ये ज़िंदगी ....
ज़िंदगी हर कदम पर रंग बदलती है
कभी लहरों सी मचलती है
कभी गीली रेत पे चलती है
कभी उसके दामन में
कहकहों का शोर होता है
कभी निगाहों से बरसात होती है
संग मौसम के
फ़िज़ाएं भी रंग बदलती हैं
कभी सुख की हवाएँ चलती हैं
कभी हवाएँ दुःख में आहें भरती हैं
बड़ी अजीब है ज़िंदगी की हकीकत
जितना समझते हैं
उतनी उलझती जाती है
अन्ततः थक कर
स्वयं को शून्यता में विलीन कर देती है
न जाने कब
ज़हन में यादों का…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2015 at 8:10pm — 2 Comments
बह्र 212 212 212 212
टूट के कर गया आशियां दर ब दर
घूमते फिर रहे हम यहां दर ब दर
आ गये लौट कर अक्ल वाले सभी
पर जुनूं में हुए लामकां दर ब दर
कमसिनी छोड़कर अब महकने लगे
जख्म मेरे हुए बेकरां दर ब दर
खाल में भेड़ की भेडि़ये घुस गये
मर गये मेमने बकरियां दर ब दर
हो सकी क्या हमें खुद हमारी सनद
फिर रहा आदमी बेनिशां दर ब दर
हम कहां से चले थे कहां आ गये
कर…
ContinueAdded by Ravi Shukla on July 29, 2015 at 6:00pm — 10 Comments
आंखों में आंसू हैं, और गीत ख़ुशी के गा रहा हूं!
कुछ नहीं यारों, मैं तो बस दुनियादारी निभा रहा हूं!!
कुछ अपनों ने लूटा हमको,
कुछ गैरों ने सताया..
मौका मिला जिसे भी, उसने
जी-भर हमें रुलाया..
सबपे किया भरोसा, उसकी क़ीमत चुका रहा हूं!
नित सांझ ढले यादों की,
बारात जब आती है..
भर रहे ज़ख्मों को,
फिर से कुरेद जाती है..
मैं दिल के घाव पे तो, मरहम लगा रहा हूं!
उजड़ गया वो…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on July 29, 2015 at 12:47pm — 3 Comments
Added by S.S Dipu on July 29, 2015 at 9:20am — 7 Comments
“मम्मा मेरे लिए ब्रेकफास्ट में केवल फ्रूट सलाद बनाना.”
“आज फ्रूट्स नहीं है... कुछ और बना दूं ?”
“नहीं” - परी ने मना कर दिया क्योकिं पार्टी में हैवी डाईट के कारण ब्रेकफास्ट लाईट करना चाहती थी. तभी बेडरूम से पापा बाहर आये. अपनी इकलौती बेटी को देर रात से घर आने के लिए समझाते रहें और मॉर्निंग-वाक के लिए निकल गए.
“मम्मा... ये पापा सुबह-सुबह चालू हो जाते है, ये करो, ये मत करो.... ये लेट नाईट पार्टीज हमारा कल्चर नहीं है. ब्ला ब्ला ब्ला.......”
“तुम्हारी केयर करते है पापा, इसलिए…
Added by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 2:58am — 23 Comments
खिजाँ आयी है किस्मत में बहारों का भी दम निकले,
जहाँ ढूँढू मैं अरमां को , वहां अरमां भी कम निकले |
हजारों गम मेरे दिल में न मुझको राख ये कर दें ,
कहीं इन सुर्ख आँखों से नदी बन के न हम निकले |
तुम्हें लिख-लिख के ख़त अक्सर कभी मैं भूल जाता था,
पुराने ख़त दराजों से जो निकले आज, नम निकले |
किसी की जुस्तजू करके कि खुद को खो चुका हूँ मैं,
उधर से बेरुखी उनकी इधर दुनिया से हम निकले |
जगह छोड़ी है जख्मों ने कहाँ अब 'हर्ष' सीने में,…
Added by Harash Mahajan on July 28, 2015 at 7:00pm — 4 Comments
खूब सूरत है नज़ारे क्या करें
गुरबतों के लोग मारे क्या करें
सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर
नींद जो उनको पुकारे क्या करें
साल मे इक माह मिलती छुट्टियां
चॉंद को गर ना निहारे क्या…
ContinueAdded by Ravi Shukla on July 28, 2015 at 5:30pm — 9 Comments
बर्न वार्ड के बाहर भैंसे पर सवार यमराज खड़े थे
" प्रभु क्या सोच रहे हैं ? जल्दी प्राण हरिये और चलिए I आप तो मेरे ऊपर सवार घंटे भर से उस स्त्री को देखे जा रहे हैं,मेरी पीठ की दशा का भी कुछ ध्यान है ?"
