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नजरें दीवारों पर क्यों। " अज्ञात "

बेकार हजारों कोशिश भी,                         

इन आँखों को समझाने की ,                    

रखती हैं समुंदर को वश में,                   

और धार बहाये रहती हैं।

                       

जबकि है मालूम इन्हें,                                     

वो दूर हैं नजरों से फिर भी,                   

नजरें दीवारों पर क्यों,                                   

टकटकी लगाये रहती हैं।

                     

है असर मुहब्बत का…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 3, 2015 at 5:26pm — 2 Comments

चाँदी के बटन ( लघु कथा )

सुनार की दुकान में बैठी नीलिमा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी।कि 75- 78 वर्ष के बुजुर्ग पर ध्यान चला गया।

" आओ -आओ आज़ क्या बनवा रहे हो अपनी बुढ़िया के लिए।" सुनार मोती लाल ने कहा।

ज़ेब से सुंदर चाँदी के बटन निकाल बुजुर्ग बोले , " इनमें चाँदी के घुंघुरू लगा दो।"

" आहा बुबू जी ! कितने सुंदर हैं ये ; कहाँ से बनवाये ? " नीलिमा ने उनको बैठने की ज़गह देते हए पूछा।



"चेली ! ये असली चाँदी नहीं है। नकली बटन हैं "

"अरे , तो फ़िर इनमें असली चाँदी के घुंघुरू क्यों लगवा रहे… Continue

Added by Janki wahie on November 3, 2015 at 5:22pm — 14 Comments

जरूरत (लघुकथा)

मॉल से दीवाली की ढेर सारी खरीदारी करके जैसे ही कार से गेट के बाहर निकले,एक गुब्बारे बेचने वाला कम उम्र का लड़का दौड़कर आया और गुब्बारे खरीदने की इल्तिज़ा करने लगा।

"अरे नहीं चाहिये भैया !"

"ले लो ना बीबी जी! "

"हां मम्मा ! ले लो ना मुझे चाहिये "

"अरे नहीं बेटा! क्या करोगे?अभी इतने सारे खिलौनें खरीदे है ना।"

"जाओ भैया!हमें जरूरत नहीं ।"उसने झिड़कने के अंदाज में कहा ।

लड़का थोड़ा हताश हुआ और बोला -

"कुछ चीजें जरूरी तो नहीं जब जरूरत हो तभी खरीदी जाए बीबी…

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Added by Rahila on November 3, 2015 at 12:30pm — 11 Comments

झूठ - लघुकथा

" झूठ - लघुकथा "

"देख सुधा लौट आई मेरी बिन्नो।" कहते हुए माँ ने अपनी नवजात पोती को उसकी उसकी गोद में डाल दिया।

"हाँ माँ ये तो सच में पूरी बिन्नो मौसी है।" माँ की ख़ुशी में शामिल होते हुए सुधा ने मुस्करा कर अपनी भाभी सुमन की ओर देखा मानो पूछ रही हो। "बात बनी कि नहीं!"

भाभी को, ख़ुशी से झूमती माँ को एक टक देख अनायास ही उसके सामने भाभी का परेशान चेहरा अतीत में झलकने लगा। "जीजी मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं माँजी को कैसे ये 'रिपोर्ट' दिखाऊं। वो पहले ही सिर्फ 'पोते' की जिद पर अड़ी है और… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on November 3, 2015 at 11:42am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'दूसरा पहलू' (लघु कथा 'राज')

“आज उदास क्यूँ हो बेटा क्या सोच रहे हो ”? जलेबी पकड़ाते हुए पापा ने उसकी आँखों में देखते हुए  पूछा| “पापा मैं एक बहुत बड़ी दुविधा में हूँ आपको तो पता है मैं चित्रकला और काव्य लेखन  दोनों ही  विधाओं को पसंद करता हूँ तथा दिन रात मेहनत करता हूँ आगे अपना कैरियर भी इन्हीं में से किसी एक को लेकर बनाना चाहता हूँ” वैभव ने कहा | “तो फिर इसमें कैसी दुविधा है बेटा”?

