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ग़ज़ल

बताई बात मिलने की अगर तूँने जमाने को

बचेगा पास मेरे क्या बताओ फिर गँवाने को



न दिल को लगने पाएगा ये गम जुदाई का

तुम्हारी याद जो होगी हमें हँसने-हँसाने को



लगी सूंघने दुनिया तेरी खुशबू हवाओं में

लिखी जब गयी चिट्ठी किताबों में छुपाने को



किया फौलाद जैसा दुखों ने पालकर तन से

खुशी एक ही काफी हमें जी भर रूलाने को

गिरे अनमोल मोती जो सुख की कड़ी टूटी

सहेजे दामनों ने हैं नयन में फिर सजाने को…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 17, 2013 at 7:00am — 8 Comments

कभी जब तुम नही रहते

कभी जब तुम नही रहते ,

तुम्हारा कोई "अहसास" रहता है

कि जैसे बंद कमरे मे

कोई आहट गुजरती हो

कि जैसे हवा के साथ कोई

ख़ुशनुमा ठंडा झोंका

मेरे कमरे में आता , जाता

पर

ठहरता नहीं है

कि जैसे किसी बंद क़िताब के पन्ने

कोई सदा देते हों

कि जैसे पुराने खतों की खुश्बू

गुदगुदाती हो

कोई पुरानी तस्वीर

जैसे बोलने को बे-करार हो

कि जैसे वक़्त का टुकड़ा कोई ,

गुज़र कर भी नहीं गुज़रता है

कभी जब तुम नहीं रहते ,…

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Added by ajay sharma on November 16, 2013 at 11:00pm — 12 Comments

कुण्डलियां

पूछे  कौन गरीब  को, धनिकों  की जयकार .

धन के माथे  पर मुकुट, और गले  में हार ..

और  गले  में  हार , लुटाती  दुनिया मोती .

आवभगत हर बार, अगर धन हो तब होती .

'ठकुरेला'  कविराय , बिना  धन  नाते छूछे  .

धन की ही मनुहार,बिना धन जग कब पूछे .

जनता उसकी ही हुई , जिसके  सिर पर ताज.

या फिर उसकी हो सकी ,जो  हल करता काज ..

जो हल करता काज,समय असमय सुधि लेता.

सुनता  मन  की बात , जरूरत पर कुछ देता  .

'ठकुरेला'  कविराय…

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Added by Trilok Singh Thakurela on November 16, 2013 at 8:00pm — 16 Comments

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ - हजज मुसम्मन सालिम

जहाँ से अब ज़रा चलने कि तैयारी करो बिस्मिल

वहम में जी लिए कितना कि बेदारी करो बिस्मिल

जमाने ने किसे रहने दिया है चैन से अब तक

पुरानी बात छोड़ो खुद को चिंगारी करो बिस्मिल

बुरा हो वक़्त कितना भी न घबराना कभी इस से

गया अब वक़्त गर्दिश का न दिल भारी करो बिस्मिल

ग़रीबों का दुखाना मत कभी भी दिल मेरे दोस्त

दुआ किसकी मिलेगी फिर जो ज़रदारी करो बिस्मिल

सवर जाये अगर इस से बुरा क्या है ज़रा सोंचो

कभी इस मुल्क की…

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Added by Ayub Khan "BismiL" on November 16, 2013 at 8:00pm — 25 Comments

कुंडलिया छंद - लक्ष्मण लडीवाला

नारी पीड़ा सह रही, मन में है अवसाद,

संत वेश में घूमते, दुष्कर्मी आजाद  |

दुष्कर्मी आजाद, सताते नहीं अघाते 

करे नहीं परवाह,  गंदगी यूँ फैलाते |

राजनीति का मंच, भरे अपराधी भारी,   

हमको यही मलाल,कष्ट में अबला नारी |

(2)

गांधी के इस देश में, हिंसा है आबाद,

निरपराध है जेल में, सौदागर आजाद |

सौदागर आजाद, कर रहे भ्रष्टाचारी

इनमे है उन्माद, कष्ट में जनता सारी

जागरूकता रोक सके अपराधी आंधी,          

जनता पर ही भार,सहे…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 16, 2013 at 7:00pm — 9 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : बलात्कार (गणेश जी बागी)

"इंस्पेक्टर प्लीज़ लॉज माय एफ आई आर",  आधुनिक परिधान पहने खूबसूरत युवती गॉगल्स को सर पर चढ़ाते हुए रौबदार आवाज़ मे बोली  | 
"मैडम कृपया बैठिए और आराम से बताइए कि आख़िर बात क्या हुई" 
"इंस्पेक्टर, उसने मेरा रेप किया है, मैं उसके खिलाफ केस दर्ज करवाने आई…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 16, 2013 at 12:00pm — 52 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते (ग़ज़ल "राज")

२१२२   २१२२  २१२२  २

बह्र- "रमल मुसम्मन महजूफ"

.

मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते

ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते

 

इक  समंदर हम नया दिल में बसा देते …

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Added by rajesh kumari on November 16, 2013 at 10:00am — 44 Comments

गजल-लाश मुहब्बत की उठाता फिरता हूँ

लाश मुहब्बत की उठाता फिरता हूँ
गीत गमों के गुनगुनाता फिरता हूँ

काश के मिल जाये खुशी का पल कोई
हाथ फकीरों को दिखाता फिरता हूँ

नींद हमें आती नहीं दुनिया वालो
साथ सितारों को जगाता फिरता हूँ

हो न अँधेरा आशियाने में उनके
सोच यही खुद को जलाता फिरता हूँ

खूब किया है फैसला किस्मत तूने
जख्म भरे दिल को छुपाता फिरता हूँ

उमेश कटारा
मौलिक एंव अप्रकाशित



Added by umesh katara on November 16, 2013 at 8:55am — 17 Comments

ग़ज़ल : जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

 

जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम

 

जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम

करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम

 

कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला

दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम

 

यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा

तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम

 

उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2013 at 11:34pm — 30 Comments

सलाम अर्ज है ....

सुनो !!

वक्त मत लिया करो ... 

समय से तारीफ करा करो 

हाँ मगर सच्ची तारीफ़ें 

और समय से मुबारकें 

तुम्हारी दुआ कबूल हो 

उस खुदा को मंजूर हो 

जिसने मुझे भेजा यहाँ 

तुम जैसे दोस्तों के दिलों में

मिला एक आसियाँ

मैं कितना भी उड़ लूँ 

आज मगर सच कहता हूँ 

प्यार से अपने बांध लेते हो 

वरना मैं क्या होता हूँ 

मुस्कराहट में मेरी, तुम्हारी नज़र है 

कलम से कुछ नाराज़ अक्षर हैं 

वरना कहाँ मैं तुमसे…

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Added by Amod Kumar Srivastava on November 15, 2013 at 10:16pm — 9 Comments

बदलाव

 वस्ल की उस रात को जमाने गुजर गए

शराब अभी भी वही है बस पैमाने बदल गए

 

शाम की गुल रंग हवा का कुछ ऐसा असर है

लबो पे सजे गम के सब तराने बदल गए  

 

अब कौन संभालेगा कौन गले से लगाएगा

बचपन के वो सब दोस्त पुराने बदल गए

 

अब कौन यहाँ जबान और कुल है देखता

अब तो वो चोहद्दर वो राजघराने बदल गए

 

अब चढ़ते छप्पर को हाथ लगाने कोई नहीं आता

अब तो गाँव के वो सीधे लोग सयाने बदल गए

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by डॉ. अनुराग सैनी on November 15, 2013 at 9:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल -निलेश 'नूर' ---ख़ुशबू

२ १ २  २   १ १ २ २  १ १ २ २, २ २ /११२



दिल के ज़ख्मों से उठी जब से गुलाबी ख़ुशबू,

शह्र में फ़ैल गई मेरी वफ़ा की ख़ुशबू.

...

ये महक, बात नहीं सिर्फ हिना के बस की,  

गोरी के हाथों महकती है पिया की ख़ुशबू.

...

फूल को ख़ुद में समेटे हुए थी कोई क़िताब,

फूल से आने लगी आज क़िताबी ख़ुशबू. 

...

वो कडी धूप में निकले तो हुआ यूँ महसूस,

जैसे निकली हो पसीने में नहाती ख़ुशबू.  

....

चंद लम्हात गुज़ारे थे तुम्हारे नज़दीक़,  …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 15, 2013 at 7:41am — 17 Comments

ग़ज़ल- सारथी || तमन्ना जाग उठती है ||

तमन्ना जाग उठती है , तेरे कूचे में आने से

तेरे चिलमन हटाने से जरा सा मुस्कुराने से/१ 

अजब ही दौर था जालिम ग़ज़ल की नब्ज़ चलती थी

मेरी पलकें उठाने से तेरी पलकें झुकाने से/२ 

कहीं जाओ मगर अच्छे मकां मिलते कहाँ हैं अब

हमारे दिल में आ जाओ, ये बेहतर हर ठिकाने से/३ 

पतंगों सा गिरा कटकर तेरी छत पर अरे क़ातिल

कि बाहों उठाले तू किसी तरह बहाने से/४ …

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Added by Saarthi Baidyanath on November 14, 2013 at 11:00pm — 15 Comments

गुफ्तगू

जो बातें होठों तक न आ पाएँ 

उसे कागजों पर 

उकेरा करो .... 

