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बहुत ख़ुशनसीब हैं

हम लोग

हमारे सिर पर

हाथ है माँ का

क्योंकि

माँ का आँचल

हर छत से ज़्यादा

मज़बूत होता है

सुरक्षित होता है

माँ का आँचल

हर पेड़ की छाँव से ज़्यादा

ठंडा और आरामदेह होता है

 

बहुत ख़ुशनसीब हैं

हम लोग

हमारे सिर पर

हाथ है

माँ का

क्योंकि माँ का प्यार

खालिश होता है

दिखावट और बनावट से

दूर होता है

माँ के प्यार में  

धोका नहीं होता

माँ के प्यार का

मोल नहीं होता

 

बहुत बदनसीब हैं वे लोग

जिनकी माँ

इस दुनिया में नहीं है

उससे भी ज़्यादा

बदनसीब हैं  

वे लोग

जिनकी माँ जीवित है

फिर भी

वे माँ के आँचल से दूर हैं ।

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Comment

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Comment by नादिर ख़ान on June 6, 2013 at 10:15am

शुक्रिया शलिनी जी..

Comment by shalini kaushik on May 13, 2013 at 12:40am

 बहुत ही सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति .

Comment by नादिर ख़ान on May 12, 2013 at 12:57pm

आदरणीय  

अशोक जी, सावित्री जी, बृजेश कुमार जी एवं   जवाहर लाल जी

हौंसला अफजाई के लिए आप सब का बहुत धन्यवाद..

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 12, 2013 at 4:23am

बहुत बदनसीब हैं वे लोग

जिनकी माँ

इस दुनिया में नहीं है

उससे भी ज़्यादा

बदनसीब हैं  

वे लोग

जिनकी माँ जीवित है

फिर भी

वे माँ के आँचल से दूर हैं ।

माँ तुझे सलाम! बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति!

Comment by बृजेश नीरज on May 11, 2013 at 1:38pm

मां को नमन! 

Comment by Savitri Rathore on May 11, 2013 at 12:37pm

माँ की महिमा का कोई अंत नहीं ........सुन्दर प्रस्तुति !

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 11, 2013 at 8:55am

आदरणीय नादिर खान साहब सादर, माँ की महिमा को और अधिक उंचाइयां देती सुन्दर रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by नादिर ख़ान on May 11, 2013 at 12:12am

आदरणीय

प्रदीप जी, सौरभ जी,कुन्ती जी एवं केवल प्रसाद जी 

आप सबने रचना के भाव को सराहा जिसके लिए तहे-दिल से शुक्रिया 

सौरभ जी से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है. बहुत आभार .....

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 10, 2013 at 5:16pm

क्योंकि माँ का प्यार

खालिश होता है

दिखावट और बनावट से

दूर होता है

माँ के प्यार में  

धोका नहीं होता

माँ के प्यार का

मोल नहीं होता

वास्तव में अभागे हैं वे जिनके सर से साया उठ गया मां का 

सादर बधाई. 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 9, 2013 at 11:21pm

इस कविता में वात्सल्य की मूर्ति के लिए अनवरत की उमड़न है तो इससे विलग जीने वालों के प्रति उलाहना भी.  कवि का मुग्ध और उदार भाव से अभिव्यक्त होना भला लगता है. लेकिन यह भी सही है कि विवशताएँ किसी ’सपूत’ को तथाकथित ’कपूत’ बनाती हैं, जो मन से विलग जीवन जीने के आग्रही है, माँ उन्हे निरंतर मन से पालती है. एक विशेष कविता.  बधाई !!

एक बात :  ठंडक संज्ञा है जबकि उस जगह विशेषण की अवश्यकता थी. अतः सही शब्द ठंढा होगा.

इस उद्वेगपूर्ण रचना के लिए पुनः बधाई, नादिर भाई जी.

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