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ग़ज़ल -निलेश 'नूर'-किसी के दिल से

1212 1122 1212 22  
...

किसी के दिल से, निगाहों से जो उतर जाए,
भला वो शख्स अगर जाए तो किधर जाए.
...

बहुत उड़ान ये भरता है आसमानों की,  
कोई तो चाँद के दो चार पर क़तर जाए.
...

सुलग रहे है जुदाई की आग में हम तुम,
इस आरज़ू में जले है, ज़रा निखर जाए.
...

पता नहीं हैं हुई क्या हमारी मंज़िल अब,
निकल पड़े हैं जिधर लेके रहगुज़र जाए. 
...

सँभालियेगा इसे आप अब नज़ाक़त से,
कहीं न दिल ये मेरा टूट कर बिखर जाए.
...

हुई जो आँख मेरी बंद, ‘नूर’ फैल गया,  
दिखे ख़ुदा ही मुझे अब जिधर नज़र जाए.  
......................................................
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2023 at 8:12am

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 20, 2013 at 8:38am

शुक्रिया भाई जितेन्द्र जी.

आदरणीय  Saurabh Pandey जी; आप की सलाह मेरे लिए आज्ञा तुल्य है.... इस शेर में मुझे भी अटकाव या कुछ खालीपन लग रहा था ... मिने कमेंट्स में उस शेर को नया रूप दिया है
.
सुलग रहा हूँ जुदाई की आग में पल पल,
इस आग से ही मेरी रूह भी निखर जाए.
आशा है इस बदलाव से शेर थोडा बेहतर हो गया है....
मै सदैव आप सभी के सुझावों के प्रति संवेदनशील रहा हूँ .... इससे मेरी सीखने की प्रक्रिया को गति मिलती है और हर सुझाव के साथ एक नया नजरिया भी मिलता है... आप सभी के स्नेह हेतु कोटिश: आभार    

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 20, 2013 at 8:09am

बहुत सुंदर गजल, एक एक शेर जानलेवा है, यह शेर खास पसंद आये, दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय निलेश जी

किसी के दिल से, निगाहों से जो उतर जाए,
भला वो शख्स अगर जाए तो किधर जाए.
.

पता नहीं हैं हुई क्या हमारी मंज़िल अब,
निकल पड़े हैं जिधर लेके रहगुज़र जाए. 

.

हुई जो आँख मेरी बंद, ‘नूर’ फैल गया,  
दिखे ख़ुदा ही मुझे अब जिधर नज़र जाए.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 19, 2013 at 8:26pm

आदरणीय नीलेश नूर जी, जिस अंदाज़ से आप कोशिश करते हैं वह बस चकित कर देता है.
मतले के लिए बार-बार बधाई. साफ़ है, दिल से कहा गया मतला है ये. और, ऐसी कहन बस मुग्ध कर देती है.

बहुत उड़ान ये भरता है आसमानों की
कोई तो चाँद के दो-चार पर कतर जाये
इस शेर में आपने दिल की आह और हताशा को कितनी मुलामियत से बयां किया है .. वाह !
ढेरों दाद है इस सुन्दर शेर के होने पर.


लेकिन हुज़ूर,
सुलग रहे है जुदाई की आग में हम तुम,
इस आरज़ू में जले है, ज़रा निखर जाए.... ये क्या किया आपने ? आप महाराष्ट्र से हैं, यह पहली बार कहना पड़ रहा है.. :-))

बुरा न मनियेगा, सर. लोग-बाग मेरे कहे का अक्सर बहुत बुरा मान लेते हैं.. (और अपना ही अहित कर लिया करते हैं.. हा हा हा हा..)

इस शेर को क्यों न ऐसा करें -

सुलग रहे हैं जुदाई की आग में हम-तुम,
जिस आरज़ू में जले हैं, ज़रा निखर जाए... . .मज़ा आया न !

एकबार फिर से बधाई और सादर प्रणाम !
:-)))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 19, 2013 at 6:39pm

हुई जो आँख मेरी बंद, ‘नूर’ फैल गया,  
दिखे ख़ुदा ही मुझे अब जिधर नज़र जाए............बहुत सुन्दर शेर 

पूरी ग़ज़ल पसंद आयी..हार्दिक बधाई आ० निलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 19, 2013 at 3:04pm

शुक्रिया सभी मित्रों और गुरुजनों का,
एक त्रुटी ध्यान में आई है
सुलग रहे है जुदाई की आग में हम तुम,
इस आरज़ू में जले है, ज़रा निखर जाए..... में जाएँ होना चाहिए लेकिन इससे रदीफ़ बिगड़ रहा है अत: इस शेर में तरमीम कर रहा हूँ ...बदला हुआ शेर कुछ यूँ पढ़ें ..
सुलग रहा हूँ जुदाई की आग में पल पल,
इस आग से ही मेरी रूह भी निखर जाए.
.
पुन: आभार

 
 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 19, 2013 at 1:00pm

क्या बात है आदरणीय नीलेश जी

इक इक अशआर शानदार और लाजवाब है

हर शेर पर दिली दाद हाजिर है

जय हो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 19, 2013 at 11:21am

बहुत उड़ान ये भरता है आसमानों की,  
कोई तो चाँद के दो चार पर क़तर जाए.------हाय हाय दूसरों का सुख क्यों नहीं हजम होता लोगों को ....हाहाहा ,बहुत बढ़िया शेर लगा यह ,शानदार ग़ज़ल हुई है दाद कबूले नीलेश जी 
...

Comment by vijay nikore on November 19, 2013 at 10:23am

सुन्दर गज़ल के लिए बधाई।

 

Comment by नादिर ख़ान on November 18, 2013 at 9:37pm

हुई जो आँख मेरी बंद, ‘नूर’ फैल गया,  
दिखे ख़ुदा ही मुझे अब जिधर नज़र जाए.  

बहुत ख़ूब... आदरणीय नीलेश जी ..बधाई ....

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