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ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!

ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!

दिल दिल्ली का बहुत बड़ा, पाषाण हृदय है बहुत कड़ा।

(फिर भी) ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!

ना कोई चिन्ता ना ग्लानि, ना करुणावश बिलखानी

नीति नैतिकता के ह्रास पर,अनामिका की लाश पर,

ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!

बिसर गए कर्तव्यों पर, दिशाहीन वक्तव्यों पर,…

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Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 23, 2013 at 11:30am — 10 Comments

बचपन तुमसे मिलने आऊं मैं

बचपन तुम बार बार

पीछे से बुलाते हो |

एक दिन सोचूंगी मैं  

कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं  

तितलियों से आगे 

कागज का जहाज

उडाऊं मैं |

अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है

और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है

पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं

इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं

तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं…

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Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 23, 2013 at 11:00am — 14 Comments

!!! जय जय हनुमान !!!

!!! जय जय हनुमान !!!
(मकरी - कालनेमि राक्षस का उध्दार)

तारक तात तड़ाग तरावहिं, तापर तोष तना तन तावत।
दीन दयाल दया दम दानव, देवम दामन दास दिलावत।।
धारति धाय धरा धन धानम, धूल धमाल धरे धड़कावत।
नारद नाच नरेन्द्र निहारत, नाथ नरायन नाम नसावत।।

के0पी0सत्यम/मौलिक एव अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 23, 2013 at 8:58am — 9 Comments

छोड़ आए गाँव में...गजल

छोड़ आए गाँव में वो, ज़िंदगानी याद है।

सौंपकर पुरखे गए जो, वो निशानी याद है।

 

गाँव था सारा हमारा, ज्यों गुलों का इक चमन,

शीत, गर्मी, बारिशों की, ऋतु सुहानी याद है।

 

एक हो खाना खिलाना, रूठ जाने की अदा,

फिर मनाने मानने की, वो कहानी याद है।

 

छुप-छुपाते, खिलखिलाते, हँस हँसाते रात दिन,

फूल, बगिया, बेल-चम्पा, रात रानी याद है।

 

मुँह अँधेरे, त्याग बिस्तर, भागना भूले कहाँ?

हाथ में माँ से मिली, गुड़ और धानी याद…

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Added by कल्पना रामानी on April 22, 2013 at 10:30pm — 30 Comments

नष्ट पुरुष से हो चुका, नारिजगत का मोह-

छली जा रहीं नारियां, गली-गली में द्रोह ।

नष्ट पुरुष से हो चुका, नारिजगत का मोह |

नारिजगत का मोह, गोह सम नरपशु गोहन ।

बनके गौं के यार, गोरि-गति गोही दोहन ।…

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Added by रविकर on April 22, 2013 at 5:00pm — 3 Comments

अभिनंदन

प्रिय मित्र के अमेरिका से अपने देश" भारत " आने पर ,

आपका आपके देश भारत में , तहेदिल से स्वागत है .

                         …

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 22, 2013 at 5:00pm — 3 Comments

नवगीत

 मत तोड़ फूल को शाख से

झूमते झूलते संग हवा के

हिलोरें ले रही शाखाओं पर 

सज रहें ये खिले खिले पेड़

बहने दो संगीतमय लहर

यही तो गीत है जीवन का 

....................................

 रहने दो फूल को शाख पर 

वहीँ खिलने और झड़ने दो 

बिखरने दो इसे यूं ही यहाँ 

आकुल है भूमि चूमने इसे 

महकने दो आँचल धरा का 

सृजन होगा नवगीत यहाँ 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Rekha Joshi on April 22, 2013 at 4:33pm — 15 Comments

क्रांति

क्रांति 

-------

चिंता छोड़ो सुख से जियो 

पुस्तक हम भी ले आये 

विश्वास रहा न उनके ऊपर…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 22, 2013 at 3:24pm — 20 Comments

धरती का संताप

धरती का संताप

1

विलाप करती वसुमती – ‘ कह रही ‘

हे सागर ! उदधि महान !

उगता जब मेरे आँचल में

आकाश मण्डल दिशा

सूर्य चंद्र और नक्षत्र घटा

प्रताड़ित क्यों हूँ इतनी

बता !…

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Added by coontee mukerji on April 22, 2013 at 1:22pm — 11 Comments

कविता : मैं रसिक लाल, तुम फूलकली

आदरणीय गुरुजनों, अग्रजों, मित्रों एवं प्रिय पाठकों आप सभी को सादर प्रणाम. भौंरा और फूल पर आधारित उनके मिलन एवं विरह पर एक कविता लिखने का छोटा सा प्रयास किया है, आशा है आप सभी को पसंद आएगा.

रसिक लाल = भौंरे का नाम

मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.

मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

तुम मीठे रस की मलिका हो,

मैं प्रेमी थोड़ा पागल हूँ.

तुम मंद - मंद मुस्काती हो,

मैं होता रहता घायल हूँ.

मेरा तन काला,…

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Added by अरुन 'अनन्त' on April 22, 2013 at 11:21am — 25 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
सूरज से.. . // --सौरभ



ये साँझ सपाट सही

ज्यादा अपनी है



तुम जैसी नहीं



इसने तो फिर भी छुआ है.. .

भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  

बार-बार जिन्दा रखा है

सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को…



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Added by Saurabh Pandey on April 22, 2013 at 12:00am — 42 Comments

युधिष्ठिर के पाँसे...काव्य

कहा दुशाशन छः मामा जी, मामा छः ले आये

देख युधिष्ठिर मौन बैठकर, मन ही मन पछताये

चलो हुआ क्या आखिर जो मै, दाँव हार ये जाँऊ

हो सकता अबकी मै जीतूँ आगे खेल बढाऊँ

यही सोचकर धर्मराज ने, आगे खेल बढाये

लेकिन भैनों के मामा ने, फिर से छः ले आये

-----

क्या जाने अंधे काकाजी, शाशन किसे थमायें

जीत गया दुर्योधन से तो, राज सहज पा जायें

उनके मन से उस पांसे का, लेकिन मन ना मिलता

पूर्व चलें जो धर्मराज तो, पश्चिम पांसा चलता

अगर छोड दें बाजी आधी, गया हाथ… Continue

Added by manoj shukla on April 21, 2013 at 9:22pm — 14 Comments

प्रेम के मोती

प्रेम के मोती

नमवायु के शुष्क, जमे कण 

धरती की गर्माहट भरी 

सतह पर 

हो जाते हैं जब इकट्ठे 

तो बन जाते हैं कोहरा |

फिर यही कोहरा 

अस्त-व्यस्त कर देता है

जन जीवन को ,

धीमा कर देता है 

जिन्दगी की रफ़्तार को,

कारण बनता है

कई चिरागों के बुझने का,

साक्षी बनता है 

हृदय स्पर्शी चीत्कारों का|

वापिस भी मोड़ देता है 

आगे बढे हुए

कई क़दमों को,

धुंधला कर…

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Added by Usha Taneja on April 21, 2013 at 3:36pm — 18 Comments

हमने कौरव के हाथों पांचाली दी !

ग़ज़ल -

इस दुनिया ने जब भी कमाई काली दी ,

मेरे अंतरमन ने  मुझ  …

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Added by Abhinav Arun on April 21, 2013 at 1:58pm — 18 Comments

तत् त्वम् असि

हम हैं कौन, हमारी वास्तविक पहचान क्या है, क्या हम महज हाड़ मांस से बने शरीर मात्र हैं या इससे भी अलग हमारी कोई पहचान है।

ये प्रश्न सृष्टि के…

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Added by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on April 21, 2013 at 11:30am — 8 Comments

ये दिल आज भी मचलता है तुम्हारे लिए

ये दिल आज भी मचलता है तुम्हारे लिए।

अश्कों का दरिया बहता है तुम्हारे लिए।।

मैं जी नहीं पा रही हूँ तुमसे अलग होकर,

सीने में एक दर्द पिघलता है तुम्हारे लिए।।

जाने क्यों मैं आज भी ज़िंदा हूँ तुम्हारे बिन,

मैं आख़िर मर क्यों नहीं जाती तुम्हारे लिए।।

तू मेरी ज़िन्दगी,मेरी जान,मेरा सब कुछ है,

ये साँस आज भी चलती है सिर्फ़ तुम्हारे लिए।।

ताउम्र रहेगा तेरा इंतज़ार मुझको मेरे साथी,

मरकर भी ये आँखें खुली रहेंगी…

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Added by Savitri Rathore on April 20, 2013 at 11:30pm — 10 Comments

आखिर हम क्या हो गये ( कविता )

बचपन में हम कागज की नाव बनाया करते थे

पानी में उसे तैराया करते थे

कागज के हेलिकाप्टर उड़ाया करते थे

रेत के घर बनाया करते थे

निर्जीव गुड्डे- गुड्डियों की शादी रचाया करते थे

तितलियाँ प्यारी लगतीं थीं

वस्तुएं जिज्ञासा पैदा

करतीं थीं

बचपन का उमंग था

हौंसलों में दम था

यह आशंका नहीं थी

कि कागज की नाव डूबती है या नहीं

हेलिकाप्टर उड़ता है या नहीं

रेत का घर टिकता है या नहीं

तितलियाँ सहचर होती हैं या नहीं

ज्यों ज्यों हम बड़े… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 20, 2013 at 8:08pm — 11 Comments

दहशत |

चलो  मुसाफिर  देख लो , कहाँ होगा गुजार |
ना दे सहारा कोई   , फिर से करो विचार |
खंजर मारें  पेट में , दूर से  मेहमान |
 देख  चिच्लाते चीखते, खुश हों  बेईमान |
अब  किस पर यकीन करे,…
Continue

Added by Shyam Narain Verma on April 20, 2013 at 3:07pm — 3 Comments

आ भी जा इक पल को कभी यूँ भी

"ख्यालों से मेरे उतर आये सामने तू कभी

थम जाये ये वक़्त भी ,उस पल को वहीँ

आ भी जा इक पल को कभी यूँ भी…

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Added by Kedia Chhirag on April 20, 2013 at 10:57am — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी

आंखों देखी

बात फ़रवरी 1986 की है. भारत का पाँचवा वैज्ञानिक अभियान दल अंटार्कटिका में अपना काम समाप्त कर चुका था. शीतकालीन दल के सभी 14 सदस्य भारतीय अनुसंधान केंद्र “ दक्षिण गंगोत्री ” में पहुँच चुके थे. इस दल को अगले एक वर्ष तक यहीं रहना था. ग़्रीष्मकालीन दल के करीब सब अभियात्री 15 किलोमीटर दूर खड़े जहाज “ एम.वी. थुलीलैण्ड “ में थे. मौसम बेहद खराब हो जाने की वजह से एक दो वैज्ञानिक जहाज में नहीं पहुँच पाये थे. कुछ और औपचारिकताएँ बाकी थीं...इंतज़ार था मौसम के ठीक होने का. मौसम का आलम यह था…

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Added by sharadindu mukerji on April 20, 2013 at 4:07am — 10 Comments

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