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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४२ (हे प्रभु)

हे प्रभु,

मैंने मन मंदिर में

आपकी मूर्ति की स्थापना तो कर दी है

मगर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा का काम तो आपका ही है

क्योंकि मुझमें यह कला नहीं.

अब आप ही इसके देव, आप ही इसके पुजारी,

और आप ही इसके उपासक हैं.

मैं तो इक इमारत भर हूँ

जो जड़ता के स्पंदन के स्तर तक ही जीवित

और अस्तित्ववान है.

 

हे नाथ,

जब तक आप इसके मूल में प्राणाहूत हैं,

इस प्रस्तरशिला रूपी संरचना का कोई अर्थ है.

हे मालिक,

समय-समय पर आप अपनी करुणा से

इसे इतना उर्जावान करते रहें कि

समय की धूल

और नाना सांसारिकता रूपी आगंतुकों से

इसकी आत्मा म्लान न हो जाए

और यह मंदिर सिर्फ

ऐतिहासिक और पुरातत्विक महत्त्व की

वस्तु भर बन कर न रह जाए.

 

आपका दास

 

© राज़ नवादवी

भोपाल गुरुवार ०८/०८/२०१३ प्रातःकाल ०८.३१

 

‘मेरी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना’ 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on August 10, 2013 at 10:52am

आदरणीया महिमा जी, आपको इस अकिंचन की प्रस्तुति अच्छी लगी, यह जानकार बहुत अच्छा लगा. आपकी बधाइयों का हृदय से स्वागत है. साभार- राज़!

Comment by MAHIMA SHREE on August 9, 2013 at 10:20pm

बहुत -२ हार्दिक बधाई आदरणीय ... बहुत ही सुंदर दर्शन और अध्यात्म की  मनोहर प्रस्तुती ...आपकी उर्दू और हिंदी की दोनों पे पकड़ बेजोड़ है . सादर

Comment by राज़ नवादवी on August 9, 2013 at 9:28pm

आदरणीया वसुंधरा जी...आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद! 

Comment by Vasundhara pandey on August 9, 2013 at 4:25pm

आमीन...प्रार्थना कबूल हो....

बधाई आपको

Comment by राज़ नवादवी on August 8, 2013 at 10:38pm

आदरणीय अनंत जी, आपका हार्दिक आभार! 

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 8, 2013 at 3:52pm

वाह आदरणीय ईश्वर इतनी विनम्रता, नम्रता एवं सुन्दरता से प्रार्थना की है आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें.

कृपया ध्यान दे...

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