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चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह (मज़ाहिया ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

 

चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह

मैं समझने लग गया ख़ुद को ग़ज़ल का बादशाह

 

एक चेले की जुबाँ दी काट मैंने इसलिए

बात मेरी काटने का कर दिया उसने गुनाह

 

बात क्या है, क्यूँ है, कैसे है मुझे मतलब नहीं

मंच पर पहुँचूँ तो फिर मैं बोलता धाराप्रवाह

 

अब सिवा मेरे न इसको प्यार कर सकता कोई

हो गया है शाइरी का आजकल मुझसे निकाह

 

चार छः चमचे मिले, माइक मिला, माला मिली

और अब क्या चाहिए पूरी हुई हर एक चाह

 ------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 1, 2015 at 10:18pm

मजेदार आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी!

Comment by Samar kabeer on August 29, 2015 at 11:37pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 28, 2015 at 5:31pm

आदरणीय सौरभ जी, उपस्थिति एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। अब जो है सो तो हइये है :) मगर भविष्य में एक मजाहिया ग़ज़ल, सात अश’आर वाली अवश्य पेश की जाएगी। :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 28, 2015 at 3:00pm

काश शेर थोड़ा और रंगीन हुए होते.  पाँच में पाँच रंगों की अपेक्षा थी. और दो और शेरों की आशा. :-))

लेकिन जो है सो वो हइये है..   (आजकल आप ऐसे ही ’बतकूचनों’ के प्रभाव में हैं..  हा हा हा..)

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 28, 2015 at 1:36pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 1:49am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत बढ़िया मजाहिया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है. 

इन दिनों मैं भी मजाहिया ग़ज़ल पर प्रयासरत हूँ. सादर 

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