बरामदे की सीढ़ियाँ देख , कजरी नीचे खड़ी हो गई , संकोच वश उसके कदम ऊपर बढ़ ही नहीं रहे थे ॥ लाली ने उसको पुकारा -'आओ ना , वहाँ क्यों खड़ी हो ? कजरी सकुचाते हुये बोली -' का है कि हम छोट जात है न , और हंम लोगन का बड़े लोगन के घर की चौखट के भीतर नहीं जाना होत है अइसा हमारी माई कहे रही !!' लाली ने उसका हाथ पकड़ा और ऊपर खींच लिया , ' चलो भी !! ' अंदर पहुँच कर बड़ी सी हवेली देख कजरी की अंखे चौंधिया गई । ' लागे है बहुत बड़े लोग हैं ' मन मे सोचा उसने । धीरे धीरे अंदर बढ़ती गई एक कमरे का किवाड़ थोड़ा खुला…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 6, 2014 at 6:30pm — 11 Comments
२१२२/ २१२२/२१२२/२१२
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जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,
ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.
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ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.
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अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.
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शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:25pm — 27 Comments
पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चैखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।
लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।
पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा…
Added by Sulabh Agnihotri on September 6, 2014 at 5:11pm — 8 Comments
1222 1222
बुजुर्गों की कमाई में
थी बरकत पाई पाई में
न दुख है ना परेशानी
ख़ुदा से आशनाई में
दिवारों को बना दे घर
हुनर है वो लुगाई में
जहां में पाठ निकले झूठ
थे शामिल जो पढ़ाई में
हम आके शहर पछताए
लुटे हम तो दवाई में
रहे ना जिस्मो जां साबुत
उसूलों की लड़ाई में
ज़मी ज़र जोरू की खातिर
दिवारें भाई भाई में
तू भी गुमनाम दूरी रख
मिले ना कुछ भलाई में
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on September 6, 2014 at 4:27pm — 7 Comments
भाईचारा बढ़े संग हम सब त्योहार मनायें।
इक ही घर परिवार शहर के हैं सबको अपनायें।
क्यूँ आतंक घृणा बर्बरता गली गली फैली है।
क्यों बरपाती कहर फज़ा यह तो यहाँ बढ़ी पली है।
पैठी हुईं जड़ें गहरी संस्कृति की युगों युगों से,
आयें कभी भी जलजले यह कभी नहीं बदली है।
भूले भटके मिलें राह में, उनको राह बतायें।
भाईचारा बढ़े---------------
दामन ना छूटे सच का ना लालच लूटे घर को।
हिंसा मज़हब के दम जेहादी बन शहर शहर…
ContinueAdded by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 6, 2014 at 12:23pm — 2 Comments
पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?
हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?
चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,
सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?
हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,
आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?
गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे,
वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?
भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,
चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?
दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को
रोच परचम झूठ का…
Added by Neeraj Neer on September 6, 2014 at 11:48am — 16 Comments
छै दोहे – गिरिराज भंडारी
********************
भाव शिल्प में आ सके , बस उतना ही बोल
मन का दरवाज़ा अभी , मत पूरा तू खोल
यदि कोशिश निर्बाध हो, सध जाता है छंद
घबरा मत , शर्मा नहीं, गलती से मति मंद
गेय बनाना है अगर , छंद , कलों को जान
और रचेगा छंद जब , कल का रखना मान
शिल्प ज्ञान को पूर्ण कर , याद रहे गुरु पाठ
इंसा होके काम तू , मत करना ज्यों काठ
चाहे बातें हों कठिन , रखना भाषा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 6, 2014 at 8:30am — 10 Comments
चार पांच किक के बाद किसी तरह स्कूटर स्टार्ट हुई मास्साहब की | पसीना पोंछते हुए जैसे ही बैठने को हुए कि एक गाड़ी आकर रुकी | गाड़ी से उतरकर उस नौजवान ने मास्साहब के पैर छुए और एक पैकेट उन्हें देने लगा |
वो अभी सोच ही रहे थे कि नौजवान बोला " सर , आपकी शिक्षा का ही सुपरिणाम है कि आज मैं कुछ बन पाया हूँ , आज के दिन इंकार मत करिये " | मास्साहब ने पलट कर एक नज़र दरवाजे पर खड़ी अपनी पत्नी की तरफ देखा और विनम्रता से पैकेट लौटाते हुए बोले " तुम्हारे आदर से बड़ी भेंट कुछ और नहीं हो सकती , जीवन में और…
Added by विनय कुमार on September 6, 2014 at 12:27am — 6 Comments
चाँद बढ़ता रहा...... चाँद घटता रहा.
