रात पर जय प्राप्त कर जब जगमगाती है सुबह।
किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।
त्याग बिस्तर, नित्य तत्पर, एक नव ऊर्जा लिए,
लुत्फ लेने भोर का, बागों बुलाती है सुबह।
कालिमा को काटकर, आह्वान करती सूर्य का,
बाद बढ़कर, कर्म-पथ पर, दिन बिताती है सुबह।
बन कभी तितली, कभी चिड़िया, चमन में डोलती,
लॉन हरियल पर विचरती, गुनगुनाती है सुबह।
फूल कलियाँ मुग्ध-मन, रहते सजग सत्कार को,
क्यारियों फुलवारियों को,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on January 31, 2014 at 10:30am — 28 Comments
दरवाज़ा तो मैंने ही खुला छोड़ा था
कि तुम भीतर आओगे
और बंद कर दोगे /
मगर
खुले दरवाज़े से आते रहे
सर्द हवाओं के झोंके
और ठिठुरता रहा मैं /
चेतनाशून्य होने ही वाला था कि
किसी ने
भीतर आ के
दरवाज़ा बंद कर लिया /
अधमुंदी आँखों से मैंने देखा
वो तुम नहीं थे /
मगर वो गर्मी कितनी सुखद थी /
और फिर
ना जाने कैसे
कब से
पेड़ कि फुनगी पर
बैठा चाँद
चुपके से उतर कर
मेरी आँखों में…
Added by ARVIND BHATNAGAR on January 30, 2014 at 8:30pm — 14 Comments
आँखों देखी 11 - रोमांचक 58 घंटे
मैंने आँखों देखी 9 में ऑक्टोबर क्रांति से जुड़े कार्यक्रम में भाग लेने के लिए रूसी निमंत्रण की ओर इशारा किया था. फिर, हम लोगों के समुद्र के ऊपर पैदल चलने की बात याद आ गयी. सो, पिछली कड़ी (आँखों देखी 10) में रूसी निमंत्रण की बात अनकही ही रह गयी थी. आज मैं आपको वही किस्सा सुनाने जा रहा हूँ.
हमारे स्टेशन में उनके एक सदस्य की शल्य चिकित्सा के बाद रूसी कुछ विशेष…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on January 30, 2014 at 8:00pm — 11 Comments
खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:55pm — 25 Comments
दिल बड़ी अजीब शय है
खुश हो तो
बहकता है
चहकता है
महकता है
उछलता है
मचलता है
टूटता है तो
हो जाता बेदर्द
देता इंतहा दर्द
कर देता सर्द
खो जाता चैन
कर देता बेचैन
हर दिन हर रैन
.......................
मौलिक व् अप्रकाशित
Added by Sarita Bhatia on January 30, 2014 at 6:02pm — 15 Comments
1) बंधन बांधो नेह का पुनि पुनि जतन लगाय ।
चुन चुन मीत बनाइये खोटे जन बिलगाय ॥
2) प्रेम कुटुम्ब समाइए सागर नदी समाय ।
ज्यों पंछी आकाश मे स्वतंत्र उड़ता जाय ॥
3) धोखा झूठ फरेब औ फैला भ्रष्टाचार ।
फैली शासनहीनता है पसरा व्यभिचार ॥
संशोधित
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on January 30, 2014 at 1:30pm — 11 Comments
तेरी कुएँ सी प्यास
तेरी अघोरी भूख
भिखारन, तू नित्य मेरे आँगन में आती
एक धमकी
एक चुनौती
तेरे आशीष में होती
घबराकर मैं तेरी तृष्णा पालती.
तू मेरी धर्मभीरूता को खूब पहचानती
और, मेरी सहिष्णुता का गलत मतलब निकालती.
‘’दे अपना हाथ तुझे उबार दूँ.’’
तूने तड़प कर दुहाई दी
अपने कुनबे की.
भिखारन! तेरे कितने नाज़
तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार
गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़
छोड़ अब माँगने की परम्परा.
