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ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2122 2122 2122 212



इश्क़ मे बेहाल होकर इतना हासिल हो गया

तेरी आहट से यहाँ हर लम्हा महफ़िल हो गया



फैसला करना मुझे ये आज मुश्किल हो गया

दिल से मुझको गम मिला या गम से यूँ दिल हो गया



रात सी चादर लपेटे बर्फ से वो सामने

आखिरी लम्हा मेरा जीने के काबिल हो गया



यूँ तो उसने बेबसी के सब फ़साने लिख दिए

ये नहीं कह पाया कैसे खुद का कातिल हो गया



डबडबाया कुछ ज़रा फिर जज्ब सब कुछ हो गया

किस कदर महफूज़ उन झीलों का साहिल हो गया…



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Added by मनोज अहसास on July 26, 2015 at 4:00pm — 11 Comments

डूबा था पर बाहर आया....

‌‌‌अपनी जान बचा तो पाया,

डूबा था पर बाहर आया।

जब इल्ज़ामों की बारिश थी,

पास नहीं था मेरे साया।

मुझको गैर बताकर उसने,

हाय गजब ये कैसा ढाया।

तन्हाई में खाली दिल ने,

साज़ उठाया नग़मा गाया।

जबसे सच्चाई जानी है,

हर रिश्ते से दिल घबराया।

प्यार भरा दिल तोड़ा जिसने,

मानो उसने मंदिर ढाया।

कुछ मिसरे ये टूटे फूटे,

हैं मेरा सारा सरमाया।

हम…

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Added by इमरान खान on July 26, 2015 at 3:18pm — 8 Comments

मेहनत की घड़ी का बुरा वक्त (लघुकथा)

चार लोग अलग-अलग देशों की यात्रा कर पानी के जहाज़ से अपने घर लौट रहे थे|

पहले ने कुछ दिखाते हुए कहा, "यह एक विशेष प्रकार की बन्दूक ली है, इसका निशाना कभी नहीं चूकता|"

दूसरे ने कहा, "मैं बारूद लेकर आया हूँ, यह देखो|"

तीसरे ने बताया, "और मैं बारूद से कारतूस बनाने का यह सामान|"

चौथे ने गर्व से कहा, "मैं सालों मेहनत कर अपने परिवार के लिये धन ले जा रहा हूँ, देखो मेरी हीरों से जड़ी घड़ी|"

यह सुनकर तीनों ने अपने साथ लाई चीज़ों को मिला दिया और चौथे का जीवन-काल समाप्त कर…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 26, 2015 at 2:30pm — 5 Comments

पावस की भोर

सुनो सखी !

लगती मनमोहक 

पावस की धुली हुई भोर

करती सबको आत्म विभोर

पुष्प से मांगती है मकरंद

छोने दुलराती बागों में मोर

अटकती बलरियों

लटकती वसुधा जी की गोद

देखो लगती मौन मुखर सी

पावस की धुली हुई भोर

 

भाल प्राची का सजाती

केशर तिलक वो लगाती

अलिक्षित शांति से परिपूर्ण

दर्पण ऑस बूंदों को बनाती

सम्हलती तिमिर के उर में

लजाती नव दुल्हन सी

पावस की धुली हुई भोर

 

कमल…

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Added by kalpna mishra bajpai on July 26, 2015 at 2:00pm — 4 Comments

लोकतातंत्र तो दफ़न हो गया संसद की दीवारों में

कुछ तो बात अवश्य मित्र है संसद के गलियारों में।

वर्ना देश नहीं रह जाता अब तक यूँ अँधियारों में।।



उसको ही भाया है जनता सदा रहे दुःख से विह्वल।

जिसको भी सौंपी सत्ता जो पहुँचा उस चौबारे में।।



बड़ी बड़ी बातें जो अब तक घूम घूम कर करते थे।

उनका भी मन रमने लगा है परदेशी सत्कारों में।।



भले चिताएँ जलें सैकड़ों जनता की चौराहों पर।

चाहे जैसे रहे किन्तु हो राजमहल उजियारे में।।



जी करता है फूँक फ़ाँक दूँ काली पुस्तक अंधी देवी।

जब मज़ाक उड़ता है… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 26, 2015 at 12:11pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है -( गिरिराज भंडारी )

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शीशा से पत्थर जब भी टकराता है

पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है

 

मुँह की बातों का,  आँखें प्रतिकार करें

सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है 

 

लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन

लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है

 

साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत 

गाने वाला गीत पुराना गाता है 

 

तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ

मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है

 

फिर से ताज़ा मत कर…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 26, 2015 at 10:02am — 16 Comments

हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए, (गजल)

2122 2122 2122 212



हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए,

चल रहा मंथन बहुत कुछ तो निकलना चाहिए।



आग यह कबसे दबायी है अभी अंतर सुनो,

कब तलक सुलगे उसे अब तो धधकना चाहिये।



बेइमां अब साहिबां सब क्यूँ हमारे हो गये?,

आज एक उनमें कहीं वाजिब निकलना चाहिये।



है सड़क से राह ले जाती सियासत तक अभी,

अब तुझे भी आप ही घर से निकलना चाहिये।



ले गये सब मोड़ते नदियाँ कहाँ ये बावरे?

