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ग़ज़ल ,,,,,,,,, गुमनाम पिथौरागढ़ी ,,,,,,,

२१२२  २१२२  २१२२  २१२

भेड़िये यूँ घूमते हैं झोपड़ी के सामने

डालते वहशी नज़र सब छोकरी के सामने

जेब खाली देखकर ये रेजगारी कह उठी

जेब खाली मत दिखाना तुम किसी के सामने

पेट बच्चा भर ना पाता बूढ़े से माँ बाप का

रोज मजमा जो लगाता घर गली के सामने

इस नशे में देखिये तो घर उजाड़े हैं बहुत

ये नशा दीवार है घर की ख़ुशी के सामने

शाम से ही सज रही मजबूर सी ये लडकियाँ

ज़ख्म ढक के आ गयीं हैं अब सभी के…

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Added by gumnaam pithoragarhi on August 30, 2015 at 8:37am — 7 Comments

ग़ज़ल:गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं (भुवन निस्तेज)

है खोया क्या  किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,

गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।

 

सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,

सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।

 

उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,

वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।

 

कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,

दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।

 

यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,

जो अब तक खो दिया है…

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Added by भुवन निस्तेज on August 30, 2015 at 8:30am — 14 Comments

चेहरा / लघुकथा / कान्ता राॅय

आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।



लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।



करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।

चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।

लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी… Continue

Added by kanta roy on August 30, 2015 at 6:33am — 24 Comments

आज फिर इक सुहागन अभागन हुई

आवरण छोड़ कर तुम चले तो गये, आभरण आज उसका उतारा गया।

आज फिर इक सुहागन अभागन हुई, उसका सिन्दूर धुल के बहाया गया।।  

मयकदे से तुम्हारी लगन क्या लगी, देख ले ना गृहस्थी अगन में जली।

आचरण के असर से भले तुम गये, एक दुल्हन को बेवा बनाया गया।।  

कल्पना से परे चेतना से परे, जाने संसार में कौन से तुम गये।

हे भ्रमर किस सफर पर चले तुम गये, रंग तेरे सुमन का मिटाया गया।।  

कितने संताप आँखों के रस्ते बहे, कितने सपने सुलग कर भशम हो…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2015 at 11:58pm — 7 Comments

कोण तलाशते लोग

तुम गोलाई में तलाशते हो कोण

सीधी सरल रेखा को बदल देते हो

त्रिकोण में

हर बात में तुम तलाशते हो

अपना ही एक कोण

तुम्हें सुविधा होती है

एक कोण पकड़कर

अपनी बात कहने में

बिन कोण के तुम

भीड़ के भंवर में

उतरना नहीं चाहते

तुम्हें या तो तैरना नहीं आता

या तुम आलसी हो

स्वार्थी और सुविधा भोगी भी

तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है

इस इस देश में गढ़ डाले है

तुमने हजारो लाखों कोण

हर कोण से तुम दागते हो तीर

ह्रदय को…

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Added by Neeraj Neer on August 29, 2015 at 11:14am — 12 Comments

दोहा गीत - रक्षा बंधन पर्व में,

दोहा गीत -

रक्षा बंधन पर्व में,

दुनिया भर का प्यार

 

ऐसा पावन पर्व यह, है भारत की शान

सम्बन्धों की डोर का, बढे खूब सम्मान |

राखी धागे में बँधी, रक्षा की पतवार

बहन लुटाती भ्रात पर, दुनिया भर का प्यार

 

राखी धागा प्रेम का, बहना देती मान,

आत्महीन भाई वही दे न सके सम्मान |

रिश्ते ही परिवार में, जीने का आधार

भाई के उपहार में, दुनिया भर का प्यार

 

रक्षा बंधन पर्व में, छुपी खूब यह प्रीत

सबसे ऊपर…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 29, 2015 at 10:30am — 10 Comments

सुनो भैया !

 

सुनो भैया !

कहीं मन नहीं लगता

जिधर देखती हूँ

तुम ही दिखाई देते हो

कभी आँगन में

माँ के साथ बैठे हुए, कभी

द्वार पर माँ के साथ

मन की बात करते हुए



मै जब भी आती थी

माँ के साथ-साथ तुम्हारे चेहरे पर भी

चमक आ जाती थी

माँ के आँचल की छाँव में

हम दोनों बचपन की यादें

याद कर खुश होते

और माँ भी युवा हो जाती थी   

दिन कैसे बीत जाते पता ही नहीं चलता



अब वही घर है वही आँगन

पर ना तुम हो ना माँ…

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Added by Meena Pathak on August 29, 2015 at 9:30am — 4 Comments