काम कर, कुछ काम कर…
Added by coontee mukerji on January 29, 2014 at 5:00pm — 18 Comments
क्षण भंगुर जीवन हुआ, जीवन का क्या मोल ।
भज लो तुम भगवान को, क्यों रहे विष घोल ।।
बंद पड़ी सब खिड़कियाँ, चाहे तो लो खोल ।
खुले हुये अंबर तले, कर लो अब किल्लोल ॥
* भामा माया मोहिनी, मोहति रूप अनेक ।
माया माला भरमनी, फंसत नाहीं नेक ॥
*इस दोहे को इस तरह भी देखें :-
ऐसी माया मोहिनी मोहती रूप अनेक ।
केवल माला फेर के कोई न बनता नेक ॥
संशोधित
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on January 28, 2014 at 11:00pm — 21 Comments
वक्त की आंधी में ....
कुछ तुमने बढ़ा ली दूरियां
कुछ हम मज़बूर हो गए
अपने अपने दायरों में
इक दूजे से दूर हो गये
चंद लम्हों की मुलाक़ात में
जन्मों के वादे कर लिए
चंद कदम चल भी न पाये
और रास्ते कहीं खो गये
वक्त की आंधी में सारे
स्वप्न गर्द में खो गये
कर न पाये शिकवा कोई
हम दो किनारे हो गये
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 28, 2014 at 5:00pm — 24 Comments
ल ला ल ला ला ल ला ला ल ल ला ला ला ला
शबाब फूलों का शबनम में मिला देते हैं
शराब यूं ही हसी रोज बना देते हैं
दुआएं करते हैं हम जब भी अमन की खातिर
कबूतरों को भी हाथों से उड़ा देते हैं
कभी जो आया हमें याद सुहाना बचपन
हँसी घरोंदा ही बालू पे बना देते हैं
हुए न जब भी चरागा हैं मयस्सर हमको
चरागे दिल को यूं ही रोज जला देते हैं
समझ रहे हैं फकीरों को भिखारी या रब
फ़कीर खुद ही…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on January 28, 2014 at 1:00pm — 24 Comments
जीवन में कितने चक्रव्यूह
पर घबराना कैसा
पग-पग मिले सघन अरण्य
खूंखार एक सिंह अदम्य
तुझे मिटाने की खातिर
खेले दांव बहु जघन्य
अहो प्रतिद्वंदी ऐसा
पर घबराना कैसा
करके तराश दन्त नक्श
जाना तू उसके समक्ष
नेस्तनाबूत करने को
उसी हुनर में होना दक्ष
कर वार उसी पर वैसा
पर घबराना कैसा
शत्रु हावी हो या पस्त
तू विजयी हो या परास्त
होंसलों की डोरी पकड़…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 28, 2014 at 12:20pm — 22 Comments
धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है
उदासी का सबब और भी गहरा हुआ है
तूफ़ा से कह दो थोडा संभल कर चले
वक्त आज यहाँ कुछ बदला हुआ है
दुनिया का कैसा ये बाजार सजा है
जहाँ देखो हर रिश्ता बिका हुआ है
रात भर लिखती रही दर्द की दास्ता
रात का साया और भी गहरा हुआ है
देश की हालात मत पूछो तो अच्छा है
यहाँ हर इंसान इंसान से डरा हुआ है
देख कर खुशनुमा ये मंज़र हैरान हूँ मैं
एक फूल से सारा चमन…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on January 28, 2014 at 11:30am — 12 Comments
पर्वत की तुंग
शिराओं से
बहती है टकराती,
शूलों से शिलाओं से,
तीव्र वेग से अवतरित होती,
मनुज मिलन की
उत्कंठा से,
ज्यों चला वाण
धनुर्धर की
तनी हुई प्रत्यंचा से.
आकर मैदानों में
शील करती धारण
ज्यों व्याहता करती हो
मर्यादा का पालन.
जीवन देने की चाह
अथाह.
