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ताना-बाना

उलझे-उलझे से,ताने-बाने को
फिर- फिर
नये रंग में रंगता है,
मेरी किस्मत का रंगरेज,
पल-पल
रंग
बदलता है ।
उजला कभी,कभी स्याह
पीला कभी नीला,जैसे
सुखःदुख;
मन की हांड़ी में,
धींमे-धींमे खदकता है,
छल की रेशमी
चादरों में, लिपटे
सुनहरे,रूपहले सपने उलट-पलट
मिलाता है;पर,
नियति का,बल.....
नहीं
निकलता है ।


अन्विता ।


मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on May 18, 2020 at 8:13am — 7 Comments

कुछ क्षणिकाएँ :

कुछ क्षणिकाएँ :

सीख लिया शब्दों ने

जीना और मरना

बिना परिधान बदले

देह का

साथ रहकर

व्योम को

सूक्ष्म से अलंकृत करो

कि स्वप्न भी

कल्पना हैं

अचेतन मन की

कह दिया काँपती लौ ने

दिए से

आज मैं सो जाऊंगी

तुम्हारी गोद में

क्रूर पवन के वेग से आहत होकर

शायद मेरा उजाला

अंधेरों को

नहीं भाया

मिट गई

जीत की आकांक्षा

तिमिर में

इक दूजे से

हारते हुए

हम के…

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Added by Sushil Sarna on May 17, 2020 at 9:37pm — 6 Comments

ग़ज़ल

बह्र- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाा

2122   2122  2122  2

ये हंसी ये मुस्कराहट कातिलाना है

हां तभी तुझपर फिदा सारा ज़माना है

लाॅक डाउन तोड़कर घर से निकलकर आ

देख तो मौसम बड़ा ही आशिकाना है

ये गदाईगीर का हो ही नहीं सकता

ये नगर के शाह का ही शामियाना है

बांटते थे ग़म खुशी आपस में पहले दोस्त

अब कहां माहौल वैसा दोस्ताना है

बेसबब हैं कैद घर में लोग हफ्तों से

कब रिहाई होगी इनकी क्या ठिकाना…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 17, 2020 at 8:30pm — 4 Comments

आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/ २१२२/२१२



शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे

एक चिकने घट को  जैसे  बूँद पानी लिख रहे।१।

**

अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश

पर खबर में  खूबसूरत  राजधानी  लिख रहे।२।

**

दान दाता  बन  गये  कुछ  एक  मुट्ठी  दे  चना

खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।

**

आस में  अच्छे  दिनों  की  शह्र  आये थे मगर

गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments

पश्चाताप

तोड़े थे यकीन मैंने मोहल्ले की हर गली में

सुकून हम कैसे पाते इतनी आहे लेकर

मौत हो जाए मेहरबा हमपे नामुमकिन है

ठोकरे ही हमको मिलेंगी उसके दरवाज़े पर

 

हर परत रंग मेरा यूँ ही उतरता गया 

ज़मी थी शख्त मगर मैं बस धस्ता ही गया

गुनाह जो मैंने किये थे बेखयाली में

याद करके उन सबको मैं बस गिनता ही गया

 

किसी का हाथ छोड़ा किसी का साथ छोड़ दिया

मैंने हर बदनामी को उनकी तरफ मोड़ दिया

सामने जब भी वो आए अपना बनाने के…

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Added by AMAN SINHA on May 17, 2020 at 12:12pm — 2 Comments

खुश हुआ तू बोलकर....(गजल)

2122 2122 2122

खुश हुआ तू बोलकर,' है जानवर तू'

लग रहा खुद को बताता,बेसबर तू।

सांस बनकर बह रहीं ठंडी हवाएं

आग की लपटें उठा मत बन, कहर तू।

ख्वाब पाले  मौन बैठी हैं सदाएं

कानफाड़ू! ला सके तो,ला सहर तू?

तार होती हो नहीं उम्मीद कोई,

हो अगरचे तो बता,कोई पहर तू?

हर्फ हासिल हो गए तो शायरी कर,

क्यूं अंधेरों को बढ़ाता है बशर तू?

मत बिठा मेरी गजल को हाशिए पर

छटपटाती है बहर,देखे अगर तू।

रुक्न रोते, बुदबुदाते शब्द सारे,

नज़्म कहकर…

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Added by Manan Kumar singh on May 17, 2020 at 11:30am — 11 Comments

"अब नहीं "

इस अंधेरे पक्ष में

दद॔ की

टीसती लकीरें

छुपा दी हैं

चाँदनी की

सिमटी तहों में ,अब;

अकेला

निकले भी

चांद तो

नहीं दिखेंगी

झुर्रियाँ, उदासी की,

उसके पीले चेहरे में

बांधकर ड़ाल दी हैं

उदासियों की गठरी,

चुप के अंधे कुएँ में

बचाकर;भावनाओं के

छापामारों से,

कामनाओं के सूखे बीज

दबा दिए हैं,

मन की बंजर धरती में; जानता है मन

अब नहीं हरियाएगा

कोई सावन....इस जीवन में ।



अन्विता

मौलिक एवं… Continue

Added by Anvita on May 16, 2020 at 8:54pm — 6 Comments

हमें न चाहत ही चाँद की है न तारों से है लगाव अपना(१०१ )

( 121  22  121  22  121  22  121  22  )

.