“पापा मैं तो दोनों में  ही अपने को कुशल समझता था पर चुनाव करने में असमंजस में था तो मैंने सोचा क्यूँ न मैं इन विधाओं…

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Added by rajesh kumari on November 3, 2015 at 11:38am — 14 Comments

आशा की किरण ( लघुकथा )

बेटी सनाया के लिए वर अनुसन्धान में हलकान होती रीमा के लिए वो बाँका सुदर्शन किरायेदार आशा की किरण लेकर आया था। इतनी अच्छी तनख्वाह और सभी ऐबों से दूर रहने वाले अश्विन को लेकर उनका मन कुलाँचें भरने लगा।

अब तो वक़्त बेवक़्त पकवान बनकर उसके पास पहुंचने लगे।हर वक्त बेटी की होशियारी का बखान और ममता लुटाने में कोई कसर न छोड़ी थी रीमा ने।कुछ दिन के लिए अपने घर गया अश्विन आज लौटने वाला था।उसे घेरने की पूरी तैयारी कर ली थी उन्होंने।इस बार बेटी के जन्मदिन पर उसकी सगाई का ऐलान करके दोहरे जश्न की…

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Added by jyotsna Kapil on November 3, 2015 at 11:30am — 6 Comments

दोष आरक्षण के अब तो -(गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

*********************************

बारिशों के  हादसे  जब  दामनों  तक आ गए

दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1



याद  मुझको   तो  नहीं  हैं  ठोकरें मैंने भी दी

क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2



सोचकर निकले थे  बाहर  कुछ  उजाला ढूँढ लें

घर के तम लेकिन हमारे  रास्तों तक आ गए /3



नाव  जर्जर  और  पतवारें   रहीं   सब  अनमनी

क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4



हो रही है माँग हर शू जाति  क्या औ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2015 at 10:47am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सर झुकाये हयात आई इसरार पर- शिज्जु शकूर

212 212 212 212

आये उश्शाक़ खुद को लिये दार पर

सर झुकाये हयात आई इसरार पर



ओस की बूंद सा चाँद ढलता हुआ

खूब है सुब्ह के सुर्ख़ रुखसार पर



माह अफ़्लाक़ पर जल उठे हैं कई

नूर उछला है उनका शबे तार पर



मारने हक़ हज़ारों खड़े हैं यहाँ

और मक़्तूल तलवार की धार पर



अपनी नाकामियों का ख़मोशी के साथ

रख दिया उसने इल्ज़ाम अगयार पर



कौन अपना नुमाइंदा है मुल्क में

फूल है तो कहीं हाथ दस्तार पर



ढूँढ ही लेते हैं राह… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on November 3, 2015 at 9:26am — 20 Comments

अमीरी, लघुकथा

घर से निकलते समय मुझे ये पता ही न रहा कि मैने पुरानी चप्पल डाली है | थोड़ी दूर चलने के बाद चप्पल टूट गई, इसी दुबिधा में कि घर वापस जाऊं या आगे,मैं टूटे चप्पल के साथ पैर घसीटते हुए आगे बढ़ गया | अचानक मेरा ध्यान सड़क के किनारे बैठे जूतियाँ गांठने वाले पर पड़ी, उसके नजदीक जा मैने चप्पल आगे बढ़ा दी |

" पांच रुपए लगेंगे " उसने नजरें चप्पल की और डालते हुए कहा |"

कोई बात नहीं " आप इसे ठीक कर दो |,

मैने उसकी आवाज़ पहचानते हुए थोडा सोच पे जोर देते हुए कहा |

"…

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Added by मोहन बेगोवाल on November 3, 2015 at 1:00am — 8 Comments