इक नदी का रुख अभी भी तो बदलना चाहिये।…



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Added by Manan Kumar singh on July 26, 2015 at 7:30am — 13 Comments

सावन आया पिया, मन भाया पिया

सावन आया पिया, मन भाया पिया 

प्यार के रंग में रंगी धानी चूनर

मंगा दो पिया 

प्यार का रंग कितना गहरा?

में भी जानूं पिया…

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Added by mohinichordia on July 26, 2015 at 7:30am — 2 Comments

सावन

हरियाली हर ले गई,  सबके मन की पीर 

झूले पड गए वृक्ष  में  झूल रही हैं…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on July 26, 2015 at 5:30am — 7 Comments

मौका नहीं सौदा (लघुकथा)

"मैं तुम लोगों को लेने आया हूँ "
"इतना गलत कार्य करने के बाद भी इतनी हिम्मत!"
"क्या पुरानी बातों को भुला कर, नया जीवन नहीं शुरू नहीं कर सकते "
"क्या भरोसा की तुम उन बातों की पुनरावृत्ति नहीं करोगे?"
"एक मौका दे दो मुझे"
"अब तुम्हे मौका नहीं दिया जा सकता बल्कि एक सौदा किया जा सकता हैं ,मेरे जेवर उतना धन दोनों बेटियों के नाम बैंक में जमा करों जो तुम जुऐं में लूटा चुके हो।अन्यथा मेरे दरवाजे तुम्हारे लिए सदैव बंद हैं।"

मौलिक और अप्रकाशित

Added by Archana Tripathi on July 26, 2015 at 2:00am — 2 Comments

इस बार

मेरी कराहों की

लोरियां सुनकर

तुम सो गए 

 

रस्सियों से जकड़ी

मेरी देह से

रिसते लहू ने

तुम्हारा मुख धोया 

मेरे पसीने की दुर्गन्ध से

तुम जग गए

 

तुमने और कस दी 

मेरी रस्सियाँ

जो मांस को चीर कर

हड्डियों तक धंस गयीं

मेरी पीड़ा कंठ से निकल 

कपाल में फंस गयी

 

तब तुमने किया

एक विराट…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 25, 2015 at 9:30pm — 6 Comments

अपनी साँसें भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं

अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं,

बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं |



दिल में आतिश है बहुत ये हुस्न बे जलवा नहीं

चाहता हूँ आग उसमें पर वो जलती ही नहीं |



शाम से शब ग़ैर की ज़ुल्फ़ों में जब करने लगे

रात ऐसी जो हुई फिर सुब्ह निकली ही नहीं |



जब तलक थे हमकदम, अपना सफ़र चलता रहा,

दरिया क़तरा जब हुवा, मंज़िल वो मिलती ही नहीं |



इस कदर रोया हूँ मैं आखें भी धुंधला सी गई,

आज कुछ बूँदे भी आँखों से निकलती ही नहीं |  …

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Added by Harash Mahajan on July 25, 2015 at 6:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल- कर्म की योग्यता नहीं देतें।

२१२२ १२१२ २२

आजकल सभ्यता नहीं देतें।

बाप भी शिष्टता नहीं देतें।



पेड,पौधें,नदी,जलाशय अब।

स्वर्ग का रास्ता नहीं देतें।



चार पन्नें किताब के मित्रों।

कर्म की योग्यता नहीं देतें।



क्या करूं इस समाज में जी कर।

लोग गर साम्यता नहीं देतें।



तब तलक चुप नहीं रहेंगे हम।

जब तलक सच जता नहीं देतें।



खोल बैठें दुकान अध्यापक।

दाम बिन शिष्यता नहीं देतें।



बात क्या है?जहान को रब जो।

आप अपना पता नहीं… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on July 25, 2015 at 4:00pm — 7 Comments

जरुरत ( लघुकथा)

". सबेरे- सबेरे सामान लेकर कहॉ जा रहे हैं , श्याम बाबू |"

" भाई , भारत दर्शन को जा रहा हूँ "|

इसमे तो बहुत समय लगेगा , फिर परिवार का ?

