2122 2122 2122 2122
शेर मेरे ये सभी यूं तो ज़माने के लिए हैं।
बेवफा से भी मुहब्बत ही जताने के लिए हैं।।
याद है तुझको कभी तू भी रहा है साथ मेरे।
याद भी तेरी जहां में भूल जाने के लिए हैं।।
चाहता है दर्द उसके सब मिटे दुनिया से कमसिन।
दर्द भी कुछ सीने पर ही तो लगाने के लिए हैं।।
दिल उन्होंने यूं संभाला जैसे कोई आइना हो।
आइना तो यार सब ही टूट जाने के लिए हैं।।
जख्म मेरे जो भी दुनिया से मिले है प्यार में वो।
जख्म ये सब यार उनसे ही…
Added by Ketan Parmar on August 31, 2013 at 9:30am — 14 Comments
काल के चूल्हे पर
काठ की हांडी
चढ़ाते हो बार बार .
हर बार नयी हांडी
पहचानते नहीं काल चिन्ह को
सीखते नहीं अतीत से .
दिवस के अवसान पर
खो जाते हो
तमस के…
ContinueAdded by Neeraj Neer on August 31, 2013 at 9:07am — 26 Comments
खट- खट की आवाज सुनकर गली के कुत्ते भौंकने लगे। चोर कुछ देर शांत हो गये। थोड़ी देर बाद फिर से खोदने लगे। कुत्ते फिर भौंकने लगे।
चोरों ने डंडा मारकर कुत्तों को भगाना चाहा, लेकिन कुत्ते निकले निरा ढीठ, वे और तेज भौंकने लगे। लाल मोहन ही क्या अब तो सारा मुहल्ला जाग चुका था । लेकिन किसी ने अपने बिस्तर से उठकर बाहर यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि कुत्ते भौंक क्यों रहे थे ।
सुबह-सुबह पूरे मुहल्ले में यह ख़बर आग बनी थी, लाल मोहन लुट चुका है।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2013 at 8:00am — 20 Comments
रुसवाईयां ही रुसवाईयां
दूर तलक गम की
कोई ख़ुशी नही है अब
चैन कहाँ मिले...
परछाईयां ही परछाईयां
हर वक़्त अतीत की
कोई भोर नही है अब
रोशनी कहाँ मिले...
अंगड़ाईयां ही अंगड़ाईयां
रोज एक थकन की
कोई आराम नही है अब
कहाँ शाम ढले...
तन्हाईयां ही तन्हाईयां
इस अकेलेपन की
कोई साथ नही है अब
जीना है अकेले...
न ख़ुशी न सुकून
न आराम
न साथ किसी का
फिर भी जिए जा रहा हूँ....…
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 31, 2013 at 12:30am — 26 Comments
बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन फा
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छोटे छोटे घर जब हमसे लेता है बाजार
बनता बड़े मकानों का विक्रेता है बाजार
इसका रोना इसका गाना सब कुछ नकली है
ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार
मुर्गी को देता कुछ दाने जिनके बदले में
सारे के सारे अंडे ले लेता है बाजार
कैसे भी हो इसको सिर्फ़ लाभ से मतलब है
जिसको चुनते पूँजीपति वो नेता है बाजार
खून पसीने से अर्जित पैसो के…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 30, 2013 at 7:09pm — 15 Comments
सुहानी सुबह में
खिली थी नन्ही कली
बगिया गुलजार थी
मेरी मौजूदगी से
आने जाने वाले
रोक न पाते खुद को
नाजुक थी कोमल थी
महका करती थी
माली ने सींचा था
खून पसीने से
देखा था सपना
सजोगी कभी आराध्य पर
कभी शहीदों के सीने पर
फूल भी गौरवान्वित थी
अपनी इस कली पर
कर रही थी रक्षा कांटे भी
पते ढक कर सुलाती थी
कली तो अभी कली थी
उसने खुद के लिए कुछ
सोचा भी नहीं था
लापरवाह थी भविष्य से…
Added by shubhra sharma on August 30, 2013 at 5:30pm — 14 Comments
किसने कहा ? आप स्वतंत्र नही हैं
आप तो स्वभाव से स्वतंत्र हैं
और पहले भी थे , सदा से थे ।
जैसे आप स्वतंत्र हैं
हाथ घुमाने के लिये
तब तक , जब तक कि ,
किसी का चेहरा न सामने आये ।
मुश्किल तो यही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 30, 2013 at 3:30pm — 13 Comments
"भाभी कहाँ से लायी हो इतनी सुन्दर दुल्हन ? नजर ना लगे", श्यामला ने घूंघट उठाते ही कहा, "..ऐसा लगे है जैसे कौव्वा जलेबी ले उड़ा.."