ग़ज़ल :- अपनी बहना के नाम एक ग़ज़ल

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन


अपनी बहना के नाम एक ग़ज़ल
मेरी चाहत का है ये चेक ग़ज़ल

पाक जज़्बात इसमें शामिल हैं
इसलिये कह रहा हूँ नेक ग़ज़ल

एक शाइर की दोनों औलादें
एक व्हाइट है इक ब्लेक ग़ज़ल

इसके जादू से कौन बच पाया
सबके दिल पर करे अटेक ग़ज़ल

ग़म के मारों को मिल रहा है सुकूँ
दर्द पर कर रही है सेक ग़ज़ल

है गुज़ारिश, "समर" सुनाओ हमें
डायरी में करो न पेक ग़ज़ल

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by Samar kabeer on August 28, 2015 at 10:46pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मुम्बईया मजाहिया ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---1222-1222

 

सटक ले तू अभी मामू किधर खैरात करने का

नहीं है बाटली फिर क्या इधर कू रात करने का

 

पुअर है पण नहीं वाजिब उसे अब चोर बोले तुम…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 8:30pm — 32 Comments

भाई (कविता)

भावना के वेग से प्रेम के वाशीभूत हो
नैनो को करके सजल वो रात की रानी सी बहना ।
राम की मूरत निहारे कहे चाहिए भाई सा गहना
मन निकले कुछ स्वर तो बोले खुद ही बोल
मेरे आज से बस राम तेरे उन्ही को तू भाई कहना ।
मांगती हूँ एक वचन बांधकर रेशम की डोरउ
शाम हो या हो सवेरा जेठ की तपती दोपहरी
या शर्द रात्री का हो पहरा
जाऊ जिस भी मोड़ से में जिंदगी के हर मोड़
पर भाई मेरे संग संग ही रहना ।


मौलिक एवम् अप्रकाशित ।

Added by Rajan Sharma on August 28, 2015 at 5:00pm — 2 Comments

चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह (मज़ाहिया ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

 

चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह

मैं समझने लग गया ख़ुद को ग़ज़ल का बादशाह

 

एक चेले की जुबाँ दी काट मैंने इसलिए

बात मेरी काटने का कर दिया उसने गुनाह

 

बात क्या है, क्यूँ है, कैसे है मुझे मतलब नहीं

मंच पर पहुँचूँ तो फिर मैं बोलता धाराप्रवाह

 

अब सिवा मेरे न इसको प्यार कर सकता कोई

हो गया है शाइरी का आजकल मुझसे निकाह

 

चार छः चमचे मिले, माइक मिला, माला…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 27, 2015 at 10:00pm — 6 Comments

खुद को प्रांजल कैसे लिख दूँ

खुद को शुद्ध नहीं कर पाया, तुझ को कश्मल कैसे लिख दूँ।

मन पर पाप का बादल छाया, खुद को निर्मल कैसे लिख दूँ।।



प्रतिपल भजन लोभ के गाऊँ, हर पल स्वार्थ साधना चाहूँ।

लोभ का दमन नहीं कर पाया, खुद को निश्छल कैसे लिख दूँ।।



भ्रम की पर्त चढ़ी है नैन, कटती नहीं कठिन ये रैन।

तिमिर को दूर नहीं कर पाया, आत्मा उज्जवल कैसे लिख दूँ।।



चलता जाता मैं प्रतिदिन, पकड़नें अपना ही प्रतिबिम्ब।

अब तक प्राप्त नहीं कर पाया, खुद को निश्चल कैसे लिख दूँ।।



कण्ठ तक आ… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 27, 2015 at 9:56pm — 10 Comments

सामन्जस्य की परिभाषा (लघुकथा )

प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली असफलता से निखिल अवसादग्रस्त हो चला था। पत्नी स्नेहा को मिली नौकरी से गृहस्थी की गाडी सुचारू रूप से चलने लगी थी।लेकिन दोहरी जिम्मेदारी के बोझ तले वह बुरी तरह पीस रही थी। जिसका असर उसके व्यवहार में भी परिलक्षित हो रहा था ।

आज घर में घुसते ही साफ -सुथरा घर , और टेबल पर लगे खाने से आती खुशबू से स्नेहा भौचक्की थी, की निखिल कहने लगा -



"पढ़ते-पढ़ते थक गया था सो खाना बना लिया। शायद तुम्हे पसंद आ जाए। "

पसंद-नापसन्द से परे वह अपने घर में पति-पत्नी के मध्य… Continue

Added by Archana Tripathi on August 27, 2015 at 4:34pm — 9 Comments

हम क्या कर रहे हैं -- डॉo विजय शंकर

देश बड़ा है , महान है ,

कहाँ है ,

हर एक तो अपने परिवेश

से परेशाँ है ,

सब अपनी अपनी पहचान

बता रहे हैं ,

दूसरे का अस्तित्व ही

नकार रहें हैं ,

स्वयं को खुद ढूंढ

नहीं पा रहे हैं ,

न अपने को समझा

पा रहे हैं ,

न दूसरे को समझा

पा रहे हैं ,

भटके हुए दूसरे को

रास्ता दिखा रहे हैं ,

कैसे कैसे टुकड़ों में

बँट रहे हैं ,

टुकड़ा टुकड़ा

लड़ा रहे हैं ,

कह रहे हैं हम

देश बना रहे हैं ॥



मौलिक एवं… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 27, 2015 at 9:26am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गलीज़ आदत टला-टली है -- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

121-22---121-22---121-22---121-22

 

नसीब को जो कभी न रोया, उसी को किस्मत फली-फली है

जो काम आये तुरंत कर लो,  गलीज़ आदत टला-टली है

 

कुछ इस तरह से मुहब्बतों के…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 27, 2015 at 3:30am — 16 Comments

समर्पण

समर्पण

“वाह री मर कर भी तर गईं तिवारिन तो” मिथिला काकी ने मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी अपनी सखियों के समूह में सुरसुरी छोड़ी..

