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मन एक सागर

मन एक सागर

जहाँ ;

भावनाओं की जलपरियाँ

करती हैं अठखेलियाँ

विचारों के राजकुमारों के साथ ;

घात लगाये छुपे रहते

क्रोध के मगरमच्छ ;

लालच की व्हेल भयंकर मुँह फाड़े आतुर

निगल जाने को सबकुछ ;

घूमते रहते ऑक्टोपस दिवास्वप्नों के ;

आते हैं तूफान दुविधाओं के ;

विशालता ही वरदान है

और अभिशाप भी ;

अद्भुत विचित्रता को स्वयं में समेटे

एक अनोखा सम्पूर्ण संसार है

जो सीमाओं में रहकर भी

सीमाओं से मुक्त है ;

मन एक सागर

जहाँ ;

अतीत डूब…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 29, 2012 at 12:41pm — 12 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३६ (साबुन की तरह इश्क भी इकरोज़ गल गया)

ऐसा लगता है कि इस ग़ज़ल की बह्र तरही मुशायरे २७ की ग़ज़ल की ही है. रदीफ़ तो वही है, पर काफिया अलग. मैंने शेर वज़न और बह्र में कहने की कोशिश तो की है, पर मेरे आलिम दोस्त ही बताएंगे कि मैं कोशिश में कितना कामयाब हुआ.

 

लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल गया

वो माह बनके अर्श पे आया निकल गया

 

गर्दूं में शब की चांदनी हौले से आ बसी

रोज़ेविसालेयार भी आखिर में ढल गया

 

मिटने लगे हैं फर्क अब दिन रात के सभी

मौसम हमारे शह्र का कितना बदल…

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Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 9:43am — 2 Comments

शहर में शांति है

शहर में शांति है



आज गाँधी जी के बुत के सामने फिर दंगे भड़क गए

धर्म के नाम पर लोग भिड़ गए मेरे शहर में

कितने ही मासूमों का खून बह निकला सड़कों पर

दिनभर से शहर में कर्फ्यू लगा है 

और प्रशासन कह रहा है शहर में शांति है |



हर रोज बलात्कार होते हैं मेरे शहर में

आबरू लूटती है चोराहों पर दोपहर में

नन्ही बच्चिओं को मार देते हैं जन्म से पहले

दर्द भरी चीखें निकलती हैं अँधेरी गलियों से 

और…
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Added by Er.vir parkash panchal on September 28, 2012 at 5:30pm — 4 Comments

दर्द में जो बात है वो बात राहत में कहाँ !

संघर्ष में आनंद है जो कामयाबी में कहाँ !

दर्द में जो बात है वो बात राहत में कहाँ !



मुद्दा कोई उलझा रहे चलती रहें बस अटकलें ,

जो मज़ा उलझन में है वो सुलझने में कहाँ !



ज़िंदगी की मुश्किलों से रोज़ टकराते रहें ,

ज़िंदगी के साथ है सब मौत आने पर कहाँ !



बरसो बाद दोस्त मिला दिल को मिली कितनी ख़ुशी !

ये गर्मजोशी ,शिकवे ,गिले रोज़ मिलने में कहाँ !



हमको सुकून की नहीं हमें कशमकश की चाह ,

जो…
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Added by shikha kaushik on September 28, 2012 at 5:00pm — 5 Comments

ख़ुद अपनी आँच में

तुम जल रहे हो, हम जल रहे हैं

ख़ुद अपनी आँच में पिघल रहे हैं

 

नया  दौर  हैं नये हैं रस्मों-रिवाज़

अब इंसानियत के पैगाम बदल रहे हैं

 

बाज़ारों की रौनक है, जादू का खेल

किस…

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Added by नादिर ख़ान on September 28, 2012 at 4:00pm — 6 Comments

पौधा रोपा परम-प्रेम का

पौधा रोपा परम-प्रेम का, पल-पल पौ पसरे पाताली |

पौ बारह काया की होती, लगी झूमने डाली डाली |

जब पादप की बढ़ी उंचाई, पर्वत ईर्ष्या से कुढ़ जाता -

टांग अडाने लगा रोज ही, बकती जिभ्या काली गाली |

लगी चाटने दीमक वह जड़, जिसने थी देखी गहराई -

जड़मति करता दुरमति से जय, पीट रहा आनंदित ताली |

सूख गया जब प्रेम वृक्ष तो, काट रहा जालिम सौदाई -

आज ताकता नंगा पर्वत, बिगड़ चुकी जब हालत-माली |

लगी खिसकने चट्टानें अब , भूमि स्खलित होती हरदम -

पर्वत की…

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Added by रविकर on September 28, 2012 at 2:00pm — 4 Comments

ये जिंदगानी

फूलों का सफर या

कांटों की कहानी

क्‍या कहूं कैसी है

ये जिंदगानी

कभी तो इसी ने

आंखों से पिलाया

बड़ी बेरूखी से

कभी मुंह फिराया

गम की इबारत या

जलवों की कहानी

क्‍या कहूं कैसी है

ये जिंदगानी

 

कभी सब्‍ज पत्‍तों पर

शबनम की लिखावट

कभी चांदनी में

काजल की मिलावट

 

कभी शोखियों की

गुलाबी शरारत

कभी तल्‍ख तेवर की

चुभती…

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Added by राजेश 'मृदु' on September 28, 2012 at 12:46pm — 3 Comments

आँसू चाँद के....