दूर बैठी श्यामा ने जैसे ही दबी जबान में कहा, खिलखिलाहट से सारा कमरा गूँज उठा ।
"श्यामा भाभी कभी तो मीठा बोल लिया करो.. मेरा भतीजा कहाँ से कव्वा लगता है तुम्हे ? मेरे घर का कोई शुभ काम तुम्हे सहन नहीं होता तो क्यूँ आती हो ?" श्यामला ने आँखें तरेरते हुए श्यामा को कहा।
मुंह दिखाई का सिलसिला चल ही रहा था कि पड़ोस का नन्हें बदहवास-सा दौड़ता हुआ…
Added by rajesh kumari on August 30, 2013 at 11:30am — 25 Comments
!!! मंदिरों की सीढि़यां !!!
दर्द हृदय मे समेटे
नित उलझती,
आह! भरतीं
मंदिरों की सीढि़यां।
कर्म पग-पग बढ़ रहे जब,
धर्म गिरते ढाल से
आज मन
निश-दिन यहां
तर्क से
अकुला रहा।
घूरते हैं चांद.सूरज,
सांझ भी
दुत्कारती।
अश्रु झरने बन निकलते,
खीझ जंगल दूर तक।
शांत नभ सा
मन व्यथित है,
वायु पल-पल छेड़ती।
भूमि निश्छल
और सत सी
भार समरस ढो रही।
ठग! अडिग
अविचल ठगा सा,
राह…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 9:00am — 18 Comments
तुम मेरी बेटी नही
बल्कि हो बेटा...
इसीलिये मैंने तुम्हें
दूर रक्खा शृंगार मेज से
दूर रक्खा रसोई से
दूर रक्खा झाडू-पोंछे से
दूर रक्खा डर-भय के भाव से
दूर रक्खा बिना अपराध
माफ़ी मांगने की आदतों से
दूर रक्खा दूसरे की आँख से देखने की लत से....
और बार-बार
किसी के भी हुकुम सुन कर
दौड़ पडने की आदत से भी
तुम्हे दूर रक्खा...
बेशक तुम बेधड़क जी…
ContinueAdded by anwar suhail on August 29, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
कविता – प्रेम के स्वप्न
हां , बदल गयी हैं सड़कें मेरे शहर की
मेरा महाविद्यालय भी नहीं रहा उस रूप में
पाठ्य पुस्तकें , पाठ्यक्रम जीवन के
बदल गए हैं सब के सब
कई कई बरस कई कई कोस चलकर
जाने क्यों ठहरा हुआ हूँ मैं
आज भी अपने पुराने शहर
शहर की पुरानी सड़कों पर
उन मोड़ों के छोर पर
बस अड्डे और चाय की दुकानों पर भी
जहां देख पाता था मैं तुम्हारी एक झलक
हाँ , मैंने तुम्हें…
ContinueAdded by Abhinav Arun on August 29, 2013 at 7:43pm — 31 Comments
वो जिसको मालोज़र पैसा बहुत है
हक़ीक़त में वही रोता बहुत है
यक़ी करना ज़रा मुश्किल है तुझपे
तेरा तर्ज़े अदा मीठा बहुत है
वो पहली आरी की ज़द में रहेगा
शजर जो बाग़ में सीधा बहुत है
उसे तो साफगोई की है आदत
बगरना आदमी अच्छा बहुत है
वो कहता है "तुम्हें हम देख लेंगे"
हमारे पास भी रस्ता बहुत है
कभी तू ने हमें अपना कहा था
हमारे वास्ते इतना बहुत है
"मौलिक व…
ContinueAdded by Sushil Thakur on August 29, 2013 at 7:30pm — 12 Comments
राम रम में घोलकर वो
लिख रहे चौपाईयां
कोंपले, कत्थई, गुलाबी
औ हरी पुरवाईयाँ
पा भभूति हो चली हैं
पेट वाली दाईयाँ
खोल मुँह बैठा कमंडल
सुरसरि की आस में
ध्यान भी, करता यजन भी
डामरी उल्लास में
पर सरफिरा हाकिम समझता
खिज्र की रानाईयाँ
चूडि़याँ टुन से टुनककर
छन से पड़ी जिस होम में
बड़ा असर रखता गोसाईं
नीरो के उस रोम में
नरमेध के इस अश्व…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on August 29, 2013 at 2:51pm — 17 Comments
