्म कर देती है सदियों की पुरानी रंजिश,
वक़्त के हाथ में शमशीर नई होती है॥
पहले होते हैं यहाँ क़त्ल धमाके…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 30, 2013 at 1:37am — 8 Comments
वास्ता बस यूँ कि
यादें आती रहें जाती रहें
इसी बहाने कभी यूँही कह
मुस्कुरा लिया करेंगे
गुज़रती बेहाल सी
रफ़्तार भरी ज़िन्दगी में भी
इसी बहाने कभी यूँही कह
दो घड़ी थम जाया करेंगे
दुखती आँखों पर भी
थोड़ा रहम हो जायेगा
इसी बहाने कभी यूँही कह
आंखे मूंद तुम्हें
देख लिया करेंगे
खोलती नहीं दुपट्टे की
वो गांठ चुभती है जो
ओढ़ने में….इसी बहाने
कभी यूँही कह तुम्हें
महसूस कर लिया…
ContinueAdded by Priyanka singh on July 29, 2013 at 10:50pm — 15 Comments
1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,
घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।
जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,
गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।
ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,
छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।
भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,
पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥
2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों…
Added by Ravi Prakash on July 29, 2013 at 8:00am — 9 Comments
बेजान कमरे में
टूटी खटिया पे लेटा
करवट लेते हुए
आँखों के पूरे सूनेपन के साथ
कभी कभी खिड़की के
बाहर देखता हूँ
कैसी है दुनियां
क्या वैसी ही है
जैसी पहले हुआ करती थी
दर्द के समंदर में
निस्पंद जड़ सा
सोचता रहा
अपने ही अपने नहीं रहे
ये गुमशुदी का जीवन कब तक
एक चिंता जाती
तो दूसरी उत्पन्न
देखता रहता हूँ
सजीव कंकाल सा
इधर उधर
बस जिंदा हूँ
औपचारिक
राम शिरोमणि…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on July 28, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
देख कर सावन को
आँखे भर आती हैं
क्या पता सावन भी
किसी की याद मे रोता होगा
मेरी ही तरह करता होगा
इंतज़ार किसी का ….
टूट जाने पर वादा
मेरी ही तरह रोता होगा
क्या पता सावन भी
सावन में किसी के लिए
तरसता होगा ………
करके वादा गया होगा कोई
लौट कर आऊंगा उस महीने में
जिसमे बरसात होगी ……
ऐ मेरे चाहने वाले
अब तो तुमसे
बरसात में ही मुलाक़ात होगी
टूटता होगा वादा तो
दिल भी टूट जाता होगा
दर्द के…
Added by Sonam Saini on July 28, 2013 at 11:30am — 7 Comments
नव निशा की बेला लेकर,
साँझ सलोनी जब घर आयी।
पूछा मैंने उससे क्यों तू ,
यह अँधियारा संग है लायी॥
सुंदर प्रकाश था धरा पर,
आलोकित थे सब दिग-दिगंत।
है प्रकाश विकास का वाहक,
क्यों करती तू इसका अंत॥
जीवन का नियम यही है,
उसने हँसकर मुझे बताया।
यदि प्रकाश के बाद न आए,
गहन तम की काली छाया॥
तो तुम कैसे जान सकोगे,
क्या महत्व होता प्रकाश का।
यदि विनाश न हो भू पर,
तो कैसे हो…
ContinueAdded by Pradeep Bahuguna Darpan on July 28, 2013 at 11:00am — 6 Comments
बादल
बादल अंधे और बहरे होते हैं
बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना
बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख
बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द
बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं
और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं
सागर
गागर, घड़ा, ताल, झील
नहर, नदी, दरिया
यहाँ तक कि नाले भी
लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं
पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 27, 2013 at 10:00pm — 5 Comments
नीरज, बहुत दिन बाद आए
जेठ में भी
बादल दिख गए
पर तुम नहीं दिखे
हमारा साथ कितना पुराना
जब पहली बार मिले थे
तभी लगा था
पिछले जनम का साथ
करम लेखा की तरह
अनचीन्हा नहीं था
तुम्हारे न रहने पर
बहुत अकेला होता हूँ
किसी के पास
समय नहीं
समय क्या
कुछ भी नहीं
दूसरों के लिए
दिन काटे नहीं कटता
तुम नहीं थे
मैं जाता था बतियाने
पेड़…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 27, 2013 at 8:30pm — 18 Comments
जब घिर बदरा रिम झिम बरसे , तब दादुर नाचे बन मोर | |
पवन बहे जब झूम झूम के , तब घासें झूमें झकझोर | |
चाँद छुप छुपआये गगन में , जनु चाँदनी छुपे हर ओर | |
आया है मन भावन सावन , सब कजरी गावें चहुओर | |
डाली झूम जनु गुनगुनायें , कोयल भी गाये दिल… |
Added by Shyam Narain Verma on July 27, 2013 at 5:30pm — 5 Comments
मैंने बस धीरज माँगा था,तुमने ही अधिकार दिया;
कितने पत्थर रोज़ तराशे,फिर मुझको आकार दिया।
बादल,बरखा,बिजली,बूँदें,क्या कुछ मुझमें पाया था;
पथ-भूले को इक दिन तुमने,दिग्दर्शक बतलाया था।
लेकिन मेरे पथ पर चलना,श्रद्धा लाना शेष रहा।
धड़कन के दरबान बने तुम,मन तक आना शेष रहा॥
आशा को थकन नहीं होती,इच्छा को विश्राम कहाँ;
जब तक साँसों में उष्मा है,जीवन को आराम कहाँ।
कण-कण जमते हिमनद में भी,बाक़ी रहता ताप कहीं;
मनभावन आलिंगन में भी,छू जाता संताप…
Added by Ravi Prakash on July 27, 2013 at 5:30pm — 7 Comments
सम्मानीय सादर नमन !!
