Added by POOJA AGARWAL on May 10, 2013 at 11:00am — 8 Comments
मैं शाम को अपने घर पर बैठा टी वी देख रहा था. टी वी के एक न्यूज़ चैनल पर सामयिक विषयों पर गरमा गरम बहस चल रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो गजोधर भाई थे.
मैने कहा – "आइये !"
उन्होंने कहा – "आज यहाँ नहीं बैठूंगा. चलिए कहीं बाहर चलते हैं."
मैंने कहा- "ठीक है चलेंगे. आइये पहले चाय तो पी लें. फिर चलते हैं."
उन्होंने कहा – "चलिए न बाहर ही चाय पीते हैं."
मैं उनके साथ हो लिया. चाय के दुकान जिसमे अक्सर हमलोग बैठकर चाय पीते थे, वहाँ न रुक कर गजोधर भाई के साथ और…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on May 10, 2013 at 4:30am — 10 Comments
भारत तीर्थ
(कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता से क्षमायाचना सहित कुछ पंक्तियों का हिन्दी भावानुवाद)
ओ मेरे मन जागो जागो
पुण्य तीर्थ में धीरे,
भारत के जन-मानस के
सागर तीर में.
यहाँ खड़े कर बाहु प्रसारित
नर-नारायण को नमन करुँ मैं,
उदार छन्द में परम आनन्द से,
उनका आज वंदन करुँ मैं.
ध्यानमग्न है यह धरती -
नदियों की माला जपती,
यहीं नित्य दिखती है मुझको
पवित्र यह धरणी रे…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on May 10, 2013 at 12:50am — 6 Comments
सूखा !
मही मधुरी कब से तरस रही ,
बुझी न कभी एक बूँद से तृषा ,
घनघोर घटाएँ लरज लरज कर ,
आयी और बीत चली प्रातृषा .
ईख की जड़ में दादुर बैठे ,
आरोह अवरोह में साँस चले ,
पानी की अहक लिये जलचर ,
ताल हैं शुष्क सबके प्राण जले .
पथिक राह चले बहे स्वेदकण ,
पथतरू* से प्यास बुझाए मजबूरन , * traveller’s tree
दूर कोई आवाज़ बुलाए कल् कल्…
Added by coontee mukerji on May 9, 2013 at 10:30pm — 14 Comments
Added by दिव्या on May 9, 2013 at 3:30pm — 12 Comments
Added by Kavita Verma on May 9, 2013 at 1:02pm — 9 Comments
बहुत ख़ुशनसीब हैं
हम लोग
हमारे सिर पर
हाथ है माँ का
क्योंकि
माँ का आँचल
हर छत से ज़्यादा
मज़बूत होता है
सुरक्षित होता है…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on May 9, 2013 at 1:00pm — 12 Comments
इश्क के इम्तिहान से सनम यूँ घबरा गया,
छोड़ कर सागर मे कश्ती खुद किनारे आ गया ....
डूबने की चाहत उसे थी इश्क के दरियाओं मे ,…
Added by Roshni Dhir on May 9, 2013 at 12:30pm — 16 Comments
जाओ तुमको तुम्हारे हाल पे
मेने छोड़ दिया
तुमको इससे ज्यादा में और
दे भी क्या सकता था ...
देखो इस सूखे दरख्त को जिसने
बहुत फल खिलाये थे .. पर…
आज यहाँ परिंदा भी अपना
घोसला नहीं बनाता…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on May 9, 2013 at 12:08pm — 6 Comments
बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम
चोरी घोटाला और काली कमाई,
गुनाहों के दरिया में दुनिया डुबाई,
निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिशाचों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई,
दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,
हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,
गली मोड़ नुक्कड़ पे लाखों…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on May 9, 2013 at 12:00pm — 12 Comments
Added by KAVI DEEPENDRA on May 9, 2013 at 7:30am — 6 Comments
उम्मीद के चमन में सांसों सी हैं दुआएं।
सुख दुःख दो शिलाएं, इक आए इक जाए।।
हम दोस्त है सभी के
क्यों दुश्मनी निभाएं
सुन्दर भाव संवारें,
अन्तर्मन व्यथाएं ।।1उम्मीद के---
फूलों औ कलियों से
सुगन्धित हैं दिशाएं
अपनी ही आस्था से
बस प्यार को बढ़ाएं।।2 उम्मीद के---
मौसम आये जाये
खुशबहार-पतझड़ से
सुजन में खिन्नता है
दुर्जन खिल खिलाएं।।3 उम्मीद के---
कुछ शहंशाह ऐसे
जो मुल्क बेचते हैं
रोते उदास…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 8, 2013 at 9:26pm — 16 Comments
भिखारन की निष्ठा
मेरे घर के करीब भिखारियों का एक परिवार रहता था. चार बच्चे और पति – पत्नी. सुबह तड़के ही सभी घर से निकल जाते और गोधूली बेला तक सभी वापस आ जाते.
