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अच्छे दिन थे

चंदा से गपियाने के दिन

कहाँ कठिन थे

राजनीतिको छोड़ो     

कैसे अच्छे दिन थे।

 

टीलों पर,

रथ ले अपना 

भाग निकलते थे,

अब विमान में डर है 

नौ ग्यारह फिर आये; 

घसीटते जीवन को,

बोर हुई यात्रायें,

जेटलेग के मारे 

नींद रुष्ट हो जाये;

 

इंटरनेट बिना भी 

न थी झंझट कहीं भी 

सभी खुले में होते 

जश्न,  कहाँ केबिन…

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Added by Harihar Jha on September 21, 2018 at 1:30pm — 8 Comments

उम्मीद दिल में पल रही है- ग़ज़ल

उनके आने से सांस चल रही है
वर्ना लगता था सांझ ढल रही है


अपनी किस्मत कहाँ थी ऐसी पर
जो  मांगी  थी  दुआ  फल रही है


हौसले  भी  थे  और  यकीं भी था
बुझने वाली थी  शमा जल रही है


वक़्त का क्या है कुछ नहीं मालूम
दिक्क़त आजकल  तो टल रही है


एक  दिन  ख़त्म  होगी  मायूसी
ऐसी उम्मीद  दिल  में पल रही है !!


मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on September 20, 2018 at 4:57pm — 4 Comments

जीवन में लड़ाते हैं क्यों यार गड़े मुर्दे - गजल

२२१/१२२२/२२१ /१२२२



इस द्वार  गड़े  मुर्दे  उस  द्वार गड़े मुर्दे

जीवन में लड़ाते हैं क्यों यार गड़े मुर्दे।१।



हर बार नया  मुद्दा  पैदा तो नहीं होता

देते हैं  सियासत  को  आधार गड़े मुर्दे।२।



मौसम है चुनावी क्या राहों में खड़ा यारो

लेने जो  लगे  हैं  फिर  आकार  गड़े मुर्दे।३।



भाता नहीं जिनको भी याराना जमाने में

लड़ने  को  उखाड़ेंगे  दो  चार  गड़े  मुर्दे ।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2018 at 10:00am — 16 Comments

ईमान- लघुकथा

"मेरे पास अभी कुछ भी नहीं है जमा करने के लिए सर, आप बताईये क्या करूँ", सामने बैठी लड़की ने बड़ी मायूसी से कहा और एक प्रार्थना पत्र मेज पर रख दिया. उसने प्रार्थना पत्र उठाया और पढ़ने लगा, नीचे लिखे नाम पर उसकी नजर अटक गयी "नाज़िया खान". अरे यह तो वही लड़की है जिसकी सब बहुत तारीफ़ करते थे कि इतनी गरीब होने के बाद भी हमेशा शिक्षा ऋण की किश्त जमा करती है.

"क्या हो गया नाज़िया, तुम तो हमेशा समय पर पैसे जमा करती थी. और तुम्हारा ऋण खाता भी तो रेगुलर है?, उसके मन में कारण जानने की जिज्ञासा होने लगी.…

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Added by विनय कुमार on September 19, 2018 at 6:42pm — 14 Comments

"कशमकश से यकबयक" (लघुकथा)

नववर्ष के रात्रिकालीन जश्न में मनमाफ़िक़ सेवन करने के साथ ही 'गरमा-गरम मंच' से मुख़ातिब हुए वे दोनों डकार मारते हुए आपस में चर्चा करने लगे :

"वाह.. नशा छा रहा है... मज़ा आ रहा है... !"

"कबाब उड़ाने के बाद तुझे तो शबाब से सराबोर इस नृत्य में भी 'जन्नत' ही नज़र आ रही होगी न!"

"तू तो कलमकार है! शराब के नशे में भी तुझे तो इस 'नंगी' सी नर्तकी में नंगी हो रही 'इंसानियत', 'हैवानियत' या 'तहज़ीब' के "बिम्ब" नज़र आ रहे होंगे या 'डिम्ब'! मुझे तो जिम में तराशे गये हर 'लिम्ब' की हर हरक़त में…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 19, 2018 at 6:30pm — 5 Comments

"तारतम्यता"

                                      

तुम या तो बन जाओ किसी के,

या उसको अपना बना के देखो,

जीवन महकेगा फूलों सा,

प्रेम सुधा  तुम पीकर देखो ।।

क्या खोया है क्या पाया…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 19, 2018 at 6:00pm — 4 Comments

सौदागर

सौदागर

” प्रोफेसर सैन और प्रोफेसर देशपांडे  सरकारी मुलाजिम हैं, तनख्वाह भी एकै जैसी मिलत है लेकिन ई दुइनो जब से निरीक्षक भइ गए हैं तब से प्रोफेसर सैन तो बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों में दौरा करत है और बड़े आलीशान होटलों में बसेरा करत हैं लेकिन ..लेकिन बेचारे देशपांडे कभी धर्मशाला में ठहरत हैं तो कभी सरकारी गेस्ट हाउसन  में ...कभी ऑटो से चलत हैं तो कभी बस में ....जब सब सुख सुबिधा बरोबर है तब  ई फरक काहे है ई बात  तनिक हमरी  समझ में नाहीं  आवत है  “ राहुल ने अपने मित्र सुजीत से बडी…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 19, 2018 at 1:54pm — 9 Comments

