(मफ़ाईलुन -मफ़ाईलुन- फ़ऊलन)
मैं क़िस्मत आज़माई कर रहा हूँ |
शुरूए आशनाई कर रहा हूँ |
चुरा कर वो नज़र कहते यही हैं
मैं उनसे बेवफ़ाई कर रहा हूँ |
दिया है सिर्फ़ शीशा एब जू को
मैं कब उसकी बुराई कर रहा हूँ |
जमी जो धूल दिल के आइने पर
उसी की मैं सफ़ाई कर रहा हूँ |
सितमगर सिर्फ़ हक़ माँगा है अपना
मैं कब बेजा लड़ाई कर रहा हूँ |
परख लेना कभी भी वक़्ते मुश्किल
नहीं मैं ख़ुद नुमाई…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on January 31, 2018 at 12:30pm — 13 Comments
न किंचित स्वार्थ हो हिय औ', भुला कर वैर जो सारे।
अमीरी औ' गरीबी के, मिटा कर भेद सब प्यारे!
करें सहयोग हर जन का, सभी के काम जो आते।
सदा वे श्रेष्ठ जन जग में, सुयश-सम्मान हैं पाते।।1।।
धरे हिय धैर्य औ' साहस, निरन्तर यत्न जो करते।
न किंचित राह की बाधा, न मुश्किल से किन्हीं डरते।
सहें हर यातना पथ की, शिखर पर किन्तु चढ़ते हैं।
वही प्रतिमान नव बन कर, अमिट इतिहास गढ़ते हैं।।2।।
सदा सुरभित सुमन बन कर, दिलों में जो यहाँ खिलते।
भुला कर…
Added by रामबली गुप्ता on January 31, 2018 at 11:54am — 7 Comments
/माँ की चिंता//
''माँ तुम आज फिर,अब तक जाग रही हो? कितनी बार समझा चुकी हूँ कि ठंडी रातों में इतनी देर तक जागना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।"
फिर से अस्थमा का दौरा पड़ सकता है। तुम समझने का नाम ही नहीं लेती हो!
आई बड़ी समझाने वाली। 'बेटी, मेरी चिंता छोड़, जीना ही कितने दिन है।' और "जिसकी बेटी देर रात तक काम से लौटे उस माँ को नींद कहाँ से आएगी।"
माँ दरवाजे पर ही टकटकी लगाये बैठी थी।
'बेटी तेरा काम क्या है?' कहाँ काम पर जाती है?' किसके घर काम पर जाती...
बेटी ने बीच…
Added by Vijay Joshi on January 30, 2018 at 9:37pm — 5 Comments
कड़कड़ाती ठंड में वसुधा की कँपकपि असहाय हो रही थी। सूरज को इसकी खबर हुई तो वह बहुत दूर अपनी वार्षिक यात्रा पर था। शीघ्र लौट कर सब ठीक करने का आश्वासन दिया। तो उसके लौटने की खबर से ही, ठंड ने अपना दायरा समेटना शुरू कर लिया।
वसुधा अपने नैसर्गिक रूप में पुनः खिलखिलाने लगी। वसुधा नव यौवना सी मुस्कान लिए साजन से मिलन के सतरंगी सपने सजाने लगी। हाथों में मेहँदी रंग रचने लगा।
पतझर से प्रकृति ने धरा पर रांगोली सजाई। तो वन उपवन में अमलताश ,पलाश, शिरीष , ने वसुधा के लिए वंदनवार सजाएं।…
Added by Vijay Joshi on January 30, 2018 at 9:00pm — 3 Comments
221 2121 1221 212
सच्ची जो बात है वो छुपाई न जाएगी ।
झूठी कसम तो आप की खाई न जाएगी ।।
बस हादसे ही हादसे मिलते रहे मुझे ।
लिक्खी खुदा की बात मिटाई न जाएगी ।।
चेहरे हैं बेनकाब यहाँ कातिलों के अब।
लेकिन सजाये मौत सुनाई न जाएगी ।।
ज़ाहिद खुदा की ओर मुखातिब न कर मुझे ।
काफ़िर हूँ मैं नमाज़ पढ़ाई न जाएगी…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 30, 2018 at 6:00pm — 7 Comments
Added by प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' on January 30, 2018 at 2:48pm — 11 Comments
घुटन – लघुकथा -
"जुम्मन मियाँ, यह क्या हो गया हमारे शहर को। तिरंगा फ़हराने को लेकर दंगा फ़साद और मोतें"?
