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ये मोहब्बत भी क्या चीज़ होती है -- डॉo विजय शंकर

हर बात की वजह होती है

ये मोहब्बत ही क्यों बेवजह होती है

और जो बवजह हो , वो कुछ भी हो ,

यक़ीनन, वो मोहब्बत नहीं होती है ॥



जानकार कहते हैं ,

बिना हिलाये तो पता भी नहीं हिलता ,

बिना किये तो कुछ भी नहीं होता है ,

फिर ये मोहब्बत क्यूँकर अपने आप होती है ।



यूँ तो बहुत जगाये रहती है , फिर भी ,

ये मोहब्बत क्यों एक गहरी नींद का ,

एक ख़्वाब सी लगती है जो हमेशा

टूट जाने के डर के साये में रहती है ॥



मोहब्बत कोई गुनाह तो नहीं है ,… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on December 7, 2014 at 9:51am — 14 Comments

समझदारी

यूँ तो 17 बरस की उमर मेँ भी वो बड़ी भोली थी। उसकी हर बात मेँ अभी भी बचपना-सा था।

उसकी बातेँ कभी मुझे माता की गोद के समान आनन्दित कर देती तो कभी उसकी ज़िद खीझ उत्पन्न कर अपना गुस्सा उस पर उतार देने को विवश। अक्सर ही मैँ उसे कहता- "न जाने तुम कब बड़ी होओगी ?"

और वो मुस्कुरा कर कहती- "मै नही सुधरने वाली।"



आज पूरे दो साल बाद मैँ उससे मिलने वाला हूँ। जाने वो कैसी दिखती होगी? मुझे देखते ही मुझे मारने दौड़ पड़ेगी। खूब शिकायतेँ करेगी और भी न जाने क्या-क्या पूर्वानुमान लिए मैँ उससे…

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Added by pooja yadav on December 6, 2014 at 7:30pm — 6 Comments

नवगीत : तुम अब तक भूखे हो?

एक प्रयास ...नवगीत : तुम अब तक भूखे हो?

हम सबको तो मिला चबैना,

तुम अब तक भूखे हो?

बंटता खूब चुनावी चंदा,

तुम अब तक रूखे हो?

पंजा वाले, सइकल वाले,

कुछ हाथी वाले थे.

खिले फूल थे, दीवारों पर,

सब अपने वाले थे.

बटी बोतलें गली गली में,

तुम अब तक छूछे हो? 

हम सबको तो मिला चबैना,

तुम अब तक भूखे हो?

हाथों…

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Added by harivallabh sharma on December 6, 2014 at 11:00am — 14 Comments

ग़ज़ल---उमेश कटारा

मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं

ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं

................

समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको

मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं

................

अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल

मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं

................

सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले

तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं

.................

मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे…

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Added by umesh katara on December 6, 2014 at 10:00am — 21 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

इश्क़ तो इश्क़ है फितूर नहीं

कौन है जो नशे में चूर नहीं



लक्ष्य कोई भी पा सकोगे तुम

हौसला हो तो लक्ष्य दूर नहीं



आके मिल मुझसे बात भी कर अब

दूर से ऐसे मुझको घूर नहीं



सब खुदा हो गए ये बाबा तो

संत जैसा किसी पे नूर नहीं



सिर्फ ममता मिलेगी आँचल में

माँ खुदा सी है कोई हूर नहीं



सब पुजारी हैं आज दौलत के

कोई तुलसी रहीम सूर नहीं



बेवजह रस्ता देख मत गुमनाम

तेरी तक़दीर में हुज़ूर नहीं



गुमनाम…

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Added by gumnaam pithoragarhi on December 5, 2014 at 6:00pm — 13 Comments

अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !

अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !

 

पुलक गया मन महक उठा तन

हंस  रहा  अंतर  का  वृन्दावन

भाव के मेघ उठे सागर की छोर

मन में बरस गए सावन के घन

अम्बर से तारों के फूल गए झूल I

 

बसी नस-नस में पीड़ा की पीर

सुप्त उर हो उठा सहसा अधीर

पाटल से छिल रहा सांवला तन

मन को बेध गया नैनो का तीर

फूलो सा फूल गया अंतस का फूल I

 

मुकुलित…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2014 at 1:00pm — 18 Comments

वक्त और मुझमे लडाई है

२१२२ २१२२ २१२२ २



बादे मुद्दत फिर मुझे वो याद आयी है!

फिर किसी ने फूल से तितली उडाई है!!



फिर चुभा है दिल में मेरे याद का कंकड!

फिर से उसने आतमा मेरी दुखाई है!!



इसमें उसकी कुछ ख़ता ना है जमाने सुन!

दरअसल इस वक्त और मुझमें लडाई है!!



राख बनकर उड गये दिल जाँ जिगर अरमाँ!

इस तरह उसने मेरी चिट्ठी जलाई है!!



देख ली सारी ये दुनिया और खुदा को भी!

इस जहाँ में सिर्फ़ अपना अपनी माँई है!!