Added by arvind ambar on July 27, 2013 at 8:30am — 9 Comments
१-सहनशीलता
उत्पीडन की क्रीडा से उत्पन्न श्रान्ति से
पिंग बने टहल रहे
अकारण ही रंज रुपी हरिका खे रहे
मोषक को पोषक कहते
वाह!सहनशीलता की पराकाष्ठा
शायद!
खुद को काकोदर के मुख में फसा
मंडूक मान बैठे है
२-लिखता रहा
हृदयतल के तड़ाग से
अनकहे शब्द
अकुलाहट के साथ
बुलबुले बन
निकलते रहे निकलते रहे
पीड़ा है क्या ? नहीं तो
प्रेम है
विरह है
पता नहीं
फिर भी मै …
Added by ram shiromani pathak on July 26, 2013 at 8:30pm — 20 Comments
पावस का इस बार भूमि पर
प्यार बहुत उमड़ा है।
लेकिन क्या सुख संचय होगा?
संशय नाग
खड़ा है।
मक्कारी, गद्दारी, लालच,
शासन के कलपुर्ज़े।
बूँद-बूँद को चट कर देंगे,
घन बरसे या गरजे।
भरे सकल जल-स्रोत लबालब,
सागर ज्वार चढ़ा है।
मगर उसे नल नहलाएगा?
चिंतित मलिन
घड़ा है।
बन मशीन मानव ने भू के,
रोम-रोम को वेधा।
क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी,
रुष्ट न…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 7:27pm — 17 Comments
जल उठा मन का दिया
प्रियतम! मिले हो जब से !
भोर हुयी है जीवन में
तमस रात थी कब से !
सांसो में तेरी ही खुशबु
तुझको पाया जब से !
फूल खिले मन-उपवन में
बीता पतझड़ जब से !
रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम
छुआ है तुमने जब से !
जितेन्द्र 'गीत'
मौलिक/अप्रकाशित
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:30pm — 15 Comments
पोखर छल छल जल भरे ,धुले धुले मैदान|
काई ने पहना दिए , हरित नवल परिधान||
धरती अंतर में छुपा,दादुर जीव विचित्र|
नव चौमासे ने कहा ,बाहर आजा मित्र||
मुक्तक फूटें मेघ से ,टपर टपर टपकाय |
प्यासा चातक चुन रहा,चरुवा भरता जाय||
…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 26, 2013 at 4:30pm — 13 Comments
काश!
आरजू मै करु मिलने की, और वो रुबरु हो जाये ।
काश ! मेरी मोहब्बत की, ऐसी तासीर हो जाये ।।
न शिकवा ना शिकायत हो कोई भी खुदा से ।
काश! ऐसा हर कोई खुश नसीब हो जाये…
ContinueAdded by बसंत नेमा on July 26, 2013 at 2:00pm — 9 Comments
बहर : हज़ज़ मुरब्बा सालिम
......... १२२२, १२२२ .........
अलग बेशक हुए मजहब,
सभी का एक लेकिन रब,
नज़र में एक से उसके,
भिखारी हो भले साहब,
जिसे जितनी जरुरत है,
दिया उसको उसे वो सब,
सभी को एक सी शिक्षा,
खुदा का बाँटता मकतब,
(मकतब : विद्यालय)
मुसीबत में पुकारे जो,
चले आयें बने नायब,
(नायब : सहायक)
अजब ये दौर आया की,
हुई है सभ्यता…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 25, 2013 at 9:23pm — 13 Comments
आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,
सादर वंदे !
ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति…
ContinueAdded by Admin on July 25, 2013 at 8:00pm — 26 Comments
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