उन शहीदों को मेरा
सलाम है सलाम
जाँ बचाते-बचाते
दे गए अपनी जान
नाज करते हैं हम
उनके जज्बात पर
देश के मान पर
तिरंगे के सम्मान पर
जाँ बचाते रहे
बेखौफ हो निडर
एक जिद थी कि
ज्यादा से ज्याद
बचाते रहें
नेक था इरादा
काम नेक था
विधाता ने लिखा पर
कुछ और लेख था
मौत जीती मगर
हो गए वो अमर
उनको शत-शत नमन
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Pragya Srivastava on July 9, 2013 at 4:30pm — 7 Comments
घास का इक नर्म
बिछौना बनाकर
ओढ़ कर नीले
गगन की सर्द चादर
सोया है कोई …
ओस बिखरी है जो
हरी हरी घास पर
साँस भर भर आई
हर साँस पर
रोया है कोई ….
कहीं पुरवाइयों में
ओस की रुलाइयों में
चूड़ियों सा चटका है
टूटा, मेरी कलाईयों में
बिखरा है कोई …
गर्म लहू जमा वह
या ठंडी बरसात है
कुहासे का झाग
या तो चीख की आग
भिगोया है कोई…
ContinueAdded by वेदिका on July 9, 2013 at 3:30pm — 30 Comments
कितना ही पास हो मृत्यु-मुखद्वार
सीमित सोचों के दायरों में गिरफ़्तार,
बंदी रहता है प्रकृत मानव आद्यंत ...
इर्ष्या, काम, क्रोध, मोह और लोभ,
राग और द्वेष
रहते हैं यंत्रवत यह नक्षत्र-से आस-पास,
प्रक्रिया में बन जाते हैं यह मानव-प्रकृति,
विकृतियों में व्यस्त, मिलती नहीं मुक्ति।
अहंमन्यता के अंधेरे कुँए में निवासित
अभिमान-ग्रस्त मानव संचित करे भंडार,
कुएँ की परिधि में वह मेंढक-सा सोचे
‘कितना विशाल…
ContinueAdded by vijay nikore on July 9, 2013 at 12:30pm — 16 Comments
चुरा लेता है दिल सबका ,
बड़ा चित चोर है मोहन ।
कि हर जर्रे में बसता है ,
नही किस ओर है मोहन ।
निगाहोँ में भरा हो जब ,
प्रभू के प्रेम का प्याला ।
दिखायी हर जगह देगा ,
तुम्हे वो बांसुरी वाला ।
हर सच्चे दीवाने को
यही महसूस होता है ,
है छाया हर जगह उसकी
बसा हर ठौर है मोहन ।
न दौलत का वो भूखा है ,
न रिश्वत से ही बिकता है ।
हमारी आँख का तारा ,
मोहब्बत से ही बिकता है ।
ज़माना कुछ…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on July 9, 2013 at 11:44am — 18 Comments
ग़ज़ल लिखने का प्रयास
तसव्वुर जिसका देखा मैंने, हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो॥
रात पूनम, महताब जैसी, हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो॥
ऐसी ज़ुल्फ़ की छांव जैसे, घटा हों काली…
Added by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 9, 2013 at 10:30am — 6 Comments
Added by ajay sharma on July 9, 2013 at 12:00am — 4 Comments
स्नेह सुधा बरसाओ मेघा,
व्याकुल हुआ तरसता मन।
रिश्तों की जो बेलें सूखीं,
कर दो फिर से हरी भरी।
मन आँगन में पड़ी दरारें,
घन बरसो, हो जाय तरी।
सिंचित हो जीवन की धरती।
ले आओ ऐसा सावन।
दूर दिलों से बसी बस्तियाँ,
भाव शून्यता गहराई।
सरस सुमन निष्प्राण हो गए,
नागफनी ऐसी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 8, 2013 at 11:00pm — 14 Comments
२ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २
नायक या खलनायक उसे किस खाते लिखूं
या भटकी लाली के संग उस को जाते लिखूं
जिस को खुदा माना कभी हम ने दोस्त
दीया कोई उस की चोखट पर जलाते लिखूं
गा कोई तुम नगमा सुरीला सा मेरे दिल
तुझ को करीब पाऊं लोरी सुनाते लिखूं
वो छोड़ गया जो मुझ को इस भंवर में अब
अब तुम बता मुझको अपना किस नाते लिखूं
उस का करें किस बात पै हम यकीं मोहन ,
करते …
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on July 8, 2013 at 11:00pm — 5 Comments
मन भौंरे सा आकुल है
तुम चंपा का फूल हुई
मैं चकोर सा तकता हूँ
तुम चंदा सी दूर हूई
जब पतझड़ में मेघ दिखा
तब यह पत्ता अकुलाया
ज्यों टूटा वो डाली से
हवा उसे ले दूर उड़ी
तपती बंजर धरती सा
बूँद बूँद को मन तरसा
जितना चलकर आता हूँ
यह मरीचिका खूब छली
सपन सरीखा है छलता
भान क्षितिज का यह मेरा
पनघट पर जल भरने जो
लाई गागर, थी फूटी
- बृजेश…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 8, 2013 at 10:30pm — 12 Comments
बहर : १२१२२ १२१२२ १२१२२ १२१२२
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नहीं मिला जो जहाँ में जिसको वही उसे खींचता रहा है
ख़ुदा को मस्जिद में पा गया जो वो दौड़ मयखाने जा रहा है
वो जिसने माँगी थी सीट मुझसे ये कहके ईश्वर भला करेगा
जरा सा आराम पा गया तो मुझी को अब वो भगा रहा है
दवा से जो ठीक हो रहा था उसे पिलाया पवित्र पानी
जो दिन में अच्छा भला था कल तक वो रात भर चीखता रहा है
ख़ुदा का घर सब जिसे समझते वहीं हजारों हुये लापता
बने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 8, 2013 at 10:07pm — 3 Comments
तन्हा- तन्हा, चुपके चुपके
.