"सुखराम जी, यह केवल हमारे शहर का मसला नहीं है। ऐसी खतरनाक़ हवायें तो सारे देश में चल रहीं हैं। कहीं झंडे को लेकर, कहीं गाय को लेकर और कहीं मंदिर के बहाने"।
"अरे मियाँ, आजकल तो बलात्कार की भी बाढ़ सी आगयी है। वह भी नाबालिग बच्चियों के साथ। पता नहीं, ईश्वर कहाँ सोया पड़ा है"?
"सुखराम भाई, सब कुछ ईश्वर के भरोसे थोड़े ही चलता है। हमारी सरकार और प्रशासन की भी तो कोई…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on January 30, 2018 at 2:15pm — 16 Comments
गजल
1222 1222 1222 1222
बताना है सभी को हम हलाली का ही खाते हैं
कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं
सियासत भी है अच्छी शय जिसे अक्सर बुरा माना
भले कुछ रहनुमा भी हैं जो सबके काम आते हैं
दिशा दक्षिण में सर्दी चल पड़ी मधुमास आते ही
चमन में गुल महक उट्ठे भ्रमर भी गुनगुनाते हैं
समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने उठाते हैं कभी अपने गिराते हैं
सलामत किस तरह दुनिया रहेगी आज 'राणा' बोल
भुलाकर लोग…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2018 at 7:00am — 15 Comments
बह्र - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फउल
न छत है न कोई भी दीवार है।
मेरा घर भी कितना हवादार है।
हुनरमन्द होकर भी बेकार है।
अजीबोगरीब उसका किरदार है।
जिसे दूर तक सूझता ही नहीं,
वही इस कबीले का सरदार है।
भले ही जुदा धड़ से सर होगया,
अभी भी मेरे सर पे दश्तार है।
वो शेखी पे शेखी बघारे तो क्या,
सभी जानते हैं वो मुरदार है।
दवा का असर कोई होगा नहीं,
वो…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 29, 2018 at 9:49pm — 13 Comments
पर्वत जैसे दिन कटें ,रातें लगती भारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
अधरों पर मुस्कान है,उर के भीतर ज्वाला|
पीनी पड़ती सब्र की ,भीतर भीतर हाला||
बिस्तर पर जैसे बिछी,द्वी धारी कुल्हारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
सरहद से आई नहीं, अबतक कोई पाती|
जल जल आधी हो गई,इन नैनों की बाती||
चौखट पर बैठी रहूँ देखूँ बारी बारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 29, 2018 at 8:51pm — 16 Comments
जगण+रगण+जगण+रगण+जगण+गुरु
करे विचार आज क्यों समाज खण्ड खण्ड है
प्रदेश वेश धर्म जाति वर्ण क्यों प्रचण्ड है
दिखे न एकता कहीं सभी यहाँ कटे हुए
अबोध बाल वृद्ध या जवान हैं बटे हुए
अपूर्ण है स्वतन्त्रता सभी अपूर्ण ख़्वाब हैं
जिन्हें न लाज शर्म है वहीं बने नवाब हैं
अधर्म द्वेष की अपार त्योरियाँ चढ़ी यहाँ
कुकर्म और पाप बीच यारियां बढ़ी यहाँ
गरीब जोर जुल्म की वितान रात ठेलता
विषाद में पड़ा हुआ अनन्त दुःख…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on January 29, 2018 at 2:10pm — 5 Comments
हर वक्त ,
दिल -ओ- दिमाग में,
एक बहस सी छिड़ी रहती है-
कितना लड़ते हैं, दोनों आपस में-
कुछ पल के लिए, एक हो भी जाते हैं
मगर फिर अगले ही पल
" मैदान -ए- जंग" ।
और मैं !
एक निहत्थे प्यादे (सैनिक) की तरह ,
जो जीता -
उसी की तरफ।।
( मौलिक व अप्रकाशित)
Added by रक्षिता सिंह on January 29, 2018 at 10:38am — 4 Comments
विधाता छंद वाचिक मापनी का छंद है जिसमे 14, 14 मात्राओं पर यति और दो-दो पदों की तुकांतता होती है। इसका मापनी
1222 1222 1222 1222
पड़े जब भी जरूरत तो, निभाना साथ प्रियतम रे
सुहानी हो डगर अपनी, मिले मुझको न फिर गम रे
बहे सद प्रेम की सरिता, रगों में आपके हरदम
नहाता मैं रहूँ जिसमें, मिटे सब क्लेश ऐ हमदम
बने दीपक अगर तुम जो, शलभ बनके रहूँगा मैं
मिलेगी ताप जो मुझको, वहीं जल के मरूँगा मैं
फकत इतनी इबादत है, जुड़े तन मन…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on January 29, 2018 at 8:46am — 3 Comments
-उन्हें कुत्तों ने बुरी तरह काट खाया है।
-क्यूँ?
