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गलीज़ आदत टला-टली है -- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

121-22---121-22---121-22---121-22

 

नसीब को जो कभी न रोया, उसी को किस्मत फली-फली है

जो काम आये तुरंत कर लो,  गलीज़ आदत टला-टली है

 

कुछ इस तरह से मुहब्बतों के तमाम किस्से अब आम होते 

जरा - सी सरगोशियाँ हुई फिर हजार बातें चली-चली हैं

 

ज़हीर देखे, जहान देखा, पयाम समझे, बयान है ये-  

जफ़ा का आलम बुरा-बुरा है, वफ़ा की दुनिया भली-भली है

 

तमाम आजादियों के परचम, गुजर गए फिर समझ ये आया

किसी का जूता हमारे सर पे, हमारी दुनिया तली-तली है

 

जरा ये सोचों कि यार मेरा भी किस कदर का हसीन होगा  

किसी को मेरी खबर नहीं है, उसी का चर्चा गली-गली है

 

कयाम कैसा, दयार किसका, मकां न कोई, मकीं न कोई

कहाँ ठिकाना हमें मिलेगा, नसीब अपना कबायली है

 

कोई भी आये, कोई भी देखें. पसंद या ना-पसंद कह दे

अजीब सी इन रिवायतों में हरेक बेटी छली-छली है

 

जमीन किसकी, जहान कैसा, नसीब किसका, निजाम कैसा ?

फसल में गेहूं उगाया जिसने, उसी की रोटी जली-जली है

 

कबीर के है भजन दिलों में, ग़ज़ल रगों में है राबिया की

नयन में कान्हा बसे हुए है,  लबों पे मेरे अली-अली है

 

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 12:54am

आदरणीय दिनेश भाई जी आपका मुखर अनुमोदन मुझे सदैव उत्साहित करता है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 12:53am

आदरणीया कांता जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई जानकार मुग्ध हूँ. आपका मुखर अनुमोदन पाकर झूम गया हूँ ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.

Comment by दिनेश कुमार on August 30, 2015 at 9:18pm
बहुत ख़ूब आदरणीय मिथिलेश भाई। दिल से वाह वाह निकल रही है। वाह वाह वाह
आखिरी के तीन शे'र तो बस निहाल करते हैं पढ़ने वालों को। मुबारकबाद भाई।
Comment by kanta roy on August 30, 2015 at 9:05am
बिलकुल सही कह रहे है आप आदरणीय मनोज कुमार जी ,क्या सुंदर मिजाज़ है इस गजल के कि हर अशआर में एक मजा - मजा है । सुफियाना सी गजल है । मौला गिरी का भी क्या आलम छाया है यहाँ कि
कबीर के है भजन दिलों में, ग़ज़ल रगों में है राबिया की
नयन में कान्हा बसे हुए है, लबों पे मेरे अली-अली है ..... वाह !!! आज का दिन इस गजल के नाम हुआ अब तो ! गजल में आपके मिजाज की भी कोई सानी नहीं है आदरणीय मिथिलेश जी । बधाई स्वीकार करें इस टला- टली के लिए । सादर
Comment by kanta roy on August 30, 2015 at 8:38am
वाह !! वाह !!! वाह !!!!!! क्या खूब ये गजल भली- भली है !
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2015 at 9:56pm
सुन्दर, सार्थक, गुनगुनाने लायक , स्मरणीय , बधाई, प्रिय मिथिलेश जी, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 4:55pm

आदरणीय सौरभ सर, आपकी उपस्थिति से ही मेरा मान बढ़ जाता है. आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर धन्य हुआ और //अंत तक आते-आते कई शेर संग्रहणीय हो गये हैं// जैसा मुखर अनुमोदन पाकर मुग्ध हूँ.

इस बह्र पर कुछ कहते हुए अमीर खुसरो को हमेशा महसूस किया है.

इस मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक आभार. नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 4:50pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ हूँ.  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 4:49pm

आदरणीय नरेन्द्र जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 4:48pm

आदरणीय हर्ष जी ग़ज़ल पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार  सादर 

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