Added by Sonam Saini on July 8, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।
कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।
न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों…
Added by Arvind Kumar on July 8, 2013 at 4:30pm — 11 Comments
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
भाषण में झूठे वादों से
अपने नापाक इरादों से
तुम ख्वाब दिखाके उड़ने के
खुद बैठे हो सैयादों से
बस नोट, सियासी इल्ली बन, तुम बोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
हर ओर मुफलिसी फांके हों
यूँ रोज ही भले धमाके हों
कागज़ पे सुरक्षा अच्छी है
इस पर भी खूब ठहाके हों
पहले तो खेल सजाते हो फिर रोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 8, 2013 at 3:30pm — 7 Comments
Added by Drshorya Malik on July 8, 2013 at 10:30am — 6 Comments
जगह जगह मधुशाला देखी , नल का पानी बंद मिला
अंधी नगरी चौपट राजा , किससे शिकायत किससे गिला
दिया दाखिला सब बच्चों को ,
मिली पढ़ाई मात्र नाम की ,
कंप्यूटर मिल रहे खास को ,
बिजली पानी नही आम की ,
आँखो पर पट्टी है या फिर सबको दी है भंग पिला
गूंगे गाये गीत मान के
बहरे सुन सुन कर इतराएँ
अंधों भी उत्सुक हैं ऐसे
महज इशारों मे बौराएँ
बंदर सारे खेल कर रहे ""अजय" मदारी रहा खिला
मौलिक और…
ContinueAdded by ajay sharma on July 7, 2013 at 11:30pm — 9 Comments
221 2121 1221 212
बेख़ौफ़ सारी उम्र निकल जाये इस तरह
गिरने की बात हो न, संभल जाए इस तरह
तूफ़ान भी चले तो चरागा जला करे
दोनों ही अपनी राह बदल जाए इस तरह
हर सिम्त जिंदगी रहे, पुरजोश बारहां
जो मौत का भी होश,बदल जाए इस तरह
फैले कहीं जो बाहें तो बच्चों सा दौड़कर
मिलने को हर इक शख्स मचल जाए इस तरह
आंसू किसी की आँखों का, हर आँख से बहे
इस शहर की फ़ज़ा भी बदल जाये इस तरह…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 7, 2013 at 10:40pm — 12 Comments
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 7, 2013 at 8:00pm — 4 Comments
कुछ शहनशाहों के तख़्त
कुछ ऊँचे पर्वतों के शिखर
कुछ ऊँचें अटार
कुछ ऊँचें लोग अपने कद से भी बहुत ऊँचे
आम आदमी पहुँच नहीं पाता उन तक
और सिर झुकाए निराश है
पर देखो
लाख किरकिराती है
किसी को फूटी आँख नहीं सुहाती है
फिर भी धूल बही जाती है बेफिक्री में
बिना दुःख और मलाल के
और होता भी है यह है कि
आदी कैसी भी हो
अंत उसके सुपुर्द होता है .... ~nutan~
मौलिक अप्रकाशित
Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on July 7, 2013 at 5:30pm — 2 Comments
तू तो वह पल है
जिसे मैंने पाला है
जिसको मैंने जिया है
जिसने मुझे रुलाया
और
हँसाया भी है
मुझे, तुमसे मिलाया भी है
और मुझको, मुझसे भी मिलाया है
पद दिया
मान दिया
सम्मान दिया
कभी अर्श पे
कभी फर्श पे
बैठाया ....
मगर पल का क्या
पल की आदत है
बीत जाना
तो वो पल था
जो छोड़ गया
ये पल है
कल ये भी न होगा
पल का क्या
पल की तो आदत है
बीत जाना ....
"मालिक व अप्रकाशित "
Added by Amod Kumar Srivastava on July 7, 2013 at 5:00pm — 5 Comments
Added by Kavita Verma on July 7, 2013 at 2:24pm — 7 Comments
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