रात के बारह बज रहे थे , रोहित नशे हालत मे घर मे दाखिल हुआ उसकी भी पत्नी साथ मे ही थी । पिता दुर्गा प्रसाद कडक कर बोले – “ ये क्या तरीका है घर मे आने का , कैसे बाप हो तुम जिसको बच्चों का भी ख्याल नहीं । और ये तुम्हारी पत्नी , इसको भी कोई कष्ट नहीं ।” रोहित तमतमा उठा न जाने क्या क्या उनको कह डाला । वे बेटे के पलटवार के लिए तैयार न थे वह भी बहू और बच्चों के सामने । सिर झुकाये सुनते रहे कुछ बोल नहीं पाये । एक वाक्य ही उन्होने अपनी पत्नी से कहा ,” हमारी परवरिश मे खोट है । ” वे कमरे मे जाकर…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 29, 2013 at 12:34pm — 24 Comments
जिसके संग निडर
गुजर जाती है मेरी रात
सबकी नज़रों से दूर...
मैं धरा,
हर पल नयी
नए स्वप्नों को जन्म देती
मुहब्बत के नशे में... ‘धुत्त’
चलो,
फिर से उसकी बात करें
वह मेरी किताब है
उसका एक-एक पन्ना
मेरी जुबान पर
उसे पढने की
मेरी प्यास का
कोई अंत नहीं
फिर से कहो न
क्या… कहा...चाँद… क्या..?
(मौलिक व…
ContinueAdded by Vasundhara pandey on August 29, 2013 at 11:00am — 16 Comments
कृति मौलिक न होने के कारण प्रबंधन स्तर से हटा दी गई है |
एडमिन
2013083107
Added by Neeraj Nishchal on August 29, 2013 at 10:00am — 16 Comments
!!! कुण्डलियां !!!
पत्थर जन मन धन चुने, जाति-पाति के संग।
इनके माथे पर लिखा, कामी-मत्सर-जंग।।
कामी - मत्सर - जंग, द्वेष का भाव बढ़ाते।
ढाई आखर छोड़, धर्म पर रार मचाते।।
निश-दिन करे कुकर्म, आड़ हो जन्तर-मन्तर।
बने स्वयंभू राम, कर्म का डूबे पत्थर।।
के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 29, 2013 at 8:36am — 21 Comments
वंशीधर का मोहना, राधा-मुद्रा मस्त ।
नाचे नौ मन तेल बिन, किन्तु नागरिक त्रस्त ।
किन्तु नागरिक त्रस्त, मगन मन मोहन चुप्पा ।
पाई रहा बटोर, धकेले लेकिन कुप्पा ।
बीते बाइस साल, हुई मुद्रा विध्वंशी ।
चोरों की बारात, बजाये रविकर वंशी ॥
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on August 29, 2013 at 8:30am — 12 Comments
कुण्डलिया छंद
गोविंदा की टोलियाँ, निकल पड़ी चहुँ ओर।
दधि माखन की खोज में, बनकर माखन चोर।।
बनकर माखन चोर, करें लीला बहु न्यारी।
फोड़ें मटकी श्याम, बचाओ गगरी प्यारी।।…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on August 28, 2013 at 10:30pm — 14 Comments
शिशु रूप में प्रकट हुए तुम,
अंधकारमयी कारा गृह में,
दिव्यज्योति से हुए प्रदीपित,
अतिशय मोहक अतिशय शोभित,
अर्धरात्रि को पूर्ण चन्द्र से
जग को शीतल करने वाले
संतापों को हरने वाले,
अवतरित हुए तुम, अंतर्यामी!
हे कृष्ण बनू तेरा अनुगामी!
किन्तु देवकी के ललाट पर,
कृष्ण! तुम्हे खोने का था डर,
तब तेरे ही दिव्य तेज से
चेतनाशून्य हुए सब प्रहरी,
चट चट टूट गयी सब बेडी
मानो बजती हो रण भेरी,
धर कर तुम्हे शीश पर…
Added by Aditya Kumar on August 28, 2013 at 9:00pm — 17 Comments
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