आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ सड़सठवाँ आयोजन है।.
छंद का नाम - दोहा छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
17 मई’ 25 दिन शनिवार से
18 मई’ 25 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
दोहा छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
17 मई’ 25 दिन शनिवार से 18 मई’ 25 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
Tags:
दोहा छंद
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ग्रीष्म बाद ही मेघ से, रहती सबको आस|
लगातार बरसात हो, मिटे धरा की प्यास||
झलक दिखा जब मेघ भी, तरसाते दिन रात|
तब सूरज का तेज भी, झुलसाता हर गात||
कीमत है हर बूंद की, बोतल में है नीर|
पैसा है तो पीजिए, वरना रहो अधीर||
घटिया बोतल में बिके, दूषित गंदा नीर|
फिर भी पीते लोग हैं, बात बड़ी गम्भीर||
पंच तत्व से तन बना, उसमें जल है एक|
दूषित जल या जल बिना, मरते जीव अनेक||
मेघ कभी ना देखते, सूखा है किस ओर|
उमड़ घुमड़ पहुँचे जहाँ, बारिश हो घनघोर||
संचय जल का कीजिए, जब भी हो बरसात|
शासन भी अनुदान दे, देखे धर्म न जात||
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मौलिक अप्रकाशित
पैसा है तो पीजिए, वरना रहो अधीर||...........वाह ! वाह ! लाख टके की बात कह दी है आपने. वाटर हार्वेस्टिंग जैसे कार्य के लिए शासन पर निर्भर रहे बिना भी धरती को जल समृद्ध बनाए रखने में मदत की जा सकती है. किन्तु जाग्रति का अभाव होने से यह भी नहीं हो पा रहा है. कैसे जल संचित हो. प्रदत्त चित्र पर आपने सुन्दर दोहावली रची है. हार्दिक बधाई स्वीकारें. फिर भी पाँचवें दोहे में द्वितीय चरण के बाद कथ्य की निरंतरता भंग हुई है. सादर
दोहा आधारित एक रचना:
प्यास बुझाएँगे सदा
सूरज दादा तुम तपो, चाहे जितना घोर,
तुम चाहो तो तोड़ दो, पारे का हर पोर,
श्रम अपना भगवान है, जीवटता है ईश
प्यास बुझाएँगे सदा, उठा गर्व से शीश
बूँद-बूँद पर स्वेद की, लिखा हुआ संघर्ष,
भीगी हुई क़मीज़ ये, करती है उत्कर्ष,
लगाओ तापमान को, चाहे जितने पाँख
प्यास बुझाएँगे सदा, मिला आँख में आँख
साथ तुम्हारे जागते, खटें तुम्हारे साथ,
तुम तो फिर दिखते नहीं, चैन न हमको नाथ
अगले दिन चाहे वही, धूप चढ़े पुरज़ोर
प्यास बुझाएँगे सदा, देख तुम्हारी ओर
तुम हिम को करते तरल, तुम लाते बरसात
तुम से हीं गति ले रहीं, मानसून की वात
तुम से ही पाती रही, सकल सृष्टि यह जान
प्यास बुझाएँगे सदा, मान नीर वरदान
#मौलिक एवं अप्रकाशित
तू जो मनमौजी अगर, मैं भी मन का मोर
आ रे सूरज देख लें, किसमें कितना जोर
मूरख मनुआ क्या तुझे इतना नहीं गुमान
सूरज सम्मुख ले रहा, पानी पी-पी तान
शीत-उष्ण था देस यह, गिरी ताप की गाज
सूरज का शासन लगा, बहुत निरंकुश आज
तृषित व्योम की आस है, निर्जल धरा प्रखण्ड
बूँद-बूँद की चाहना, ग्रीष्म प्रहार प्रचंड,
जेठ माह के ताप से, धरा-वायु-नभ खिन्न
विधिवत हो जल-संचयन, जग-आनन्द अभिन्न
जल औ’ वन का संतुलन, रखे तापक्रम ठीक
रहे आर्द्र वातावरण, जीवन धारे लीक
रोम-रोम की प्यास पर, घूँट-घूँट सुर-ताल
दग्ध-प्रदग्ध प्रभाव पर, भले सूर्य वाचाल
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
छिपन छिपाई खेलता,सूूरज मेघों संग।
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