प्यास बुझाती
बढती राह.
शीतल, स्वच्छ ,
निर्मल जल
बढ़ती जाती
करती कल कल
उतरती नदी
भूतल समतल
लेकर ध्येय जीवनदायी
अमिय भरे
अपने…
Added by Neeraj Neer on January 28, 2014 at 10:04am — 36 Comments
212/ 212/ 212/ 212
पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ
ये लगे है कि मिट जाये अब दूरियाँ
चाँदनी भी है कंदील भी हाथ में
फिर भी क्यूँ रौशनी से अजब दूरियाँ
याद आती रहे आपको मेरी तो
मैं कहूँ है बहुत मुस्तहब दूरियाँ
मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई
दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ
मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत …
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 8:30am — 13 Comments
हुआ है आज क्या घर में हर इक सामान बिखरा है
उधर खुश्बू पड़ी है और इधर गुलदान बिखरा है /१
मुहब्बत क्या है ये जाना मगर जाना ये मरकर ही
लिपटकर वो कफ़न से किस तरह बेजान बिखरा है /२
यहीं मैं दफ्न हूँ आ और उठाकर देख ले मिट्टी
मेरी पहचान बिखरी है मेरा अरमान बिखरा है /३
मुझे रुस्वाइयों का गम नहीं गम है तो ये गम है
लबों पर बेजुबानों के तेरा एहसान बिखरा है /४ …
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on January 27, 2014 at 9:30pm — 28 Comments
पीपल की छाँव में खीर खाये एक अरसा हो गया है
मन फिर से चंचल है
तुम आओगी न, सुजाता !
उसके होने न होने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ना था,
ऐसा तो नहीं कहता
लेकिन क्या वो
कोई आम, अशोक, महुआ या जामुन नहीं हो सकता…
Added by Saurabh Pandey on January 27, 2014 at 8:00pm — 31 Comments
राज आप का आप पर, पूछ रहे है लोग
नेताजी क्या आप ने,किया उचित उपयोग ?
किया उचित उपयोग,लगा क्या जन को ऐसा
जनता करती आस, दिया क्या शासन वैसा.
होती है पहिचान, भला करे जब आम का
जन का हो कल्याण, तभी है राज आप का |
(2)
सुरसा से ये फैलते, प्रचलित बहुत रिवाज
जीना कुंठित कर रहे, छोड़ न पाय समाज |
छोड़ न पाय समाज, कर्ज में निर्धन डूबे
खिलावे म्रत्यु भोज, प्रतिष्ठा के मनसूबे
स्वार्थ के वशीभूत, भोज का बाँटे पुरसा …
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 27, 2014 at 7:30pm — 13 Comments
2212 1212 1212 22
तारीक़ी फिर लगी मुझे बढ़ी चढ़ी क्यों है
सूरत में सुब्ह की बसी ये बरहमी क्यों है
क्यूँ रात शर्मशार सी है चुप खड़ी दिखती
ये सुब्ह बेज़ुबान सी , डरी हुई क्यों है
ख़ंज़र की दिल-ज़िगर से, दुश्मनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 27, 2014 at 5:30pm — 22 Comments
आज कुन्ती के पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे | खुशी इतनी थी कि उसका मन भर-भर आ रहा था | अपने पति के प्रति अथाह आदर भाव और प्रेम तो पहले से ही था उसके हृदय में, आज वो कई गुना और बढ़ गया था | उसका दिल खुशी से धाड़-धाड़ धड़क रहा था खुशी की अधिकता के कारण वो काँप रही थी | किसी तरह वो तैयार हो कर आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी | हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी में वो कितनी जंच रही थी जो इसी विशेष अवसर के लिए पति ने खरीद कर तैयार करवाई थी | स्टूल पर बैठ कर कुन्ती सिर पर पल्लू रख कर अपनी मांग में…
ContinueAdded by Meena Pathak on January 27, 2014 at 2:30pm — 34 Comments
दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 7:28am — 24 Comments
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