हमें न चाहत ही चाँद की है न तारों से है लगाव अपना

हमें फ़लक की भी  क्या ज़रूरत ज़मीन से है  जुड़ाव अपना

**

जहाँ में अपनी किसी से यारो न दुश्मनी और न दोस्ती है

न कोई दिल में किसी से नफ़रत न है किसी से दुराव अपना | 

**

फ़रोख्त होगी कभी हमारी  ख़याल कोई  न लाये  दिल में

अमोल हैं हम कोई जहाँ में  करेगा क्या मोलभाव अपना

**

कभी किसी से जुदा हुए तब मिला था ज़ख़्मों का एक…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 16, 2020 at 3:00pm — 10 Comments

बेकार की मनोदशा

जाग जाता हूँ सुबह ही आँख अब लगती नहीं

दिन गुजरता है नहीं और रात कटती ही नहीं

ऐसा लगता है मैं कोई व्यर्थ सा सामान हूँ

है कदर न जिसकी कोई खोया वो सम्मान हूँ

 

प्यार बीवी के नजर में वैसी अब दिखती नहीं

है खफा वो खूब लेकिन मुँह से कुछ कहती नहीं

पहले सी चहरे पे उसके अब हसी दिखती नहीं

मेरी ये उदास आँखे झूठ कह सकती नहीं

 

चिढ़चिढ़ा सा हो गया हूँ बस यु हीं लड़ जाता हूँ

छोटी-छोटी बातों पे मैं बच्चों पे चिल्लाता हूँ

मेरे…

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Added by AMAN SINHA on May 16, 2020 at 6:30am — 5 Comments

रामभरोसे को कोई नहीं ढूँढ रहा ( अतुकान्त)

रामभरोसे को कोई नहीं ढूँढ रहा
 
कब वो पिट्ठू बैग लादे 
पगलाया घबराया सा निकल लिया
वापस गाँव को
किसी को नहीं पता 
कोई ढूँढे भी क्यों …
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Added by pratibha pande on May 15, 2020 at 11:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल ( हम सुनाते दास्ताँ फिर ज़िन्दगी की....)

( 2122 2122 2122 )

हम सुनाते दास्ताँ फिर ज़िन्दगी की

काश हम भी काटते फसलें ख़ुशी की

अब चुरा लो शम्स की भी धूप सारी

कोई तो बदलो  ये सूरत तीरगी की

जानवर अब हैं ज़ियादा जंगलों में

नस्ल घटती जा रही है आदमी की

हैं अंधेरे घर में अपने क़ैद सारे

कौन खींचेगा लकीरें रौशनी की

जो भी हो सागर मिलेगा तिश्नगी को

बाढ़ ले जाये हमें अब तो नदी की

आंखेंं फट जाएँगी हैरत से…

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Added by सालिक गणवीर on May 15, 2020 at 7:00pm — 10 Comments

भेद :

भेद :

समझा दिया मैंने

अपने बच्चों को

सत्य और असत्य में क्या है भेद

समझा दिया

मैंने अपने बच्चों को

भानु से फैला उजास

कितने रंगों को होता है

समझा दिया मैंने

यह भी अपने बच्चों को

कि रंगीली गिरगिट का

कौन सा रंग असली और कौन सा नकली होता है

मगर

मुझे ये समझाने में

बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा

कि इंसान का कौन सा रंग असली है

और कौन सा नकली

शायद वक्त के साथ

वो इस…

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Added by Sushil Sarna on May 15, 2020 at 6:19pm — 3 Comments

ग़ज़ल

2212 1212 2212 1212



यूँ तो ये माहेरीन हैं मशहूर हैं ज़हीन हैं

फिर रगड़ें क्यों ज़मीन में कुर्सी को ये जबीन हैं





संसार है विचित्र यह नाकाम कामयाब सब

जो माहिर और ज़हीन हैं वह आज दीनहीन हैं





हर बात में है नुक़्ताचीं सर गर्मियों में है ख़लल

अक्सर ज़हीन लोग ही नाक़ाबिल-ए-यक़ीन हैं





बंदिश हज़ार थोप दीं तुम ये करो न वो करो

क्यों लड़कियां समाज में समझी गयीं रहीन हैं





जम्हूरियत तो नाम है चलता है हुक्म शाहों का

सब… Continue

Added by Om Prakash Agrawal on May 15, 2020 at 12:06pm — 6 Comments

जीवन पर कुछ दोहे :

