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ग़ज़ल-नूर --अपने अहसास दर-ब-दर रखते,

ग़ज़ल 
२१२२/१२१२/२२ (११२)
.
अपने अहसास दर-ब-दर रखते,
उन से उम्मीद हम अगर रखते.
.
कौन आता यहाँ, जो पूछता ‘वो’,
चाँद तारों में हम भी घर रखते.
.
नींद आती जो रात भर के लिए,
उन को ख़्वाबों में रात भर रखते.
.   
जंग से क़ब्ल हार जाते हम,  
दिल में ज़ालिम का हम जो डर रखते
.
वो ख़ुदा ही मिला नहीं हम को,
जिस के क़दमों पे अपना सर रखते.
.
मुख़बिरी करते थे ज़माने की,
काश ख़ुद की भी कुछ ख़बर रखते.
.
छोड़ देते शराब कब की हम
तुम निगाहों में वो असर रखते!
.
निलेश "नूर" 
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 796

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 28, 2015 at 8:33pm

शुक्रिया आ. दिनेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 28, 2015 at 8:32pm

शुक्रिया आ. शिज्जू जी 

Comment by दिनेश कुमार on December 25, 2015 at 6:59am
आ. निलेश सर जी। बेहतरीन ग़ज़ल। हर शेर पर दाद। वाह वाह।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 24, 2015 at 9:18pm
वाह आदरणीय निलेश भाई लाजवाब ग़ज़ल है हर शे'र असरदार है। दाद ओ मुबारक़बाद कुबूल फ़रमायें
Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:31pm

शुक्रिया आ. गिरिराज जी ... 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:31pm

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:31pm

शुक्रिया आ. राजेश दीदी... आप की दाद पाना सदैव ही विशेष रहा है.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:30pm

शुक्रिया आ. रवि जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:30pm

शुक्रिया आ. पंकज जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2015 at 7:30pm

शुक्रिया आ. सौरभ सर...
आप ने सही पकड़ा है... मैं दुरुस्त किये लेता हूँ...
ग़ज़ल ने मुझ से तलाक की अर्ज़ी लगा रखी है और मैं कि भरण पोषण भत्ते के रूप में वक़्त भी नहीं दे पा रहा हूँ :) 

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