क्या मन है बीमार पड़ौसी - गजल - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२२२/२२२२



खाता क्यों है खार पड़ौसी

क्या मन है बीमार पड़ौसी।१।



इतनी जल्दी भूल गया क्यों

बचपन के हम यार पड़ौसी।२।



सच जाने पर खूब करे क्यों

बेमतलब  तकरार  पड़ौसी।३।



जो कहना है सम्मुख कह दे

मत कर  पीछे  वार पड़ौसी।४।



जबरन हम तो नहीं घुसेंगे

क्यों ढकता है द्वार पड़ौसी।५।



लड़ना भिड़ना पागलपन है

इसमें सब की हार…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 19, 2018 at 12:02am — 16 Comments

असली विसर्जन- लघुकथा

उसको आये लगभग आधा घंटा हो चुके थे, रोज की तरह आज भी आने में देर हो गयी थी. दिन पर दिन काम का बढ़ता बोझ और ऊपर से नया बद्तमीज बॉस, रात होते होते ही वह छूट पाता था. हमेशा गुस्से में रहने वाला उसका दिमाग अब तो और भी गरम रहता, शाम को आने के बाद कोई उसके पास भी नहीं फटकता था. अकेले टी वी के सामने बैठकर चाय पीना और घटिया सीरियल देखकर समय काटना उसकी दिनचर्या बन गयी थी. लेकिन आज गणपति विसर्जन और उससे जुड़े कार्यक्रम उसको काफी सुकून दे रहे थे.

दूसरे कमरे में रिंकी अपनी माँ के पास खड़ी थी, दोनों की…

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Added by विनय कुमार on September 18, 2018 at 2:30pm — 16 Comments

पति ब्रांड ...

पति ब्रांड ...

बिखरे बाल 

हाथ में झोला 

कई जगह से 

पैबंद लगा 

कुर्ते का चोला 

न जाने ऊपर वाले को 

क्या सूझा कि 

पत्नी के अखाड़े में 

पति को पेल दिया 

अच्छे…

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Added by Sushil Sarna on September 18, 2018 at 1:00pm — 10 Comments

गीत...तितलियाँ अब मौन हैं-बृजेश कुमार 'ब्रज'

शोर भौरों का सुनोगे

तितलियाँ अब मौन हैं

रक्त रंजित हो उठा मन

रोज के अख़बार से

हर कली सहमी हुई है

आह अत्याचार से

इस चमन में भेड़ियों से

आदमी ये कौन हैं

शोर भौरों का सुनोगे

तितलियाँ अब मौन हैं

प्रीत का संगीत गुमसुम

भाव के व्यापार में

सत्य का उपहास करता

छल कपट संसार में

प्रेम है अनुबंध जैसा

प्रेम परिणय गौण है

शोर भौरों का सुनोगे

तितलियाँ अब मौन हैं

(मौलिक एवं…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 17, 2018 at 6:00pm — 17 Comments

एक गजल - पहल हो गई

आपकी ओर से जब पहल हो गई

जिंदगी मेरी' कितनी सरल हो गई

 

उस तरफ आँख से एक मोती गिरा

इस तरफ आँख मेरी सजल हो गई

 

आपके रूठने का ये’ हासिल रहा

गुफ्तगू कम से’ कम, पल दो’ पल हो गई

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on September 17, 2018 at 7:30am — 14 Comments

"शैतानियत और कलम" (लघुकथा)

"नहीं, मुझे न तो फोटो लेने चाहिए और न ही वीडियो क्लिप बनाने की कोशिश!" यह सोचकर उसने अपना स्मार्ट फोन वापस जेब में रखा और सड़क पर मौत से लड़ती युवती को घेरे भीड़ को चीरता आगे निकल गया।



"किसी अपराध को होते देख लो, या पीड़ित को तड़पते देखो, तो चुप्पी साधकर ऐसे बन जाओ, जैसे कि कुछ देखा ही नहीं!" परिवार व दफ़्तर के सहकर्मियों और पुलिस-कोर्ट से दो-चार हो चुके तज़ुर्बेकार दोस्तों की हिदायतें याद आ रहीं थीं उसको!



थोड़ा आगे चलने पर उसे उसके पिताजी मिल गये। पूरी घटना उसने पिताजी को…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 16, 2018 at 10:30pm — 9 Comments

'सेटिंग' या 'अवलम्बन' (लघुकथा)

"नेताजी, आज मुश्किल से तुम टाइम निकाल कर हमें इस पार्क में लाये हो, कुछ तो अच्छी बातें करो यहां, देश-दुनिया की छोड़ कर!" कमली ने अपने पति के कंधे पर सिर टिका कर कहा।

"पहले तो तुम यहां हमें 'नेताजी' के बजाय कुछ और कहो! ... उकता गया इस संबोधन और उबाऊ भाषणों से!"

