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नस्री नज़्म :- आओ सबका ग़म बाँटें

आओ सबका ग़म बाँटें,
गीतों से,कविताओं से,
ग़ज़लों से,नज़्मों से,
हल्का होगा मन का बोझ
अपने ऐसा करने से,
शायद कुछ परिवर्तन आए,
दिल की कली फिर मुस्काए,
गंगा जमुना का संगम हो,
कुछ तो रब्त-ए-बाहम हो,
सुनते हैं,ताक़त से क़लम की,
इन्क़िलाब आ जाता है
क्यूँ न फिर इस इन्क़िलाब की,
तैयारी में जुट जाऐं,
ये सब मिल जुल कर ही होगा,
आओ इस मक़सद को लेकर,
कोई ऐसा गीत रचें,
ऐसी नज़्म जो दिल को छू ले,
ऐसी कविता,जो रस घोले,
सब को अपनी बात लगे,
हर दिल की आवाज़ लगे,
आओ सबका ग़म बाँटें ।

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2015 at 11:50pm

नज़्म केलिए हार्दिक बधाई आदरणीय समर साहब 

Comment by Samar kabeer on December 18, 2015 at 10:36pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,रचना की सराहना हेतु आपका आभारी हूँ ।
Comment by Samar kabeer on December 18, 2015 at 10:34pm
जानब विजय निकोरे जी,आदाब,रचना की सराहना हेतु आपका आभारी हूँ ।
Comment by Samar kabeer on December 18, 2015 at 10:32pm
जनाब लक्ष्मण धामी जी,आदाब,रचना की सराहना हेतु आपका आभारी हूँ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2015 at 11:58pm

आदरणीय समर कबीर जी बढ़िया नज़्म हुई है हार्दिक बधाई 

Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 1:58pm

 //कोई ऐसा गीत रचें,
ऐसी नज़्म जो दिल को छू ले,
ऐसी कविता,जो रस घोले,
सब को अपनी बात लगे,
हर दिल की आवाज़ लगे,
आओ सबका ग़म बाँटें ।//

बहुत अच्छा खयाल है ... रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय समर जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 16, 2015 at 11:25am

शायद कुछ परिवर्तन आए,
दिल की कली फिर मुस्काए,
.....
क्यूँ न फिर इस इन्क़िलाब की,
तैयारी में जुट जाऐं,

बहुत सुन्दर समर भाई जी हार्दिक बधाई l

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