जाने कितनी दूर थी, जाने कितनी पास।

जाने किसकी जोह में, रुकी हुई थी श्वास।।

जाने किसकी जोह में, तरल हो गई आस।

एक श्वास थी ज़िंदगी, एक श्वास संत्रास।।

जीवन के विश्राम तक, मिटी न मन की जोह।

करते करते सो गया, जीव सत्य की टोह।।

बड़ा अजब है जीव का, जीवन के प्रति मोह।

जीत न पाया अंत से, खूब किया विद्रोह।।

मृत्यु देह की है सखा, जीवन गहरी खोह।

फिर भी इस संसार से, मिटे न मन का मोह।।





सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on May 14, 2020 at 10:30pm — 2 Comments

पहचाना सा एक चेहरा

वर्षों हुए

एक बार देखे उसको

तब वो पुरे श्रृंगार में होती थी

बात बहुत

करती थी अपनी गहरी आँखों से

शब्द कहने से उसे उलझने तमाम होती थी

 

इमली चटनी

आम की क्यारी

चटपट खाना बहुत पसंद था

सैर सपाटे

चकमक कपडे रंगों का खेल

गाना बजाना हरदम था

 

खेलना कूदना

पढ़ना लिखना सपने सजाना

सब उसके फेहरिस्त का हिस्सा थे

सावन, झूले

नहरों में नहाना, पसंद का खाना

कई तरह के किस्से…

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Added by AMAN SINHA on May 14, 2020 at 3:19pm — 6 Comments

बदलाव !

बदलाव !

तड़के प्रात:

स्वच्छ धूप की नरम दूब से

मिलने की उत्सुक्ता ...

 

कुछ इसी तरह कोई लोग

कितनी उत्सुक्ता से अपने बनते

निज को समर्पित…

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Added by vijay nikore on May 14, 2020 at 5:00am — 6 Comments

अहसास की ग़ज़ल -मनोज अहसास

2122     2122     2122     212

एक ताज़ा ग़ज़ल

तेरी चौखट तक पहुँचने के हैं अब आसार कम.

फासला लंबा बहुत है या मेरी रफ्तार कम.

कौन से रस्ते पे चलके मैं चला जाऊं कहाँ,

डर बहकने का है दिलबर हौसला इस बार कम.

हद से ज्यादा बेबसी है पर इरादे बेहिसाब,

हमसफर तो मिल गए हैं मिलते हैं गमख़ार कम.

घर पहुँचने की तड़प में इस सफर में जाने जां,

रोटिया दिलकश अधिक है और तेरे रुखसार कम.

जोड़ कर रखा था नाता…

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Added by मनोज अहसास on May 14, 2020 at 12:22am — 5 Comments

मानन्द-ए-ज़माना अभी  शातिर नहीं हैं हम(१०० )

( 221 1221 1221 122 )

.

मानन्द-ए-ज़माना अभी  शातिर नहीं हैं हम

लोगों की तरह झूठ के नासिर नहीं हैं हम 

**

नफ़रत के अलमदार ये अच्छे से समझ लें

ये मुल्क हमारा है मुहाज़िर नहीं हैं हम

**

हम सिर्फ़ मुहब्बत को समझते हैं इबादत

बस  यार ख़ुदा अपना है काफ़िर नहीं हैं हम

**

जो दिल में रहे अपने वही रहता लबों पे 

पोशीदगी-ए-राज़ में माहिर नहीं हैं हम

**

दिखते  हैं अगर रुख़  पे तबस्सुम के मनाज़िर

ग़ायब करें ग़म…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 13, 2020 at 3:30pm — No Comments

तृप्ति

तृप्ति

चहुँ ओर उलझा कटा-पिटा सत्य

कितना आसान है हर किसी का

स्वयं को क्षमा कर देना

हो चाहे जीवन की डूबती संध्या

आन्तरिक द्वंद्व और आंदोलन

मानसिक सरहदें लाँघते अशक्ति, विरोध

स्वयं से टकराहट

व्यक्तित्व .. यंत्रबद्ध खंड-खंड

जब देखो जहाँ देखो हर किसी में

पलायन की ही प्रवृत्ति

एक रिश्ते से दूसरे ...

एक कदम इस नाव

एक ... उस…

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Added by vijay nikore on May 13, 2020 at 5:30am — 4 Comments

मातृ -महक

मातृ -महक
 
माँ बहुत स्वार्थी होती है
यह बात मुझे कभी समझ नहीं आती थी कि
मै समझदार जिम्मेदार क्यों नहीं हो पाती थी
सर्वदा सुरक्षित सर्वदा…
Continue

Added by amita tiwari on May 13, 2020 at 3:00am — 2 Comments

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