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सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
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ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
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ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
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मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
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सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
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परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
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निलेश नूर
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आदाब,'नूर' साहब, सुन्दर रचना है, मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में !
"परे हूँ जिस्म से अपने मैं 'नूर' हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं"
आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है !
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