परिवार मे अब शक्ति के छोटे- छोटे केन्द्र बन गये हैं | हमारी जरुरत नही है |

सत्यजीत राय

भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Added by Satyajit Roy on July 25, 2015 at 12:32pm — 6 Comments

आसमान को नापना ही होगा // कान्ता राॅय

जागी थी आज मै

चौंक उठी थी सहसा

कई कामों के संग ही

एक काम और रह गया



बहुत दिन हुए सोचे

आसमान नाप कर देखू

सुना है नील गगन

यह अति अनंत है

लेकिन अनंत में भी तो

छुपा हुआ होता एक अंत है



कहते है , किसी ने ना किया जो

मै बावरी भी ,ना करूं वो

छोड़ दू जिद

हो सकता है

कोई ना कर पाया जो

मै ही कर बैठू वो

क्यों बिना किये ऐसे छोड़ दू ,

अपने मंजिल का रास्ता मोड़ दू



उठा कर इंजी टेप मैने

पूरे होशोहवास… Continue

Added by kanta roy on July 25, 2015 at 12:06am — 5 Comments

मींयाँ (कहानी)

रोज की तरह आज भी मैं उसे पढ़ाने उसके घर पहुँचा और वो भी आदतन पहले ही दरवाज़े के पास खड़ा मेरा ही इंतज़ार कर रहा था. उसने आनन-फ़ानन में दरवाज़ा खोला और बिना दरवाज़ा बंद किए ही पुस्तकें लाने अन्दर की ओर भागा. वो यही कोई 6-7 साल का बहुत ही प्यारा और कुशाग्र बुद्धि का बालक था. उसका नाम दर्शन था. मैं उसे जो भी पढ़ता था, वो सब बड़े गौर से सुनता और सहेज कर रखता था. प्रश्नों की खान था वो बच्चा और उसकी जिज्ञासाएँ कभी शांत नहीं होतीं थीं और यही उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत थी कि वो आसानी से संतुष्ट नहीं होता…

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Added by Prashant Priyadarshi on July 24, 2015 at 9:00pm — 9 Comments

जैसा बीज़ वैसी फ़सल ( लघुकथा )

"जानती है ? नया मेहमान आने वाला है सुनकर, माँ-बाबूजी कितने खुश हैं । "

"और आप ? "

" हाँ , माँ कह रही थीं , बड़ी भाभी की दोनों संतानें लड़कियाँ हैं, इसलिए बहू से कहना कि वह सिर्फ़ बेटा ही जने । "

"आपने क्या कहा ? '

"कहना क्या ? मैं माँ से अलग थोड़े हूँ , और तू भी माँ की इच्छा के विरूद्ध तो जाने से रही ।"

"सो तो है , पर माँ जी की इच्छा पूरी हो , उसकी जवाबदेही आपके ही हाथों में है । "

"मेरे हाथों में ? पागल हो गई है क्या ? '

"लो भई ! साइंस ग्रेजुएट हो । इतना भी नहीं…

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Added by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 7:30pm — 19 Comments

उल्टी (लघुकथा)

सरकारी खर्चे पर होटल के कमरे में बैठे बैठे साहब ने एक तंदूरी मुर्गा खत्म किया। फिर पानी पीकर डकार मारते हुए किसी बड़े लेखक का अत्यन्त मार्मिक उपन्यास पढ़ने लगे। उपन्यास में गरीबों की दशा का जिस तरह वर्णन किया गया था वह पढ़ते पढ़ते साहब का पहले से भरा पेट और फूलने लगा। अन्त में जब साहब से पेट दर्द सहन नहीं हुआ तो वो उठकर अपनी मेज पर गए। दराज से अपनी डायरी निकाली और एक सादा पन्ना खोलकर शब्दों की उल्टी करने लगे।

पेट खाली हो जाने के बाद उन्हें…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 3:12pm — 14 Comments

ग़ज़ल- जतिंदर औलख

मेरे शब्दों के मायाजाल को तुम याद कर लेना,

दहकती आंधियों में फिर भले परवाज़ भर लेना।



हवा की महक होकर तुम मेरी सासों में बस जाना,

खुद को तुम खुदी से इस तरह आजाद कर लेना।



पवन हो तुम मैं बादल हूँ उडूंगा आसरे तेरे,

ज़माने के लिए रिश्ते का कुछ भी नाम रख लेना।



दुनीआ ने गिरा दिया नज़रों के परबत से हमे,

मुझ दरिया को सागर बन के तू बाँहों में भर लेना।



है सूखे बाग़ के लहजे में मुझको ख़ुदकुशी करनी,

आंधी बन के आने का कभी इकरार कर… Continue

Added by Jatinder Aulakh on July 24, 2015 at 12:21pm — 7 Comments

दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ /कान्ता राॅय

धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ

कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ

                          मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ

धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ

                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ

उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही…

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Added by kanta roy on July 24, 2015 at 9:30am — 36 Comments

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