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परिवार / लघुकथा

 " अरे साहब , क्या हो गया है तुमको , ऐसे जमीन पर ..... ! "

" कौन विमला ? इतने दिन कैसे छुट्टी कर ली तुमने .....आह ! मुझ बुढ़े का तो ख्याल करती "

" उठो ,चलो बिस्तर पर , ज्यादा बोलने का नही रे ! .... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "

" हाँ ,सही कहा , तुम्हारा अपना घर !"

" साहब ,एक बात कहूँ , अब तुम अकेले नहीं रह सकते हो , तुम्हारी बेटी को बुला लो "

" क्या कहा तुमने ,बेटी को बुला लूँ ? "

" हाँ , यही बोला मै तेरे को , तू आज है कल नहीं है । ऐसे में किसी को पास होना माँगता ना ! देखो तो ,कैसे जमीन पर लुढ़का हुआ था "

" इकलौती बेटी मेरी ,जिसको पढ़ा - लिखा ,अफसर बना कर बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहा , वो भी तो अब तुम्हारे जैसा ही कहती है विमला "

" मेरे जैसा कहती है , क्या कहती है वो ? "

" कहती है , वो अपने घर को छोड़ कर मुझे नहीं देख सकती है । उसकी पहली प्राथमिकता उसका अपना परिवार है "

" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by munish tanha on June 30, 2016 at 8:41am

तुम्हारी बेटी की जगह अपनी बेटी को बुला लो बेहतर होता बाकि कहानी मुझे अच्छी लगी  आजके दौर को प्रभाषित करती 

Comment by Nita Kasar on June 28, 2016 at 12:39pm
कथा आपकी उन बेटियों पर कारारा व्यंग्य है,जो माता पिता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नही निभाती उन्है भगवान भरोसे छोड देती है,काश उन्है अपनी परवरिश के दिन याद रहते,उन्है बस लेना ही आता है, बधाई आपके लिये ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 28, 2016 at 11:58am

बहुत  अच्छी लघु कथा हुई आ० कांता जी  बहुत मर्म  स्पर्शी  हार्दिक बधाई आपको | 

Comment by Ravi Prabhakar on June 28, 2016 at 10:01am

आदरणीय कांता रॉय जी,

/कौन विमला ? / यहां पर 'कौन' और 'विमला?' के बीच में Pause होना चाहिए था । वैसे तो आपने इस लघुकथा में डॉटस का प्रयोग बहुत खुलदिली से किया है परन्‍तु /कौन.... विमला?/ यहां डॉटस आवश्‍यक थे तो यहां आप चूक गई ।

/.... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "/  घरों में काम करने वाली बाई का यह संवाद गले से नीचे नहीं उतर रहा आदरणीय । बेशर उसका घर-संसार है पर दूसरों के घर काम काज करने से ही उसकी जीविक चलती है।

/" हाँ , यही बोला मै तेरे को "  /  जिस क्षेत्र विशेष की भाषा का उच्‍चारण विमला कर रही है वहां वहां शब्‍द 'को' नहीं 'कू' होना चाहिए। कुछेक और शब्‍द भी हैं जिनका उच्‍चारण विमला से दूसरी तरह करवाना उचित होता।

/" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "/  रूढ़वादी परंपरा पर एक जर्बदस्‍त चोट करती इस कथा हेतु बधाई स्‍वीकार करें । सादर

Comment by Sushil Sarna on June 27, 2016 at 8:37pm

" कहती है , वो अपने घर को छोड़ कर मुझे नहीं देख सकती है । उसकी पहली प्राथमिकता उसका अपना परिवार है "
" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "

बहुत मार्मिक, हृदयस्पर्शी और यथार्थ के धरातल को छूती इस लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया कांता रॉय जी। बेटी का जीवन दो पलड़ों में बटा होता है , अपने परिवार के उत्तरदायित्वों का निर्वाहन भी करना होता है और अपने जन्मदाता के प्रति अपने कर्तव्यों को भी निभाना होता है। बहरहाल इस प्रस्तुति के लिए आपको दिल से बधाई।

Comment by pratibha pande on June 27, 2016 at 2:14pm

  बस हमारे  समाज का ये ही  विरोधाभास सालता है , बेटे बेटी को जहाँ माँ बाप बराबरी से पालते हैं  संपत्ति में बराबरी का हिस्सा है तो माँ बाप के प्रति जिम्मेदारी बराबर क्यों नहीं , क्यों नहीं बेटियाँ ये महसूस करती हैं और इसके लिए खड़ी  होती हैं ,  हमारे समाज में व्याप्त इस विरोधाभास को आपने सशक्त शब्द  दिए हैं    हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको कांता जी 

Comment by Harash Mahajan on June 27, 2016 at 2:13pm

ह्रदय स्पर्शी ..मार्मिक ..मेरी जानिब से बहुत बहुत बधाई !! आ० कांता रॉय जी !!

सादर !!

Comment by Rahila on June 27, 2016 at 1:20pm
सच तो यह हैकि हमारा समाज भी कहीं ना कही इस सोच की पैरवी करता है।फिर बेटियां कितनी ही पढ़ी लिखी अफसर क्यों ना हो,पति और ससुराल वालों की इच्छा का मान रखना पड़ता है।बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है आदरणीय कांता दीदी!खूब बधाई ।सादर
Comment by Mahendra Kumar on June 27, 2016 at 11:08am
बहुत ही अच्छी और सार्थक कहानी.. बहुत-बहुत बधाई.. सादर!
Comment by Shyam Narain Verma on June 27, 2016 at 10:54am

बेटी जब अपने संसार में रम जाती है तो फिर माता पिता से मिलने बहुत कम ही आती है फिर वो अकेली माता या पिता का दर्द कहा देख पाती है | बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती  आदरणीया , हार्दिक बधाई | सादर

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