तुम इस ही बहाने आओ भी

16 रुक्नी ग़ज़ल

=================================

हम अब भी साँसें खींच रहे; कुछ और सितम तुम ढ़ाओ भी।

दीदार तो होगा कम से कम; तुम इस ही बहाने आओ भी।।



कल सुब्ह चले जाना ये शब, तूफ़ान भरी को बीतने दो।

बादल झरते हैं आँखों से, बरसात है तुम रुक जाओ भी।



अरमान भरे दिल की दुनिया, उजड़ी है अभी बर्बाद हुई।

बस बाकी है दीवार ज़रा, माटी में इसको मिलाओ भी।।



तैयार ज़रा कर दो मुझको, बिखरा बिखरा हूँ ठीक नहीं।

शृंगार अधूरा है मेरा, कुछ मोती मुझपे चढ़ाओ… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 2, 2015 at 10:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले--(ग़ज़ल)--मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले

जमीं पर तुम जमा लेना सलीके से कदम अपने

 

फलक को चाँद भी रौशन करे खुद के उजालों…

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Added by मिथिलेश वामनकर on November 2, 2015 at 5:28pm — 14 Comments

"शह और शिकस्त" - [लघुकथा] 25 (शतरंज संदर्भित) - शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"शह और शिकस्त" - (लघुकथा)



दोनों अलमारी में बहुत ही गोपनीय तरीके से रखे गए थे कई आवरणों से लपेट कर पैकेटों में। काले धन का पैकेट और कंडोम का पैकेट।



"आख़िर तुम गलकर सड़ ही गये न ! उत्पत्ति को रोकने के लिए किसने किया तुम्हारा उपयोग "- काले धन ने कहा।



"सच कहते हो" - कंडोम का पैकेट बोला - " जब तुम्हारी व्यवस्था करने में ही पुरुष दिन-रात एक करेगा, तो दाम्पत्य कर्तव्य वह कैसे निभायेगा , और निभायेगा भी तो उतावलेपन में मेरा इस्तेमाल करेगा कौन,भले उत्पत्ति होती रहे, कष्ट… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 2, 2015 at 5:09pm — 1 Comment

ग़ज़ल- सारथी || इन्तिज़ार इन्तिज़ार है तो है ||

इन्तिज़ार इन्तिज़ार है तो है 

ऐतबार ऐतबार है तो है /१

मैं हूँ नादाँ अगर तो, हूँ तो हूँ 

वो अगर होशियार है तो है /२ 

छोड़कर मुझको सिर्फ़ इक वो चाँद 

हिज़्र का राज़दार है तो है /३  

कल वो हँसता था मेरी हालत पर 

वो भी अब बेक़रार है तो है /४ 

दीद का लुत्फ़ हो गया हासिल 

अब नज़र कर्ज़दार है तो है /५ 

...........................................
सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित

अरकान: २१२२ १२१२ २२ 

Added by Saarthi Baidyanath on November 2, 2015 at 3:30pm — 4 Comments

"माहौल" एक सच्चाई

ऑफिस से आकर सबसे पहले टीवी ऑन किया तो गलती से दूरदर्शन लग गयाI  इसे देख कर लगा की  देश अपनी रफ़्तार से प्रगति कर रहा हैI चारों और शांति हैI सब अपना अपना काम कर रहे हैI हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब एकता की मिसाल दे रहे हैI और भारत दुनिया के अग्रसर देशो में शुमार होने जा रहा हैI लेकिन जैसे ही निजी न्यूज़ चेंनलो की और बढ़ा तो लगा,  देश में साम्प्रदायक माहौल बिगड़ गया हैI चारो और हत्याए हो रही हैI हर जगह दंगे भड़क गए हैI  चारो और धारा144 लगी हुई हैI सवर्ण दलितों को मार रहे हैI जगह जगह बलात्कार हो…

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Added by harikishan ojha on November 2, 2015 at 2:10pm — 7 Comments