फेंक डाला दिल मेरा उसने गुमां है… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on December 5, 2014 at 12:30pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
वह आज ही बेवा हुई ! (नज़्म, बह्र-ए-रजज़)

[ 2 2 1 2 ]

 

वो आज ही बेवा हुई !

 

बुझ-सी गई जब रौशनी, जमने लगी जब तीरगी,

बदली यहाँ फिर ज़िन्दगी, वह आज ही बेवा हुई !

क्यूं तीन बच्चे छोड़कर, मुंह इस जहां से मोड़कर,

वो हो गया ज़न्नतनशीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

है लाश नुक्कड़ पे पड़ी, मजमा लगा चारो तरफ,

उस पर सभी नज़रें गड़ी, वह आज ही बेवा हुई !

वो रो रही फिर रो रही, बस लाश को वो ताकती,

उसने कहा कुछ भी नहीं, वो आज ही बेवा हुई !

 

फिर यकबयक वो चुप हुई,…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 5, 2014 at 2:30am — 19 Comments

जिंदगी सर को झुका कर रह गई...

हर क़दम पर मात खाकर रह गई,

जिंदगी सर को झुका कर रह गई.

देख लो पहचान मेरी हो जुदा,

एक खुदसर में समाकर रह गई.

होगी मलिका सल्तनत की वो मगर,

मेरी खातिर कसमसा कर रह गई.

रूह मुझसे जाँ छुड़ाने के लिए,

हर दफा बस छटपटा कर रह गई.

सोजे दिल पानी से भी ना बुझ सके,

आंख भी आंसू बहा कर रह गई.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by इमरान खान on December 4, 2014 at 3:58pm — 16 Comments

सपना (एक संस्मरण ,एक मनोव्यथा )

आज से 2 साल पहले ज़िन्दगी की सबसे काली रात मेरी प्रतीक्षा कर रही थी |काला नाग अपना फन फैलाए ,घात लगाए बैठा था ,मेरा सब कुछ छीन लेने के लिए |नहीं जानता था की जीवन के सबसे सुंदर सपने का आज अंत हो जाएगा | 12 दिसम्बर 2009 को जब प्रणय-सूत्र में तुमसे बंधा था तो उसी रोज़ से एक सपने में खो गया था |तुम्हारे सपने में |–जैसा की तुम्हारा नाम था –‘सपना | जगती हुई आँखे में तुम और सोते हुए भी बस तुम्हारा ही सपना |अपने नाम के मुताबिक जीवन में कितनी रंगीनिया भर दी तुमने |कहने को तो मैं एक सपने में था…

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Added by somesh kumar on December 4, 2014 at 11:30am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - चलो कर लें निकलने का बहाना अब ( गिरिराज भंडारी )

१२२२        १२२२       १२२२

अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना  अब

क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब

समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली

चलो कर लें  निकलने का  बहाना अब

 

वही आंसू , वही आहें  , वही   ग़म है

कहीं  पे  ख़त्म हो जाये  फ़साना  अब

 

झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है

कहेगा क्या जो  जानेगा  ज़माना  अब

 

सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी

मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 4, 2014 at 11:00am — 32 Comments

तेरा दिया जन्म,मुझे स्वीकार नहीं

तेरा दिया जन्म

मुझे स्वीकार नहीं

जन्म स्थान

मुझे स्वीकार नहीं

यह नाम

मुझे स्वीकार नहीं

स्वीकार नहीं मुझे

कर्म करना, और   

भाग्य से बंध जाना

मुझे स्वीकार नहीं

स्वीकार नहीं मुझे

तेरे तथा-कतिथ दूतों के

नैतिकता-अनैतिकता के निर्देश

उनके छल भरे उपदेश

तेरे नाम पर रचे, उनके

षडयन्त्र भरे परिवेश

मैं विद्रोही तेरी माया का

आ ,मुझे नरसिंह बनकर

हिरण्यकश्यप की तरह मार दे

या…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 3, 2014 at 10:30pm — 14 Comments

गज़ल ~ फिर मेरे होँठोँ की तुम

2122 2122 2122 212



फिर मेरे होँठोँ की तुम मुस्कान लेकर आ गये ।

जा रही थी जिन्दगी तुम जान लेकर आ गये ।



ख्वाबोँ के उजडे शहर मेँ कोई दस्तक हो गयी ,

तुम सजाकर फिर नये अरमान लेकर आ गये ।



मेरी किस्मत ने दिखाई और ही तस्वीर थी ,

जिन्दगी की तुम अलग पहचान लेकर आ गये ।



प्यार खुशबू सादगी अहसास नग्मा आरजू ,

दिल मेँ तुम कितने हँसी मेहमान लेकर आ गये ।



आज तो मौसम जुदा है आज आलम और है ,

तुम बदलते वक्त का फरमान लेकर आ गये… Continue

Added by Neeraj Nishchal on December 3, 2014 at 12:32pm — 30 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : सुकून (गणेश जी बागी)