यूँ कलेजा हमारा ........धड़कता रहा.
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उलझने रात सी ....क्यों पसरती रहीं.
वो दरम्याँ बदलियों .... भटकता रहा.
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टिमटिमाता सितारा रहा... भोर तक.
शब सरे आसमा को.... खटकता रहा.
--
उस हवेली पे जलता था... कोई दिया
बन पतंगा सा उस पे.... फटकता रहा.…
Added by harivallabh sharma on September 5, 2014 at 8:30pm — 21 Comments
विधान : 7 सगण + 1 एक रगण (कुल 24 वर्ण )
घन राति अमावस पावस की तम तोम म बैठि गुजारा करूँ I
गुनिकै मन मे रतनाकर के जल नील क नक्श उतारा करूँ I
सुषमा नभ की अवलोकि सदा मन में यहु भाव विचारा करूँ I
जग माहि रचा व बसा प्रभु का वह रूप अनूप निहारा करूँ I
* * *
करि सम्पुट नैन भली विधि सों, प्रभु को धरि ध्यान निहारा करूँ I
कछु भक्ति करूँ, कछु ध्यान धरूँ,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 5, 2014 at 8:00pm — 19 Comments
देवों से हमको मिला, संस्कृत का उपहार।
देवनागरी तब बनी, संस्कृति का आधार।
युग पुरुषों ने तो रचे, हिन्दी में बहु छंद।
पर नवयुग की पौध ने, किए कोश सब बंद।
वेद ऋचाओं का नहीं, हुआ उचित सम्मान।
हिन्द पुत्र भूले सभी, हिन्दी का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 5, 2014 at 6:30pm — 8 Comments
“हेप्पी टीचर्स डे”(संस्मरण)
सन १९८६ में विशाखापत्तनम नेवल पब्लिक स्कूल में शिक्षण काल के दौरान का ये वाकया.... छठी कक्षा का सबसे शरारती छात्र आये दिन कोई न कोई शरारत करना और ढेर सारी डांट खाना|होम वर्क कभी पूरा करके ना लाना क्लास में दूसरे पढ़ते हुए छात्रों को भी डिस्टर्ब करना मानो उसकी आदत ही बन गई थी|बहुत बार दंड देकर दुःख भी होता था,किन्तु वो था कि सुधरने का नाम ही नहीं लेता था|माँ बाप भी आकर मुझे बोलते थे की मैडम आप ही इसे सुधार सकती हो|उस दिन तो हद ही हो गई जब वो मेरी हिदायतों…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 5, 2014 at 11:52am — 14 Comments
शिक्षक यदि तुम गुरु बन जाते
कोटि-कोटि छात्रो के मस्तक चरणों में झुक जाते I
तुम ही अपना गौरव भूले
लोभ -मोह झूले पर झूले
व्यर्थ दंभ पर फिरते फूले
थोडा सा पछताते I
धर्म तूम्ही ने अपना छोड़ा
अध्यापन से मुखड़ा मोड़ा
राजनीति से नाता जोड़ा
तब भी न शरमाते I
कितनी धवल तुम्हारी काया
तुमने उस पर मैल चढ़ाया
शिक्षा को व्यवसाय बनाया
फिरते हो इतराते I
पद्धति की भी बलिहारी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 5, 2014 at 10:29am — 12 Comments
सबकुछ जाने सबकुछ समझे
पागल ये फिर भी धुन है
औचक टूट गए सपनों की
उचटी आँखों की धुन है |
इस धुन की ना जीभ सलामत
ना इस धुन के होठ सलामत
लँगड़े, बहरे, अंधे मन की
व्याकुल ये कैसी धुन है |
खेल-खिलौने टूटे-फूटे
भरे पोटली चिथड़े-पुथड़े
अत्तल-पत्तल बाँह दबाए
खोले-बाँधे की धुन है |
क्या खोया-पाना, ना पाना
अता-पता न कोई ठिकाना
भरे शहर की अटरी-पटरी
पर…
ContinueAdded by Santlal Karun on September 4, 2014 at 8:12pm — 27 Comments
चाहें पिया का हो घर परदेश में, पीहर तो मेरा है, तेरा घर कृष्णा !!