वो कहते हैं तू पत्थर है।

वो कहते हैं तू कट्टर (पत्थर) है

बहर:-1222-1222-1222-1222



नहीं मिलती तबीयत तो ,वो कहते हैं तू पत्थर है

मगर जाना नही उसने, की कितना मन समंदर है



हुई हरकत बुरी हमसे ,बदलने की जो कोशिस की

तभी मालुम हुआ हमको, खिलाड़ी तो सितमगर है



सिला अपनी मुहब्बत का,लिखा पन्ने पे जब मैंने

खुदा भी रो पड़ा बोला, धरा का तू सिकंदर है



जो मुंसिफ घर गया उनके, उधारी में दिया लेने

चिरागां हंस के बोला तब,अँधेरा तेरे अंदर है



बताओ रास्ता मुझको…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on November 2, 2015 at 1:30pm — 11 Comments

कोख जाया [लघु कथा ]

नवेली बहू और बेटे के साथ आँगन में मेहमान जमे थे I तभी  जोर जोर से तालियाँ और मर्दानी आवाजों में गाते , चार हिजड़े घर में आ गए  I  घबरा कर वो अन्दर आ गई I तालियों की आवाज़ चेतना में हथौड़े चला रही थी I

"बहू वो नेग लेने आये हैं I तू भी बाहर आ जा ,दूल्हे की अम्मा है तू " सास अन्दर आ गई थी I "क्या हुआ ? थक गई है ?रहने दे ,आराम कर " I

सास के बाहर जाते ही वो  पलंग पर गिर गई Iआँखों से यादें बहकर चादर भिगोने लगीं Iपचास साल पहले उसके घर भी आये थे ये ,तालियाँ बजाते नेग लेने नहीं , छोटे…

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Added by pratibha pande on November 2, 2015 at 1:00pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
संसार हो गया है, अब अंगहीन जैसे---(ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

221—2122—221--2122

 

संसार हो गया है, अब अंगहीन जैसे

सब लोग सोचते है, केवल मशीन जैसे

 

ये जात ही जुदा है, बस नाम ‘लोकसेवक’…

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Added by मिथिलेश वामनकर on November 1, 2015 at 11:00pm — 14 Comments

गजल(मनन)

गजल

2122 2122 122

जब से'मैं बातें बनाने लगा हूँ,

मैं समझ में खूब आने लगा हूँ।

गालियाँ खायी बयाँ की हकीकत,

झूठ कह अब उनको' भाने लगा हूँ।

आरजू थी वे बुला लेते कभी,

मैं अभी उनके ठिकाने लगा हूँ।

तंग था मैं तंगदिल से निभाते,

ठाँव अब दिल में बनाने लगा हूँ।

तर्ज़ भी तब्दील होगी अभी तो,

बात से अब मैं रिझाने लगा हूँ।

गुत्थियाँ उलझी पड़ी थीं कभी की,

हौले'-से बातें बुझाने लगा हूँ।

हो रहा मैं हूँ अदीबो-मुकम्मिल,

उनके' मन का गीत गाने… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 1, 2015 at 10:00pm — 11 Comments

- अंधे-

- अंधे - ( लघु कथा )



" माई ओ माई ! " चिल्लाते हुए श्यामू ने राम रत्ती को आवाज़ लगाई।

" क्या है रे ! आज़ कौन सा तीर मार लाया ?"

" ये ले माई !" तेल से भरा डिब्बा और चावल उरद की कच्ची खिचड़ी सामने रख दी।

" वाह , और पैसे ?"

" ये ले पूरे 86 रूपये हैं ।"

" बहुत खूब बेटा ! दस-पन्द्रह दिन तो खाने का अच्छा जुगाड़ हो गया।"



" माई ! एक बात मेरी समझ में नहीं आती ?"

" क्या ?" सामान सहेजती रामरत्ती ने नज़रें उठाई।

" सारे लोग अपनी अला-बला ज़ादू -टोना हर… Continue

Added by Janki wahie on November 1, 2015 at 6:40pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए(ग़ज़ल 'राज')

221  2121  1221  212

 

उनके खजाने जैसे ही वोटों से भर गये                                                                                                                                       नकली लगे हुए वो मुखौटे उतर गये

आकाश में उड़े न उड़े फिक्र क्या उन्हें

,जाते हुए गरीब के वो पर कुतर गए

 …

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Added by rajesh kumari on November 1, 2015 at 6:30pm — 15 Comments

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