                         व्यंग्यात्मक शैली में लिखने के लिए जाना जाता है, उसकी कवितायेँ बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से राजनेताओं पर तीखी मार करती हैं, उसकी कविता प्रतिष्ठित अखबार के साहित्यिक स्तम्भ में आज प्रकाशित हुई है, कल से ही वो परेशान और बेचैन था, जाने क्या होगा, पता नहीं उसकी अभिव्यक्ति को लोग समझ भी पाएंगे अथवा नहीं, रात भर वह सो न सका ।
                        सुबह होते ही मोबाइल की घंटियां बजने लगी, उसका मन शांत था और…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 3, 2014 at 12:13pm — 33 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दोहे-क़िस्त तीन

मुट्ठी में कब रेत भी, ठहरी मेरे यार।

चार पलों की जिंदगी, बाकी सब बेकार।।

 

जीवन की इस भीड़ में, सबके सब अनजान।

सिर्फ फलक ही जानता, तारों की पहचान।।

 

पाप पुण्य जो भी किया, सब भोगे इहलोक।

जाने कैसा कब कहाँ, होगा वो परलोक।।

 

आँखों ने जाहिर किया, कुछ ऐसा अफ़सोस।

आँखों पे कल धुंध थी, अब आँखों में ओंस।।

 

व्यर्थ मशालें ज्ञान की, प्रेम पिघलते दीप।

बिखरी है हर भावना, सिमटा दिल का सीप।।

 

सागर से…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दोहे-क़िस्त दो

घर बदला, बदला जहां, बदले बदले लोग ।

अर्थ बदलते देखिए, क्या जोगी क्या जोग ।।

 

पलकों से उतरी जरा, धीरे धीरे रात ।

शामों की दहलीज पे, साए करते बात ।।

 

धुंधली धुधली हो गई, यादों की सौगात।

अफरातफरी वक़्त की, ये कैसे हालात।।

 

आवाजे होती गई, सब की जब खामोश।

शहर बिचारा क्यों मढ़े, सन्नाटे को दोष।।

 

ढलती शामों में किया, पीपल ने संतोष।

बिछड़ गई परछाइयाँ, सूरज भी खामोश ।।

 

हमने जब से ले लिया, इश्क़…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 3:00am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दोहे-क़िस्त एक

मिलना तो दिल खोल के, मिल लो मेरे यार।

छोटी सी है ज़िन्दगी, तुम छोड़ो तकरार ।।

 

बहुत दिनों से गर्म है, सपनो के बाज़ार ।

बदल रहे है देखकर, रिश्तो के आसार।।

 

आँखे भर भर आ गई, छूकर उनके पाँव।

यादों में फिर छा गया, बरगद वाला गाँव।।

 

मौसम की पदचाप भी, गुमसुम और उदास।

आँगन की तुलसी डरी, सहमा देख पलाश ।।

 

रहने दो गुल बाग में, गुंचा और बहार ।

हरियाली का इस तरह, ना बाटो सिंगार।।

 

मालिक के  दीदार…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 2:30am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अपना घर (नज़्म)

वक़्ते-पैदाइश पे यूं

मेरा कोई मज़हब नहीं था

गर था मैं,

फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था

बनाया मैं गया मज़हब का दीवाना

कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना

मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ

कि मुझको क्यूँ बनाया यूं

पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो

हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों

कहा सबने कि मज़हब लिक्ख

दिया किरपान बन गया सिक्ख

कि बस ऐसे धरम की खाल को

मज़हब के कच्चे माल को…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 2:00am — 22 Comments

ग़ज़ल--उमेश कटारा

क्या पता किस ख़ुदा ने बनायी मोहब्बत

पत्थरों से मुझे फिर करायी मोहब्बत



उसकी आँखों में सारा जहाँ मिल गया था

उसने हँसके ज़रा सा ज़तायी मोहब्बत



वो मेरा हा गया ,हो गया मैं भी उसका

हमने बर्षों तलक फिर निभायी मोहब्बत



रोज मिलने लगे ,सिलसिला चल पड़ा था

चाँद तारों से मैंने सजायी मोहब्बत



पर खुदा हमसे नाराज रहने लगा तो

दिलजलों की तरह फिर जलायी मोहब्बत



हो गये हम दिवानों से मशहूर दोनों

दुश्मनों ने बहुत फिर सतायी मोहब्बत



ख़ाक में…

Continue

Added by umesh katara on December 2, 2014 at 7:37pm — 15 Comments

आभास हो तुम ......

आभास हो  तुम  ........

आभास हो  तुम  विश्वास  नहीं हो

तुम रूठी  तृप्ति  की प्यास नहीं हो

जिन मधु पलों को मौन भी तरसे

तुम उस पूर्णता का प्रयास नहीं हो

आभास हो  तुम  विश्वास  नहीं हो 

तुम रूठी  तृप्ति  की प्यास नहीं हो .........

अतृप्त कामनाओं के स्वप्न नीड़ हो

अभिलाष कलश  के  विरह नीर हो

जिस प्रकाश  को  तिमिर भी तरसे

तुम उस  जुगनू  का प्रकाश नहीं हो

आभास हो  तुम  विश्वास  नहीं हो 

तुम रूठी…

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Added by Sushil Sarna on December 2, 2014 at 1:30pm — 17 Comments

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