मोहब्बत का पहला पयाम कृष्णा, उगता हुआ सा जैसे चाँद कृष्णा !
बिन तेरे महफ़िलों में नूर नहीं है, मोहब्बत का तुझे है सलाम कृष्णा !!
सर पे रखा हो जैसे दस्ते खुदा, मंजिल-ए-इश्क है राधेनाम कृष्णा !
मुझे तो नदिया की धार सा लगे, जैसे रिश्तों का घुला जाम कृष्णा !!
मुझे मिल जाए बस तेरी दुआ, तू है सबकी निगाहों का प्यार कृष्णा !
माँ का दुलार, पिता का प्यार सा लगे, मेरे लिए तो भाई का दुलार कृष्णा !!…
Added by sunita dohare on September 4, 2014 at 7:00pm — 12 Comments
आज पूरे दो वर्ष बाद बेटा घर आया था, माँ कि पथराई आँखों में जैसे खुशियों का शैलाब उमड़ पड़ा हो। रमेश अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। शादी होने के बाद पत्नी को लेकर शहर में ही रहने लगा था। घर पर पैसा बराबर भेजता रहता था, पर पैसो में वो आत्मसुख कहा जो अपने आँख के तारे के पास होने में है। दो दिन किसी तरह रहने के बाद ही वह वापस जाने की जिद करने लगा। नौकरी छोड़ के आया हूँ, बीबी अकेली है, छुट्टी कम ही मिली है, फिर जल्दी ही आ जाऊँगा, तमाम बहाने बनाने लगा। माँ बाप भी बेबस थें, बेचारे क्या करतें,…
ContinueAdded by Pawan Kumar on September 4, 2014 at 5:00pm — 13 Comments
२१२२/११२२/22 (११२)
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यूँ वफ़ाओं का सिला मिलता रहा,
ज़ख्म हर बार नया मिलता रहा.
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एक छोटी सी मुहब्बत का गुनाह,
और इल्ज़ाम बड़ा मिलता रहा.
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मै तुझे दोस्त मेरा कैसे कहूँ,
तू भी तो बन के ख़ुदा मिलता रहा..
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कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ मंज़िल का पता मिलता रहा.
.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on September 4, 2014 at 4:30pm — 27 Comments
1-
मोबाइल की क्रांति से, सम्मोहित जग आज।
वैसी ही इक क्रांति की, बहुत जरूरत आज।
बहुत जरूरत आज, देश समवेत खिलेगा।
कितनी है परवाज, तभी संकेत मिलेगा।
आए वैसा दौर, अब हिन्दी की क्रांति से।
आया जैसे दौर, मोबाइल की क्रांति से।…
ContinueAdded by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 4, 2014 at 3:00pm — No Comments
समस्त गुरुओं को सादर प्रणाम के साथ
2122 2122 2122 22/112
रास्ता रब का हमें जिसने दिखाया यारों
कह गुरु उसको है सर हमने झुकाया यारों
ज्ञान दीपक से किया जिसने जहाँ को रोशन
फन भी जीने का हमें उसने सिखाया यारों
भेद मजहब में कभी उसने किया ही है नहीं
पाठ उल्फत का ही कौमों को पढ़ाया यारों
नाम चाहे हो जुदा सब का है मालिक इक ही
गूढ़ बातों को सहज उसने बताया यारों
हाथ अन्दर से…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 4, 2014 at 12:46pm — 12 Comments
1-मेरी अधूरी कहानी
बस इतनी सी है,
मैं ढूढता रहा
वो मिला ही नही।
2-बंद आँखों से
सिर्फ वो नजर आता है,
एकदम खुशनुमा,
सुबह की पहली किरण की तरह।
3-प्यार में उससे,
सबकुछ मिला,
सिर्फ
प्यार के सिवा।
4-तुम्हे
याद करना,
पास होने जैसा ही तो है,
फर्क बस इतना है कि,
यादों में तुम साथ होते हो,
और पास होने पर दूरी बनी रहती है।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Pawan Kumar on September 4, 2014 at 11:00am — 1 Comment
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