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गंदी नाली के कीड़े है ये वहशी लोग
जो रात –दिन पनप रहे है किसी   
गटर के गंदे पानी में.
छि: घिन्नता से भर रहा है मन
खिज रहा है इसकी दुर्गन्ध से
साँस भी लेना दुश्वार हुआ है
इस अमानवीय माहौल में .
इंसान नहीं ये भेङिये है
निकल पड़ते है शिकार पे और
नोचते है अपनी ही संस्कृति को
तृप्त करने वासना की प्यास को .
आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी
अपनी पांव की इन जूतियों से
जो आहार समझकर खा रहे है
निरंतर नारी के वजूद को.

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Comment by Saurabh Pandey on May 15, 2013 at 4:54pm

ये निकृष्ट से प्रतीत होते वहशी लोग हम ही कुलीनों की वैचारिकता के उच्छिष्ट हैं. इन्हें धकिया-गरिया कर नहीं अंग लगा कर समझना होगा कि ये वहशी कैसे हो गये हैं.

बाज़ार किसी बोरिंग की तरह होता है, बलबलाता उगलता बेतहाशा पानी फेंकता हुआ. अब इस प्रचंड प्रवेग से सिर्फ़ स्वीकार्य की चाहना रखना अबोधपन ही होगा. आज जो घिनहे दिखते हैं वे भी इसी एन-केन-प्रकारेण सफल होने की अदबदायी हायतौबा की नाजायज उपज हैं, जो झुंझलाये हुए किसी वहशी पशु की तरह व्यवहार करते हैं..

शुभम्

Comment by राजेश 'मृदु' on May 13, 2013 at 3:49pm

इसमें कविता किधर है वो ढूंढ रहा हूं

Comment by Kundan Kumar Singh on May 11, 2013 at 8:52pm

नारी हृदय और उसमें दबे आक्रोश को बड़ी सरलता और स्पष्ट रूप से सामने रखा है। आज के परिदृश्य में इसी की आवश्यकता है। हार्दिक बधाई।

Comment by coontee mukerji on May 11, 2013 at 6:36pm

एक एक शब्द बहुत ही दृढ‌ता से संप्रेषित किया गया है और .........

तृप्त करने वासना की प्यास को .

आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी

अपनी पांव की इन जूतियों से

जो आहार समझकर खा रहे है

निरंतर नारी के वजूद को..........लाजवाब /सादर /कुंती

Comment by Savitri Rathore on May 11, 2013 at 12:21pm
आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी
अपनी पांव की इन जूतियों से
जो आहार समझकर खा रहे है
निरंतर नारी के वजूद को.
नारी के प्रति बढ़ते अत्याचारों के प्रति नारी की जागृति अति आवश्यक है,साथ ही समाज की भी। जागरण की इस हुंकार के लिए, इस प्रयास के लिए बधाई।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 11, 2013 at 12:02pm

’आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी
अपनी पांव की इन जूतियों से!....।’ वाह..! बहशियों के प्रति आक्रोश स्वाभाविक ही है। सादर,

Comment by shalini kaushik on May 11, 2013 at 12:45am

बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति . .बधाई .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 10, 2013 at 5:04pm
आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी
अपनी पांव की इन जूतियों से
जो आहार समझकर खा रहे है
निरंतर नारी के वजूद को
आदरणीया पूजा जी अभी नही तो कभी नही 
सादर बधाई 

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