"तो तुम पहले अपना नाम बदल लो, सब जगह के नाम तो बदले जा रहे हैं न! सहेलियों में 'रामनारायण' बताने में शरम सी आती है अब!"

"अब इस उमर में अपना नाम कैसे बदलें पगली!"

"बेटों के तो बदल गये विदेश में! बड़े को 'रामलाल' के बजाए…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 16, 2018 at 4:39am — 9 Comments

कुछ भी नहीं बोलती जानकी कभी

कहने को तो बहुत कुछ है हमारे पास भी

ये बात अलग है कि कहते बनता नहीं

ऐसा भी नहीं कि कहना जानते नहीं

शब्द भंडार भी है अथाह अपार

वाक्य विन्यास का सारा सार

फिर भी ऐसा कुछ है निःसन्देह 

रोक लेता है जुबान को

लफ्ज़-ए - ब्यान को

 

ठीक वैसे ही  जैसे जानकी

सतीत्व- प्रमाणिकता बनाम  

विश्वास भरोसे संवारने  हेतु

अग्नि -परीक्षा के लिए तत्पर  

क्या क्या नहीं बोल सकती थी

पूरा मुख खोल सकती…

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Added by amita tiwari on September 16, 2018 at 2:00am — 11 Comments

ताक रही गौरैया प्यासी - गीत

गौरैया है कितनी प्यासी

 

झुलस रहा तन, व्याकुल है मन,  

छायी है चहुँ ओर उदासी.

रख दो एक सकोरा पानी,

ताक रही गौरैया प्यासी.

 

एक घौंसला था छोटा सा,

उड़ गया प्रगति की आँधी में.  …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on September 15, 2018 at 12:30pm — 14 Comments

हिंदी

हिन्दी

भारत माँ के विशद भाल पर

यह जो शोभित बिंदी है

जिसकी आभा से सब जगमग

वह भाषा तो हिन्दी है ll

अपनी गरिमा है हिन्दी से

हिन्दी ही अपनाएंगे

आन बान सम्मान अस्मिता

इसकी सदा बढ़ाएंगे ll

सरस सुगम हृदयंगम भाषा

जन जन की हितकारी है

मोती सा हम गुँथे सूत्र में 

हिन्दी की बलिहारी है ll

हमें गर्व है इस हिंदी पर

हिंदी को ना छोड़ेंगे

नित भारत के हर कोने को 

हिंदी…

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Added by डॉ छोटेलाल सिंह on September 14, 2018 at 9:34pm — 2 Comments

हिंदी

भारत माँ के विशद भाल पर

यह जो शोभित बिंदी है

जिसकी आभा से सब जगमग

वह भाषा तो हिन्दी है ll

अपनी गरिमा है हिन्दी से

हिन्दी ही अपनाएंगे

आन बान सम्मान अस्मिता

इसकी सदा बढ़ाएंगे ll

सरस सुगम हृदयंगम भाषा

जन जन की हितकारी है

मोती सा हम गुँथे सूत्र में 

हिन्दी की बलिहारी है ll

हमें गर्व है इस हिंदी पर

हिंदी को ना छोड़ेंगे

नित भारत के हर कोने को 

हिंदी से हम…

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Added by डॉ छोटेलाल सिंह on September 14, 2018 at 9:00pm — 7 Comments

परिणाम....

परिणाम....



मेरी पलक का स्वप्न

तुमसे नेह का

परिणाम था

मेरी कमीज पर

लगा दाग

तृषा और तृप्ति की

जंग का

परिणाम था

मेरे अधरों पर

छूटा हुआ

असहाय सा स्पर्श

हिय कंदराओं में पलते

भावों का

परिणाम था

ओस की बूँद में

परिलिक्षित होता

सुंदरता का सागर

तुमसे असीम स्नेह का

परिणाम था

क्यूँ तुमने ऐसा किया

अपनी रातों में

मेरी रातों को समाहित कर

मुझसे…

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Added by Sushil Sarna on September 14, 2018 at 8:33pm — 4 Comments

'सत्य अब तक!' (लघुकथा)

"ओये! .. अबकी बारी, मंदिर-मस्जिदों पे भारी!"


"नईं बे! चुनावी पारी की भेंटें 'वारि' ... ! वोटों की यारी, तैयारी जारी!"


"हां .. हां .. तुष्टिकरण जब तक, मज़हबी अतिक्रमण तब तक!"


"नईं बे! सियासी अतिक्रमण जब तक, वोट-बैंक तब तक! ... सियासत तब तक!"


"हां .. हां .. ऐसी 'ख़ुदग़र्ज़' सियासत जब तक, हमारी 'आफ़तें' तब तक!"


"नईं बे! 'ऐसी' जनता जब तक, 'ऐसी' सियासत तब तक और 'ऐसा' जनतंत्र तब तक!"


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 14, 2018 at 7:00pm — 7 Comments

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