"इस पुरुष ने अपनी पत्नी को जलाने का प्रयास किया और स्वयं जल गया I और ये स्त्री ,अपने सारे गहने बेच कर इसका इलाज करवा रही है, देखो कैसे बदहवास बाहर खड़ी रोये जा रही है Iमैं सोच रहा हूँ पुत्र ..............."
"कि इसके प्राण छोड़ दूं .,यही ना प्रभु ?और ये पुरुष ठीक होकर फिर से…
ContinueAdded by pratibha pande on July 28, 2015 at 9:30am — 22 Comments
"अमर! गाडी पंडितजी के घर के आगे लगाकर जरा उन्हे तनिक बाहर बुला लाओ।" सेठ जी ने अपने ड्राईवर को आज्ञा दी।......
कुछ ही क्षण बाद अमर के पीछे पंडितजी बाहर आते नजर आये। "सेठजी राधे राधे। मैं गीता पाठ कर रहा था आप के आने की बात सुन पाठ छोड़ चला आया, कहिये कैसे याद किया आपने?"
"राधे राधे पंडितजी।" सेठजी मुस्कराने लगे। "कुछ खास नही, आप के लिये कुछ वस्त्र लिये थे सोचा गुजरते हुये देता चलूँ।"
पंडितजी से 'आयुष्मान भव:' का आशिर्वाद पा सेठजी की गाडी आगे चल पड़ी। अमर 'बैक मिरर' में सेठजी…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on July 28, 2015 at 8:00am — 13 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 27, 2015 at 10:30pm — 11 Comments
एक पहाड़ी स्त्री का दर्द
मेरे और उनके बीच
एक पारदर्शी दीवार खड़ी है.
वे हँसती, ठिठोली करती
कभी बुरांश की लाली को छेड़ती
चाय के बागानों में उछलती कूदती
मुझे बुलाती हैं –
मैं पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती हूँ.
जब काले-सफेद बादलों के हुजूम
आसमान से उतरते, वादियों से चढ़ते
उन्हें घेर लेते,
वे ओझल हो जाती हैं और,
मैं प्यासी, बोझिल ह्र्दय ले
पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती…
Added by sharadindu mukerji on July 27, 2015 at 9:30pm — 9 Comments
212 212 212 212
छन के रौजन से आती हुई रौशनी
ख़्वाब के कण उड़ाती हुई रौशनी
तीरगी से गुज़रती हुई फ़र्श पर
डर के पैकर बनाती हुई रौशनी
मैं किसी के तसव्वुर में खोया था और
आई दिल को जलाती हुई रौशनी
रात भर का जगा ग़म से बेज़ार दिल
और मुझको सताती हुई रौशनी
इस तग़ाफ़ुल से नाशाद हो मुझसे वो
रुठ के दूर जाती हुई रौशनी
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 9:01pm — 6 Comments
Added by Manan Kumar singh on July 27, 2015 at 12:30pm — 4 Comments
“ये देखो विज्ञान आज कितनी तरक्की कर रहा है कितनी अद्दभुत मशीन बना डाली, पुरुष भी महसूस करके देख सकते हैं अब प्रसव वेदना को|" टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में हेडिंग Chinese men get a taste of labor pain with a machine को पढ़ते हुए प्रोफ़ेसर बक्शी अपनी पत्नी से अचानक बोल उठे
”पापा क्या कभी कोई ऐसी मशीन भी बन पाएगी जो रेप के दर्द को भी पुरुष महसूस कर सकें” थोड़ी दूरी पर बैठी बेटी के अचानक इस प्रश्न ने पापा को अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया बेटी के सिर पर…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 27, 2015 at 10:00am — 26 Comments
2122 / 2122 / 2122 / 212 (इस्लाही ग़ज़ल) |
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बेबसी को याख़ुदा मुझ नातवाँ से दूर रख |
या तो ऐसा कर मुझे मुश्किल जहाँ से दूर रख |
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उस परीवश को घड़ी भर आज जाँ से… |
Added by मिथिलेश वामनकर on July 26, 2015 at 11:58pm — 37 Comments
Added by Samar kabeer on July 26, 2015 at 11:34pm — 16 Comments
Added by shashi bansal goyal on July 26, 2015 at 10:31pm — 8 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 26, 2015 at 9:52pm — 12 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on July 26, 2015 at 9:30pm — 12 Comments
है काम बहुत कुछ करने को, यूँ हमने कब आराम किया दिन न देखा रात न देखी बस जीवन भर काम किया
मज़दूर हूँ मै, मजबूर हूँ मै, हर हाल में मैंने काम किया फिर भी सबने मेरे आगे, दर्द का कड़वा जाम किया
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Added by नादिर ख़ान on July 26, 2015 at 4:30pm — 7 Comments
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