-उनकी बड़ाई करने की आदत जो न करा दे।
-बड़ाई?
-हाँ भई।उन्होंने कुत्तों को आदमी कह दिया था।
-अरे,घोर अनर्थ',अदीब चिल्लाया।@
Added by Manan Kumar singh on January 28, 2018 at 10:29pm — 2 Comments
वासन्ती-गीत
सुरीले दिन वसन्त के
मनहर,सरसाते दिन आये रसवन्त के
सुरीले दिन वसन्त के.....!
बहुरंगी बोछारे धरती पर बरसाते
ऋतुओ का राजा फिर आया हँसते गाते
पोर पोर पुलकित दिक् के दिगन्त के
सुरीले दिन वसन्त के......!
मस्ताना मौसम जनजीवन में थिरकन हैं
कान्हा की भक्ति मे खोया हर तन मन हैं
चित्त चपल, ध्यान मग्न, योगी और संत के
सूरीले दिन वसन्त…
ContinueAdded by नन्दकिशोर दुबे on January 28, 2018 at 7:30pm — 2 Comments
212 212 212 212
आज फिर वो मुझे याद आने लगे ।
भूलने में जिसे थे ज़माने लगे ।।
कर गई है असर वो मिरे जख़्म तक ।
इस तरह क्यूँ ग़ज़ल गुनगुनाने लगे ।।
दिल जलाने की साज़िश बयां हो गयी ।
बेसबब आप जब मुस्कुराने लगे ।।
अब बता दीजिये क्या ख़ता हो गयी ।
ख़ाब में इस तरह क्यों सताने लगे…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 28, 2018 at 4:03pm — 7 Comments
मुसीबतों से लोकतंत्र को, जल्दी उबारना होगा
निर्धनों के हक़ में देश में कानून बदलना होगा |
निर्धन नहीं खड़ा हो सकता, पार्षद के भी चुनाव में
लाखों रुपये चाहिए उसे, चुनाव दंगल लड़ने में |
गणतंत्र अभी धनतंत्र हुआ, धनाढ्य चुनाव लड़ते हैं
गरीब कैसे लडेगा भला, पास न लाखो रूपये हैं’ |
धनबल बाहुबल की प्रचुरता, ताकत बड़ी अमीरों की
निर्धनता ही कमजोरी है, इस देश के गरीबो की |
भ्रष्टाचार और महँगाई, साथ यौन शोषण भी…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on January 28, 2018 at 10:17am — 5 Comments
1212 1122 1212 22
गरीब खाने तलक रोटियां नहीं जातीं ।
तेरे जहान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं ।।
कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों का अब भी बहुत।
नए गगन में अभी ,बेटियां नहीं जातीं ।।
वो तोड़ सकता है तारे भी आसमाँ से मग़र ।
मुसीबतो की ये परछाइयां नहीं जातीं ।।
यकीं करूँ मैं कहाँ तक जुबान पर साहब ।
लहू से आपके खुद्दारियाँ नहीं जातीं…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 27, 2018 at 9:51pm — 9 Comments
1212 1122 1212 22
गरीब खाने तलक रोटियां नहीं जातीं ।
तेरे जहान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं ।।
कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों का अब भी बहुत।
नए गगन में अभी ,बेटियां नहीं जातीं ।।
वो तोड़ सकता है तारे भी आसमाँ से मग़र ।
मुसीबतो की ये परछाइयां नहीं जातीं ।।
यकीं करूँ मैं कहाँ तक जुबान पर साहब ।
लहू से आपके खुद्दारियाँ नहीं जातीं…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 27, 2018 at 9:49pm — 1 Comment
गीत - आरज़ू
अंजाने से सपने, अंजानी राह है,
पाना है तुझको ही, यह मेरी चाह है,
तेरे बिना ऐसे कैसे मैं जियुं,
चाहता हूँ साथ तेरे मैं रहूँ,
पूरी कर दे तू मेरी यह आरज़ू,
पूरी कर दे तू…
Added by M Vijish kumar on January 27, 2018 at 8:18pm — 4 Comments
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