दिल में न रखा करो 

ओंठ न सिया करो 

कुछ बातें लिखनी मुश्किल हो 

तो आँखों से कह दिया करो 

जब तन्हा हुआ करो 

तो आवाज़ दिया करो 

जो हसरत तेरी चाहत मे हो 

मेरे दामन से ले लिया करो 

गुफ्तगू

जम कर किया करो ....

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Amod Kumar Srivastava on November 14, 2013 at 10:30pm — 10 Comments

जहरीली शराब

टूटी चूड़ियाँ

बह गया सिन्दूर

साथ ही टूटा

अनवरत

यंत्रणा का सिलसिला

बह गया फूटकर

रिश्तों का एक घाव

पिलपिला

अब चाँद के संग नहीं आएगा

लाल आँखें लिए

भय का महिषासुर

कभी कभी अच्छा होता है

असर

जहरीली शराब  का ..

... नीरज कुमार ‘नीर’

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on November 14, 2013 at 8:30pm — 32 Comments

ग़ज़ल - अक्षरों में खुदा दिखाई दे !

ग़ज़ल –

२१२२ १२१२ २२

अक्षरों में खुदा दिखाई दे

अब मुझे ऐसी रोशनाई दे |

 

हाथ खोलूं तो बस दुआ मांगूँ,

सिर्फ इतनी मुझे कमाई दे |

 

रोशनी हर चिराग में भर दूं ,

कोई ऐसी दियासलाई दे |

 

माँ के हाथों का स्वाद हो जिसमें,

ले ले सबकुछ वही मिठाई दे |

 

धूप तो शहर वाली दे दी है,

गाँव वाली बरफ मलाई दे |

 

बेटियों को दे खूब आज़ादी ,

साथ थोड़ी उन्हें हयाई दे…

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Added by Abhinav Arun on November 14, 2013 at 7:45pm — 41 Comments

मंदिरों में है बसेरा मस्जिदों में घर तेरा

मंदिरों में है बसेरा मस्जिदों में घर तेरा 

ऐ परिन्दा बोल आख़िर कौन है रहबर तेरा ?



तेरे ज़ख्मों को भरेगा कौन ऐ हिन्दोस्तां ?

मुददतों से है पड़ा बीमार चारागर तेरा 



अम्न के दुश्मन ने फिर ओढ़ा है चाँदी का नक़ाब 

हो न जाये बेअसर इस बार भी पत्थर तेरा 



इस तरफ मोहताज टूटी खाट को आम आदमी 

उस तरफ मख़मल पे सोता है हर इक नौकर तेरा



सोच दिल पे हाथ रखकर ऐ वतन के नौजवां 

हादसों के बाद क्यों आता है नाम अक्सर तेरा

.

"मौलिक व…

Continue

Added by Sushil Thakur on November 14, 2013 at 4:30pm — 16 Comments

दोहे : अरुन शर्मा 'अनन्त'

मन से सच्चा प्रेम दें, समझें एक समान ।
बालक हो या बालिका, दोनों हैं भगवान ।।

उत्तम शिक्षा सभ्यता, भले बुरे का ज्ञान ।
जीवन की कठिनाइयाँ, करते हैं आसान ।।

नित सिखलायें नैन को, मर्यादा सम्मान ।
हितकारी होते नहीं, क्रोध लोभ अभिमान ।।

ईश्वर से कर कामना, उपजें नेक विचार ।
भाषा मीठी प्रेम की, खुशियों का आधार ।

सच्चाई ईमान औ, सदगुण शिष्टाचार ।
सज्जन को सज्जन करे, सज्जन का व्यवहार ।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by अरुन 'अनन्त' on November 14, 2013 at 3:00pm — 23 Comments

बाल दिवस पर

क्या  कभी देखा है 

छोटे - छोटे बच्चो को

कूड़ा बीनते 

या फिर किसी होटल में

जूठे प्याले धोते 

या फूटपाथ पर जूते सिलते

या किसी सेठ की

भव्य दूकान  में

अपनी उम्र और वज़न से

ज्यादा  बोझ उठाते

या श्रम करते ?

तो क्या यही सचमुच

भारत के बच्चे है,

देश के भविष्य है ?

क्या इन बच्चो के

प्यारे-प्यारे मन में 

हमने कभी झाँका है ? 

क्या उनके सपनो को

जग ने कभी नापा…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 14, 2013 at 8:30am — 11 Comments

फिर बारिशें होने लगती हैं......

फिर बारिशें होने लगती हैं......



कभी कभी

एक दावानल सा भड़क जाता है

मन के

हरे भरे /महकते

चहचहाते /किलोल करते

गर्जनाओं और वर्जनाओं के / जंगल में

डर

चीखों और चीत्कारों के साथ

हावी हो जाता है....

बेचैनी / घबराहट / घुटन / यंत्रणा

जैसे शब्द

किसी क्षण की चरम स्थितियों…

Continue

Added by dr lalit mohan pant on November 14, 2013 at 1:30am — 11 Comments

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