कई दिन की बारिश के बाद,

आज बड़ी अच्छी सी धूप खिली थी,

नीला सा आसमान,

जो भरा था कई सफ़ेद बादलों से,

कई लोगों ने अपने कपड़े,

फैला दिये थे सुखाने को छ्तों पर,

जो कई दिन से नमी से सिले पड़े थे,

याद आ ही गई बचपन की वो बात बरबस,

की जब कहा करते थे की,

बारिश होती है जब ऊपर वाला कभी रोता है,

फिर जब धूप खिलती थी,

और आसमान भर जाता था सफ़ेद बादलों से,

तब कहा करते थे की,

ऊपर वाले ने भी सुखाने डाली…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 27, 2012 at 10:47pm — 4 Comments

ग़ज़ल--हंसी और भी तुमको मौसम मिलेंगे।

हंसी और भी तुमको मौसम मिलेंगे।

मगर दोस्त तुमको कहां हम मिलेंगे।।

मेरा दिल दुखाकर अगर तुम हंसोगे।

तुम्हें जिंदगी में बहुत ग़म मिलेंगे।।

अगर जिंदगी में खुशी चाहते हो।

तो इस राह कांटे भी लाज़िम मिलेंगे।।

कभी भी किसी ने ये सोचा न होगा।

कि इनसान के पेट में बम मिलेंगे।।

खुशी सबको मिलती नहीं मांगने से।

बहुत लोग दुनिया में गुमसुम मिलेंगे।।

तुम्हारी खुशी को जुदा हो गया हूँ।

अगर जिंदगी है तो फिर हम…

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Added by सूबे सिंह सुजान on September 27, 2012 at 10:20pm — 4 Comments

केवल शो केसों में

बदल गयी नियति दर्पण की चेहेरो को अपमान मिले है , 

निस्ठायों को वर्तमान में नित ऐसे अवसान मिले है 



शहरों को रोशन कर डाला गावों में भर कर अंधियारे 

परिवर्तन की मनमानी में पनघट लहूलूहान मिले है,



चाह कैस्तसी नागफनी के शौक़ जहाँ पलते हों केवल 

ऐसे आँगन में तुलसी को अब जीवन के वरदान मिले है ,



भाग दौड़ के इस जीवन में मतले बदल गए गज़लों के 

केवल शो केसों में…

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Added by ajay sharma on September 27, 2012 at 10:00pm — 3 Comments

=====नज्म=====

=====नज्म=====



तुम्हारी भीगी पलकें

याद हैं मुझे

भीगी पलकें

झरने सी छलकीं

पिरो न पाया था

एक मोती भी

और मेरे समन्दर-ए-दिल में

बाढ़ आ गयी…



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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 27, 2012 at 4:41pm — 2 Comments

मोहब्बतों की दुनिया

मत लुटना मीठी मुसकानों पर,

ये जिस्मों की एक बनावट हैं,

कंकरीले-पथरीले रास्तों का हैं सफर,

ऊपर फूलों की बस सजावट हैं,…

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Added by Vasudha Nigam on September 27, 2012 at 1:30pm — 1 Comment

चालाक खुदा

चालाक खुदा 
 

खुदा बहुत ही चालाक है

अपनें सर कुछ नहीं लेता
इंसान खुद मौत की मांगे दुआ
इतना बेबस कर देता 
जवानी में जीने की चाह
मांगता खुदा से यह इंसान 
बुढ़ापे में बस मौत ही मांगे
बन जाता दाता का काम
चक्रव्यूह सा यह कालचक्र है
बार बार फँसता इंसान
भगवान नचाता कठपुतली सा
नाचता रहता है इंसान 
नाचता…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 27, 2012 at 11:12am — 2 Comments

कविता : हालत हो गयी है अपनी भूटान की तरह.

आमदनी घट रही है,होंठों से मुस्कान की तरह.

और खर्चे बढ़ रहे है, चौराहे पे दूकान की तरह.

भले ही रहते है यारों हम आलीशान की तरह.

पर हालत हो गयी है अपनी भूटान की तरह.



अरे किस से सुनाये दर्द,जब सबका यही हाल है.