“वो कैसे बहन जी ?” उन्ही की समवयस्क जानकी ताई ने उत्सुकुता से पूछा.

“अरे कितनी सेवा की थी बहुरिया उनकी और अब उनके सिधारने के बाद अपनी नौकरी छोड़ ससुर की सेवा में लग गई.” मिथिला काकी ने खुलासा किया.

मुहल्ले भर की बुढियों को ईर्ष्या हो उठी स्वर्ग-सिधारी तिवारिन से, कितनी समर्पित बहू मिली है.

घर आते हुए महिला मंडल की बात चीत-सुन रधिया से रहा ना गया. सीधे… Continue

Added by Seema Singh on August 27, 2015 at 12:23am — 12 Comments

हैसियत ( लघुकथा )

दफ़्तर के गेट के बाहर अपनी स्कूटी निकाल ही रही थी कि एक बूढ़ी भिखारिन ने अपना भीख का कटोरा उसके आगे कर दिया ।वह उसे देखते ही पहचान गई , क्योंकि उसके मौहल्ले में भी अक़्सर वह भीख माँगा करती थी । उसने  चिल्लर कटोरे में डाल कुछ अनुमानते हुए चोर नज़रें उसके पैरों पर टिका दीं ।  



" ये क्या ? फिर नंगे पैर ? वो चप्पल कहाँ हैं , जो परसों ही मैंने पहनने को दी थीं ?



" घर रख दी बाईजी । उसी रोज़ कहा था , पैसा-लत्ता दे दो बस । पर आप मानी ही नहीं । "



" एक तो तुम्हारे बुढ़ापे पे तरस… Continue

Added by shashi bansal goyal on August 26, 2015 at 10:52pm — 19 Comments

चाहा जिसे था दिल के बंद दरवाजे ही मिले

2212 1222 2222 12

...

चाहा जिसे था दिल के बंद दरवाजे ही मिले ,

वो दोस्ती में मुझको बस अजमाते ही मिले |



ज़ब्रो ज़फ़ा गरीबों पर जिस-जिस ने की अगर,  

हर जुर्म खुद खुदा को वो लिखवाते ही मिले |



बदनाम वो शहर में पर, काबे का था मरीज़,

हर चोट भी ख़ुशी से सब बतियाते ही मिले |



वो यार था अजीजों सा, दुश्मन भी था मगर,

हर राज-ए-दिल उसे पर हम बतलाते ही मिले |



इस दौर में जिधर भी देखो गम ही गम हुए,

ऐ ‘हर्ष’ ज़िन्दगी में वो भी आधे ही…

Continue

Added by Harash Mahajan on August 26, 2015 at 10:09pm — 8 Comments

नारी

मैं डरती झिझकती

सहमती नहीं हूँ

बिखरती भटकती

सिहरती नहीं हूँ

हक़ीक़त से रूबरू

होती हूँ रोज़

चमकते परो से

बहकती नहीं हूँ

अपने आसमां

की मल्लिका हूँ मैं

सोने के महलों मे

छिपती नही हूँ

उठती हूँ गिरती हूँ

गिरके सम्भलती हूँ

धधकती हूँ लेकिन

पिधलती नही हूँ

चट्टान सी मैं

खड़ी हूँ शिखर पर

अन्धड़ हो जितना

बिखरती नही हूँ

मुझसे हो जन्मे

डलते मुझी मे

साँसों की लय सी

मैं थमती नही हूँ

आज़मा लो… Continue

Added by S.S Dipu on August 26, 2015 at 9:58am — 1 Comment

बाल श्रमिक (कविता)

हरिया का बेटा हरिलाल

उम्र यही कुछ आठ साल

पढ़ता था तीसरी कक्षा में

आता था प्रथम प्रत्येक साल।।



बापू ने लगा दिया उसको

पास ही के इक भट्ठे पर

भरी जीवन का कुछ बोझा

लाद दिया उसके सर पर।।



वह बालक जिसकी उम्र यही

पढ़ लिख कर कुछ बननें की थी

जिसके जीवन की गिनती

मात्र अभी थी शुरू हुई।।



वह हाथ लिए फरसा झौव्वा

अब नित्य काम पर जाता था

बदले में रोटी की ख़ातिर

कुछ कमा धमा कर लाता था।।



समझाया मैंने हरिया… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 25, 2015 at 9:57pm — 5 Comments

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