221 2121 1221 212
ये सिलसिले भी इश्क के हमसे खफा मिले ।
अक्सर मेरे रकीब जमानत रिहा मिले ।।
किस्मत की बेवफाई जरा देखिये हुजूर ।
जितने सनम मिले सभी शादी शुदा मिले ।।
जब भी उठे नकाब हिदायत के नाम पर ।
क्यों लोग आईने में हक़ीक़त ज़ुदा मिले ।।
चर्चा , लिहाज़ उम्र का , उसको नही रहा ।
कुछ तितलियों के फेर में अक्सर फ़िदा मिले।।
अक्सर हबस के नाम पे मरता है आदमी ।
मासूम सी अदा में ढ़ले बेवफा मिले ।।…
Added by Naveen Mani Tripathi on November 22, 2016 at 11:30pm — 15 Comments
Added by gaurav kumar pandey on November 22, 2016 at 5:10pm — 6 Comments
लाडो ....
माँ
मैं तो
लाडो ही रहना चाहती थी
तुम्हारी लाडो
नाचती
कूदती
प्यारी सी लाडो
समय ने कब
बचपन की दीवारों में सेंध मारी
पता ही न चला
ज़माने की निगाहों ने
कब ज़िस्म को
छीलना शुरू किया
ख़बर ही न हुई
मैं
तिल तिल करती
मेहंदी की दहलीज़ तक
आ पहुँची
किसी के हाथों में
तेरी लाडो
कैद सी हो गयी
कोई रस्म
तेरी लाडो की
तक़दीर बदल…
Added by Sushil Sarna on November 22, 2016 at 4:34pm — 10 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 22, 2016 at 1:15pm — 10 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 22, 2016 at 11:21am — 9 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 22, 2016 at 10:16am — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 22, 2016 at 7:00am — 6 Comments
व्यथित मन .....
कहते हैं
अंतर्मन की व्यथा को
कह देने से
हल्का हो जाता है
मन
कहा
आईने से
तो बिम्ब देख
और भी
व्यथित हो गया
मन
कहा
एकांत से
तो अंधेरों में
अट्टहास करती
असंख्य ध्वनियों ने
चीर डाला
व्यथित
मन
कहा
स्वप्न से
तो स्मृतियों के
सागर पर
मिल गया
मुझ जैसा ही
एक और
तन्हा
व्यथित
मन
देखा उसे
तो…
Added by Sushil Sarna on November 21, 2016 at 9:02pm — 10 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 21, 2016 at 6:30pm — 6 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 21, 2016 at 3:30pm — 7 Comments
2122 2122 2122 212
बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं
जिंदगानी से कजा की दूरियाँ कुछ भी नही
बागबाँ की है कमी या पस्त है आबो हवा
पाक नकहत फूल के अब दरमियाँ कुछ भी नही
मोल उसका गर न समझे तो बशर की भूल है
हम को कुदरत दे रही जो रायगाँ कुछ भी नही
आशिकों की मौत पे जो शम्मअ के दिल से उठे
नफरतों से जो निकलता वो धुआँ कुछ भी नही
फिक्र-ए-शाइर नापती कब से अज़ल की दूरियाँ
उसके आगे…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 21, 2016 at 12:00pm — 16 Comments
Added by नाथ सोनांचली on November 21, 2016 at 5:30am — 7 Comments
ट्राफ़िक पुलिस को देख उसे आईडिया आया । उसने झट अपनी बाईक किनारे लगाई, हेलमेट सिर से उतारकर बाईक के पीछे लटकाया । उस नोट बंदी के मारे ने, धड़धड़ाते हुये बाईक लेजाकर इन्स्पेक्टर के सामने रोकी ।
“सर, मेरा चालान काटिये मै हेल्मेट नही पहना हूं ।“ वह बोला ।
इन्स्पेक्टर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा । पूछा – “दो सौ रुपये छुट्टे है ?”
उसने इन्कार मे सर हिलाया ।
“ठीक है, जब छुट्टे होंगे तब आना ।“ इन्स्पेक्टर ने कहा ।
“सर, आज ही …”
“ऐसा है बेटा । अपना हेल्मेट सिर पे…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on November 21, 2016 at 1:09am — 5 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 20, 2016 at 4:30pm — 16 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 20, 2016 at 4:18pm — 7 Comments
ग़ज़ल
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212 -212 -2121 /212
उसपे वारा है जीवन तमाम ।
जिस में मौजूद हैं फ़न तमाम ।
सख़्त लहजे का अंजाम है
हो गए तुझ से बद ज़न तमाम ।
उनको देखूंगा जब तक नहीं
दिल की होगी न धड़कन तमाम।
अबतो आ जाओ बन कर बहार
उजड़ा उजड़ा है गुलशन तमाम ।
किस को सौंपें क़यादत भला
रहबरों में हैं रहज़न तमाम ।
पूछना है तो बिजली से पूछ
किस ने फूंके नशेमन तमाम ।
इश्क़ तस्दीक़ आसाँ…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on November 20, 2016 at 2:25pm — 10 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
इंसानी फितरत के जलवे दिन ये कैसे आये हैं
सन्नाटा गलियों में छाया संगीनों के साये हैं
चप्पे-चप्पे पर दिखता है आतुर सैनिक का पहरा
धरती की रक्षा करने की शत-शत कसमे खाये हैं
कुछ तो अजगुत कहता है यह सघन सुरक्षा का घेरा
क्या फिर से तारामंडल में घन संकट के छाये हैं
पोथी लेकर भोली बाला घूम रही वीराने में
अक्षर ने शब्दों से मिल कर गीत सुहाने गाये हैं
खौल रहा है खून वतन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2016 at 7:27pm — 4 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 19, 2016 at 4:22pm — 8 Comments
Added by Ravi Prakash on November 19, 2016 at 2:24pm — 6 Comments
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