ये बेबस जिंदगी उधार की,बस जी का जंजाल है.

बड़ी मुश्किल से लोग,हंसने का रस्म निभाते है.

वरना चुटकुले भी आँखों में आंसू भर के जाते है.

खुशिया लगती है सुनी,मातम के सामान की तरह.

और हालत हो गयी है अपनी, भूटान की तरह.



महंगाई के…

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Added by Noorain Ansari on September 27, 2012 at 9:30am — 6 Comments

बुरे वक़्त का साया

सुना था बुरे वक़्त में

साया भी साथ छोड़ देता है

कमबख्त बुरे वक़्त का साया

मरते दम तक साथ चिपका रहता है

कभी नहीं छोड़ता

गर एक पल भी अच्छा पल मिला

उसने चुपके से आके

यादों की सुई चुभा दी

भूल मत भूल मत

कहता हुआ

मैं हूँ तेरा कल

तेरी परछाई

तेरी तन्हाई का साथी

तेरे बुरे वक़्त का साया

साया जो कभी नहीं छोड़ता साथ

सुखों में

दुखों में हर पल

रहता है पल पल

साथ

सच्चा दोस्त हूँ मैं

बुरे वक़्त का साया…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 27, 2012 at 8:50am — 2 Comments

एक सपना है जीवन .......

एक सपना था जो टूट गया फिर,

व्यर्थ का ये प्रलाप है क्यों,

ख़ाबों के टूटने पर भी कभी,

कोई जान देता है भला,…



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Added by पियूष कुमार पंत on September 26, 2012 at 10:13pm — 4 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
खामोश आखर..

 

मूक रूदन
सहमे लब, खामोश आखर..
हृदय क्रंदित 
सूखी मरू सम, नयन गागर..
रिक्ततामय
शून्य विस्तृत, श्याम सागर..
क्षुद्र लोभन 
डाह विषमय, मनस अंतर..
नव्य चेतन 
सृजन स्नेहिल, बरसे जलधर..
स्वर्ण सम फिर 
दिव्य दमके, पूर्ण भूधर..

Added by Dr.Prachi Singh on September 26, 2012 at 8:00pm — 20 Comments

बंद - लघुकथा

महेश कोचिंग जाने के लिये तैयार हो रहा था कि तभी उसके पिता श्यामल बाबू ने उसे आवाज दी| "जी पिताजी" महेश ने उनके पास जा के पूछा| "हाँ महेश, सुनो मेरा तुम्हारी माँ के साथ झगडा हो गया है, वो कल उसने पकौड़े थोड़े फीके बनाये थे न, इसी बात पर| इसलिए आज सारा दिन तुम घर में बंद रहोगे और बाहर नहीं निकलोगे और यदि तुमने बाहर निकलने की कोशिश की, तो मैं तुम्हारे कमरे को पूरा तोड़-फोड़ दूंगा|" श्यामल बाबू इतना कह के चुप हो गये|

महेश ने हैरानी से अपने पिता को देखते हुए कहा - "पिताजी, यदि…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 26, 2012 at 8:00pm — 6 Comments

शुभ्रांशु जी के हास्य लेखन से प्रेरित हो कर एक हास्य लिखने की कोशिश ...........

जब भी शुभ्रांशु जी के हास्य-व्यंग्य के लेख पढ़ती हूँ ...लगता है कितनी आसानी और सहजता से से वो सब कुछ लिख जाते हैं और हँसा भी देते हैं ......एक दिन अचानक ही लगा दरअसल वो आसानी से लिख नहीं जाते है बल्कि यह लिखना बहुत आसान है l  क्यों न मै भी कुछ  हास्य व्यंग टाइप की चीज़ लिखूँ .

कविता में तो बड़ी पेचीदगियां है ..... एक कविता लिखने में तो…

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Added by seema agrawal on September 26, 2012 at 5:00pm — 15 Comments

बादल ने पूछा मानव से

बादल ने पूछा मानव से :

क्यों वृक्षों को काट दिया ?



धरती माँ का धानी आँचल

सौ टुकड़ों में बाँट दिया !



बन जायेंगे उन पेड़ों से कुछ खिड़की , कुछ दरवाज़े ...

देते रहना फिर बारिश की बूंदों को तुम आवाज़े ...



मानव ! तुमको कंक्रीट के जंगल बहोत सुहाते हैं ,

बोलो , क्या उनमें सावन के मोर नाचने आते हैं ?



बिन बरसे बादल लौटे तो धरती शाप तुम्हें देगी -

तपती , गरम हवा , सूखी नदिया संताप तुम्हें देगी !



वृक्ष धरा का आभूषण हैं , वृक्ष…

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Added by Prabha Khanna on September 26, 2012 at 3:30pm — 4 Comments

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