For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ? // --सौरभ

२१२२  १२१२  २२

इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"

घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ?

गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?

अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !

मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !

अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?

चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ?
****************
-सौरभ
****************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1291

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 2, 2014 at 1:44am
बेहतरीन शानदार। गज़ब के शेर। सीधे सीधे दिल में उतर गई ये ग़ज़ल। क्या बात है। वाह।
Comment by भुवन निस्तेज on December 1, 2014 at 2:11pm

बहुत ही बेमिशाल शेअर कहे है आदरणीय...

//इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ? 
 पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"// अब कोई निर्झर से गतिमान होने की सीख दे बैठे तो करे क्या... 

 //घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर 
 हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ? // सुन्दर...!

 //गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ? 
 बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?// अब परबत अपनी उंचाई पर कब इतराता है साहब...? 

 //अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
 टाट लगने लगा है मखमल क्या !// नींद साहब, चैन की नींद ! 

 //मित्रता है अगर सरोवर से 
 छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !// वाह ! दोस्ती में जग की सोचोगे तो कैसे होगा ? क्या खूब...  

 //अब नये-से-नये ठिकाने हैं.. 
 राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?// वाह साहब, "हम ख़ाक नशीनों की ठोकर में जमाना है.." कहीं भी जाएँ, राजधानी के दिलफ़रेब बाज़ारों में या चम्बलों के बीहड़ों में... 

 //चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
 बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ?// अरे वह ये हुई न विव्हलता की पराकाष्ठा !...

नमन आपकी लेखनी को और आपको...

Comment by Ajay Agyat on November 30, 2014 at 5:18pm

अति उत्तम 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 27, 2014 at 7:16pm

आदरणीय पाण्डेय साहब, सादर अभिवादन!

शब्द और शिल्प के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, भाव अनुपम हैं, सभी पंक्तियाँ अनमोल हैं, फिर भी रुकता हूँ, कहीं तो वह है - 

अब नये-से-नये ठिकाने हैं.. 
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?  सादर अभिनन्दन!

Comment by Meena Pathak on November 25, 2014 at 4:49pm

चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ? .............सादर बधाई 

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on November 24, 2014 at 2:18pm

BEHATREEN PESHKASH -BADHAEE MITRA


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 24, 2014 at 5:41am

आदरणीय सौरभ भाई , पूरी ग़ज़ल बे मिसाल है , कुछ शे र पर वाह वाह रुक ही नही रहे जो निम्न हैं -

गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?

अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !

मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !

अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ? ---बहुत बहुत बधाइयाँ स्वीकार करें  , चंबल वाले शे र के लिये और अलग से बधाई !

Comment by khursheed khairadi on November 11, 2014 at 9:16am

आदरणीय सौरभ साहब सभी अशहार लासानी हुये हैं

अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या ! 

इस शेर में उपालंभ और व्यंजना चरम पर है |

गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ? 
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ? 

वा..ह क्या कहन है ,मजा आ गया |बहुत बहुत बधाई |

सादर अभिनन्दन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 31, 2014 at 11:56am

रचना पर समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद, अनुज पवन भाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 31, 2014 at 11:53am

आदरणीय योगराजभाईसाहब, इस प्रस्तुति पर इस गहराई से बातचीत के लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ. आपने जिस आत्मीयता से मेरी इस ग़ज़ल को, विशेषकर इस शेर को, स्वीकार किया है, वह इस मंच की विशिष्टता क ही सूचक है जहाँ टिप्पणियाँ मात्र वाह-वाह करती हुई न हो कर कार्यशाला का रूप हुआ करती हैं.

उक्त शेर में ’अव्वल’ की जगह ’पल-पल’ एक अत्यंत समीचीन सुझाव है. मैं इस कारण भी अतिरेक में हूँ कि यही शब्द मैंने काफ़िया के तौर पर पहले रखा था. लेकिन इसे प्रयुक्त नहीं कर पाया. और मैं ’अव्वल’ शब्द का प्रयोग किया. क्यों कि मुझे ये बताया गया है कि ग़ज़लों में गीत या गेय-कविताओं की तरह अलंकार आदि, विशेष कर अनुप्रास आदि, को अच्छा नहीं माना जाता. इसी मंच पर, एक अरसा हुआ, किसी तरही-आयोजन में मेरी एक ग़ज़ल का ऐसा शेर हुआ था, जिसमें ’ख’ अक्षर से शुरु होने वाले शब्दों की आवृति थी. इस पर उस्तादी प्रतिक्रिया आयी थी जिसका आशय यह था कि हिन्दी की कविताओं या छान्दसिक रचनाओं में जहाँ अलंकार (अनुप्रास आदि) रचना की खूबसूरती और विशेषता हुआ करते हैं, वहीं ग़ज़लों में ये दोष माने जाते हैं और ग़ज़ल की खूबसूरती को ये ख़राब कर देते हैं.
इसी तथ्य के कारण मैंने ’पल-पल’ को काफ़िया के तौर पर नहीं लिया. कि, मिसरा-ए-उला का ’तिल-तिल’ सानी के ’पल-पल’ के साथ मिल कर अंत्यानुप्रास का कारण बन रहा है.

आपका सुझाव, आदरणीय, ग़ज़ल विधा से सम्बन्धित उन तथ्यों पर चर्चा करने के लिए ऐसे विन्दु उपलब्ध करा रहा है जो आने वाले समय में हिन्दी ग़ज़लों (ऐसा मैं मात्र भाषायी तौर पर कह रहा हूँ) की दिशा को तय करेंगे.

सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ की नहीं धरा कोई तुलना है  माँ तो माँ है, देवी होती है ! माँ जननी है सब कुछ देती…"
1 hour ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका,…"
2 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय, दयावान मेठानी , गीत,  आपकी रचना नहीं हो पाई, किन्तु माँ के प्रति आपके सुन्दर भाव जरूर…"
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय दयाराम मैठानी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।"
7 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय दयाराम मैठानी जी प्रदत्त विषय पर आपने बहुत सुंदर रचना प्रस्तुत की है। इस प्रस्तुति हेतु…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, अति सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।"
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"गीत ____ सर्वप्रथम सिरजन अनुक्रम में, संसृति ने पृथ्वी पुष्पित की। रचना अनुपम,  धन्य धरा…"
13 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सौरभ पांडेय जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
16 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"वाह !  आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त विषय पर आपने भावभीनी रचना प्रस्तुत की है.  हार्दिक बधाई…"
16 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ पर गीत जग में माँ से बढ़ कर प्यारा कोई नाम नही। उसकी सेवा जैसा जग में कोई काम नहीं। माँ की…"
19 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय धर्मेन्द्र भाई, आपसे एक अरसे बाद संवाद की दशा बन रही है. इसकी अपार खुशी तो है ही, आपके…"
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

शोक-संदेश (कविता)

अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि आज हमारे बीच वह नहीं रहे जिन्हें…See More
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service