एक दिन क्या हुआ कि पति और बच्चे तो आ गये लेकिन भिखारन को आने में देर हो गयी . उसके आते आते रात के आठ बज गये. सभी भूखे थे. अतः भिखारन ने जल्दी से चावल की हांडी चूल्हे पर रख दी. चावल जब पक गया तो उसने अपने पति और बच्चों को पहले खिला दिया. बाद में जब वह खाने बैठी तो देखा हांडी में चावल के साथ एक छिपकली भी पक गयी है. भिखारन के…
Added by coontee mukerji on May 8, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
Added by manoj shukla on May 8, 2013 at 10:30am — 14 Comments
32 वर्णो का डमरू दण्डक ‘‘ल सब‘‘ अर्थात इसके बत्तीसों वर्ण लघु होते है।
‘‘कमल नमन कर तमस शमन कर, उजस उरन भर हरष सकल नर।
अपजस हर मन सब रस तन भर, कलश सगर सम हृदय तरल कर।।
हलधर मत कह जन मन भय डर, भग कर लठ लय तड़ तड़ तब मर।
हलधर जय जय भगवन छत धर, मन भय हर-हर भजन करत तर।।‘‘
भावार्थ- कमल आदित्य के समान ही समस्त तिमिर को नष्ट करने वाला, हृदयों मे उल्लास, ओज और सभी प्राणियों में हर्ष का संचार करके दुःखों और सारी विकृतियों को दूर करने वाला है। यह शुभ…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 8, 2013 at 8:00am — 12 Comments
ईश्वर ने चाहे मुझको
खुशियाँ कम दे दी ,
मगर अच्छा किया कि
हाथ में मेरे कलम दे दी .
जब भी आँसू बहे आँखों से
शब्द बन के उतर जाते .
होती न गर कलम हाथ में
कैसे ग़म ये निकल पाते ,
थोड़ी सी मिली खुशियों में
ज़हर बनके घुल जाते .
हम घुट-घुट कर कबके
यहाँ पर मर जाते ,
इतना सारा ज़हर पीके हम
भला कैसे फिर जी पाते .
इसी कलम ने ज़हर निकाला
जब-जब दर्द ने डंक मारे ,
इसी कलम की…
Added by POOJA AGARWAL on May 7, 2013 at 9:30pm — 8 Comments
यह रोज़ ही की बात है
जब रात गए,
शबनम की बरसात हुआ करती है-
पात पात रात भर
वात बहा करती है,
चोरी छिपे मैंने भी देखा है
दोनों को,
जब रात से प्रभात की
मुलाक़ात हुआ करती है -
मैं तो बस दर्शक हूँ
यह एक तसवीर है.
(2)
रात की लज्जा,
चहारदीवारी के साये में,
मेरे आंगन में छुपे
कलियों के आंचल में
सिमट-सिमट जाती है -
लेकिन वह सूरज
अनायास मेरे घर की
प्राचीर को लांघ…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on May 7, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
मेरे प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी।
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी।
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का अभिमान,
न मीरा का सतीत्व।
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व।
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व।
काश! तुम समझ…
Added by Kundan Kumar Singh on May 7, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
माँ
Added by Usha Taneja on May 7, 2013 at 8:30pm — 14 Comments
क्या करें,
इतनी मुश्किलें हैं फिर भी
उसकी महफ़िल में जाकर मुझको
गिडगिडाना नहीं भाता.....
वो जो चापलूसों से घिरे रहता है
वो जो नित नए रंग-रूप धरता है
वो जो सिर्फ हुक्म दिया करता है
वो जो यातनाएँ दे के हंसता है
मैंने चुन ली हैं सजा की राहें
क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे
सर झुकाना नहीं आता...
उसके दरबार में रौनक रहती
उसके चारों तरफ सिपाही हैं
हर कोई उसकी इक नज़र का मुरीद
उसके नज़दीक…
ContinueAdded by anwar suhail on May 7, 2013 at 8:21pm — 7 Comments
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