For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -निलेश 'नूर'- रहा देर तक भटकता

२२१ २/१२२ /२२१ २/१२२
.
मेरा जह्न बुन रहा है, हर रब्त रब्त जाले,
पढता ग़ज़ल मै कैसे, लगे हर्फ़ मुझ को काले.
...

मेरी धडकनों का मक़सद मेरी जिंदगी नहीं है,
के ये जिंदगी भी कर दी किसी और के हवाले. 
...

मेरी नाव डूबती है, तेरे साहिलों पे अक्सर,
मुझे काश इस भँवर से तेरी आँधियाँ निकाले.  
...

अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का,
मेरा दम निकल रहा है, मुझे गोद में समा ले.
...

रहा देर तक भटकता किसी छाँव के लिए वो,
बिस्मिल हुआ है सूरज, हुए जिस्म पे है छाले.   
...

चलो ‘नूर’ जिंदगी में, ये रहा उधार मुझ पर,
मेरी शाइरी तुम्ही से, सभी रंग तुमने डाले. 
.........................................................
मौलिक व अप्रकाशित 
निलेश 'नूर'

Views: 906

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 12, 2013 at 9:10am

 आप सभी का आभार 

Comment by ajay sharma on December 11, 2013 at 10:59pm

too आ सके, to too aa अभी , तुझे वास्ता ख़ुदा का,..  

sab se sab sher ...........dil ko bar bar padne ko mazboor karte hai ........ wah wah wah wah .....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 22, 2013 at 10:57am

जय हो .. .  

अलिफ़ वस्ल की महीनी से मैं तनिक चूक गया था, आदरणीय. .. :-))))

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 22, 2013 at 6:33am

आदरणीय Saurabh Pandey सर 
अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का इस मिसरे की तक्तीअ कुछ यूँ की है ..
.
अ-१/ग़-१/ र +आ =रा -२ / स- १/के-२ // अ-१/भी -२/ आ-२ // तु -१/झे-१ (लघु)/ वा-२ / स-१/ता-२// खु-१/ दा-२/ का-२ (११२१२/१२२//११२१२/१२२).
इसमें यदि कुछ चूक रह गई हो तो बेझिझक लिखे. मेरा लालच  है की रचना सुधर जाए.
आभार
आदरणीय गिरिराज जी, अरुण जी, शिज्जू जी ... आप सब का दिल से आभार. आप से सहमत मै भी हूँ शिज्जू जी कि अरकान लिखना चाहिए ... लेकिन सच में मुझे नहीं समझता ये सब ...बैट हाथ में है .. बॉल आएगी तो चौका मार लूँगा ... स्ट्रेट ड्राइव है या कवर ड्राइव ये नहीं पता.. एक ग़ज़ल सुनी गुलाम अली साहब की तो लगा की इस पर लिखना चाहिए..                     


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 22, 2013 at 12:42am

सुन्दर चर्चा के लिए सुधीजनों का आभार.

एक अच्छी कोशिश के लिए हार्दि बधाई, आदरणीय.

अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का,..  इस मिसरे कोफिर से देख लें . 

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 21, 2013 at 4:29pm

आदरनीय नीलेश भाई , बहुत सुन्दर गज़ल कही है , तहे दिल से मुबारक़ बाद किबूल करें !!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 21, 2013 at 11:42am

आदरणीय निलेश जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकारें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 21, 2013 at 8:33am

आदरणीय निलेश जी मैं अपनी बात पे कायम हूँ ये बेमिसाल गज़ल है। इस बह्र पे निभाना वाकई मुश्किल है आपने बहुत खूबसुरती से निभाया है, दिली दाद कुबूल करें।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 21, 2013 at 8:30am

आदरणीय Rana Pratap Singh जी; Shijju Shakoor जी; शकील जमशेदपुरी जी;  CHANDRA SHEKHAR PANDEY जी 
ग़ज़ल पुन: प्रस्तुत है आप सभी सेवा में ...तक्तीअ भी नए सिरे से की है.
आप सभी का आभार जो रेलेवेंट प्रश्न उठाए आप ने जिससे मेरा मार्गदर्शन हुआ है ... स्नेह इसी प्रकार बनाए रहें ..
ग़ज़ल पेश है  

११ २१ २/१२२ /११२१ २/१२२

मेरा जह्न बुन रहा है, तेरे नाम से ये जाले,
मै ग़ज़ल जो पढना चाहूँ, मुझे हर्फ़ लगते काले.  
.    

मेरी धडकनों का मक़सद मेरी जिंदगी नहीं है,
मैंने जिंदगी भी कर दी किसी और के हवाले. 
.

मेरी नाव डूबती है, तेरे साहिलों पे अक्सर,
मुझे काश इस भँवर से कोई मौज अब निकाले.  
.

अगर आ सके, अभी आ, तुझे वास्ता ख़ुदा का,
मेरा दम निकल रहा है, मुझे गोद में समा ले.
.

रहा देर तक भटकता किसी छाँव के लिए वो, 
हुआ आफ़ताब बिस्मिल, हुए जिस्म पे है छाले.  

चलो ‘नूर’ जिंदगी में, ये रहा उधार मुझ पर, 
मेरी शाइरी तुम्ही से, सभी रंग तुमने डाले.  
.......................................................

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 21, 2013 at 7:26am

शुक्रिया आदरणीय 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Wednesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Tuesday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त डकारकर कतरा - कतरा मज्जाजब जानवर मना रहे होंगे…See More
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
Tuesday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
Sunday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service