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Kanta roy's Blog (87)

व्यवस्था/ लघुकथा

"सारी व्यवस्था आपको ही करना है। लोगों को बुलाना और कार्यक्रम का उद्देश्य को सफलता से प्रस्तुत करना है।"

"जी, लेकिन मैं अकेले कैसे कर पाऊँगी?"

" अकेले कहाँ हैं आप! मैं पीछे से समस्त इंतजाम कर दूँगा , पैसों की चिंता बिलकुल मत करना । बैनर आपका पैसा हमारा, अब सिर्फ हमारे लिये काम करेंगी आप ।"

वह चुप हो इत्मीनान से सुनती रही।जिंदगी अपना नया दाँव चल रही थी।

" अरे मैडम , हम आपको भी पेमेंट करेंगे।"

" मुझे " पे " करेंगे यानि मेरी कीमत देंगे ?"

"जी हाँ, आप अपना समय दे रही…

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Added by kanta roy on September 6, 2016 at 2:30pm — 3 Comments

चुप्पी /कान्ता रॉय

एक चुप्पी इधर,एक चुप्पी उधर भी

चुप रहने का यह क्षण,दरअसल शोर था

झंझावात था



आमादा था निगलने पर

रिश्ते को रिश्ते के साथ ,जो आस्तित्वहीन था

उस आस्तित्वहीन की गर्माहट…

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Added by kanta roy on September 3, 2016 at 10:30am — 17 Comments

उलझे हुए लोग/ लघुकथा

आज भी चबूतरे पर बैठने कोई नहीं आया। चबूतरा उदास था। साल में सिर्फ दो बार ही यहाँ सांस्कृतिक आयोजन हुआ करता था बाकि दिनों में सुबह-शाम मोहल्ले के बुजूर्गों का जमावड़ा और उनके ठहाकों का शोर रहता था। हालांकि उनके ठहाकों का मुख्य श्रोत युवाओं के प्रति कटाक्ष ही हुआ करता था।

कौन युवा ? अरे , वही जिन्होंने एकता और सौहार्द्रता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से दूर्गा पूजा समीति बना कर इस चबूतरे का निर्माण करवाया था।

जिनके कारण कॉलोनी को गंगा- जमुनी तहजीब के कारण शहर में सम्मान मिला करता… Continue

Added by kanta roy on August 29, 2016 at 10:48pm — 7 Comments

लालसा की चोरी /लघुकथा

मैदान के किनारे सड़क के पार टपरी के बाहर वह माथे पर शिकन लिये बेचैन -सा बैठा है।अंदर बच्चा पिछले कई घंटों से रोये जा रहा था। पिछले कई दिनों से उसे बुखार है। सरकारी दवाई बेअसर थी। सामने पूरे मैदान में शामियाना लगा हुआ है। बैंड-बाजे की आवाज शोर बनकर कान को फाड़ने पर तुली हुई थी।

उसके घर में आज समस्त फसाद की जड़ ये बैंड-बाजा ही थी। पकवानों की सुगंध अमीर -गरीब का घर कहाँ देखती , बिना पूछे सीधे अंदर घुस आई।

पकवानों की सुगंध से मचलता खाने को तरसता बीमार बच्चा ,अब उसे कैसे…

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Added by kanta roy on August 16, 2016 at 10:57am — 6 Comments

बराबरी का पैमाना /लघुकथा

"स्त्री स्वातंत्र्य दरअसल पितृसत्ता के विरूद्ध संघर्ष और विरोध है। भावनात्मक ,सामाजिक ,शारीरिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न,उनके पाखंडों का उद्घाटन ही हमारा लक्ष्य है" कहते-कहते वह उत्तेजित हो उठी। सहसा उसे भान हुआ, वो अपने ऑफिस केन्टीन में नहीं, रेस्तरां में है।विलास को उसकी ये बातें अच्छी लगती थी लेकिन आजू-बाजू देख वह संकोच से भर उठी। इस विषय पर वह स्वयं को क्यूँ रोक नहीं पाती है?

तभी बेयरा ऑर्डर लेने आ गया।

"तुम बीयर या जिन तो ले सकती हो, मेरा साथ देने के लिये "

"… Continue

Added by kanta roy on August 9, 2016 at 11:36am — 10 Comments

वह प्रीत की फसल उगाती है/ कविता

मेरा निश्छल मन

किसी से बैर

या शत्रुता नहीं

पालता है।



वह पालता है

प्रीत की सघनता को

वो बहता रहता है

भाव की अविचलता में

उसे फुरसत नहीं

प्रेम में बहते रहने से

उसकी दृष्टि हटती नहीं

अपने प्रियतम से।



हृदय की गहन तलहटी में

उनकी गुंजों में डूबी हुई

भोर की दूर्बा-सी

ओस को आँखों में सजाये

गुँथा करती है

प्रतिदिन जयमाल

मन के फूलों से।



कोकिल-सी कूक लिये

अंधकार को बेधा करती… Continue

Added by kanta roy on August 3, 2016 at 2:35pm — 12 Comments

एक तुम्हारे होने से / कविता

साक्षी है सिंधू मन मेरा एक तुम्हारे होने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से



ऊँची काली दीवारें थाह पता कोई ना जाने

जीने -मरने में भेद मिटा संत्रासों के ढोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से .......



उलट-पुलट है यह जग सारा पुरवाई भी व्याकुल है

लहरों की उछ्वासित साँसों को क्या मलाल अब खोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से ........



लय की अनंतता में अंतर्मन का रमकर रमना

नित्य-निरंतर… Continue

Added by kanta roy on August 2, 2016 at 10:26am — 20 Comments

आत्मा में आकर ही बसो (कविता)

मेरी यादों में मृत्यु

अब भी जीवित रहता है

मरने के बाद भी

जीने की पुरजोर कोशिश में

बार -बार मरता रहता है

जाने कैसे मर कर वो ज़िंदा रहता है।

तुम तो गए ,

दूर पहाड़ों के उस पार

आसमान के अनंत विस्तार से कहीं बहुत आगे

मैं रह गयी यहाँ गाँव में अकेली

नदी ,पहाड़ और

आषाढ़ की जलती ,दग्ध करती हुई जलती बूंदों  में घिर कर।

अँधेरे गहरे काले साए

मृत्यु के पश्चात भी

मिलन की आकांक्षा जगा जाते है

आत्मा हो…

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Added by kanta roy on July 2, 2016 at 10:30am — 2 Comments

पीड़ा तू आ (कविता) : कांता रॉय

पीड़ा तू आ

आ तेरा श्रृंगार करूँ

शब्दों के फूलों से

टूटे अंतरंगों को सजा लूँ

पीड़ा तू आ

तुझे हृदय में बसा लूँ



बौने मन की कद- काठी पर

प्रीत की लम्बी बेल चढ़ाई

लतर - चतर कर उलझ गई

ये कैसी मैने खेल रचाई

पीड़ा तू आ

तुझे पलकों पर बिठा लूँ



गर्द -गर्द धूमिल- सी चाँदनी

चाँद का रूप कितना मैला

रौंद कर सपनों को

टिड्डों का देखो दल निकला

पीड़ा तू आ

तुझे अधरों का सुख दूँ



सागर की उन्मुक्त लहरें…

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Added by kanta roy on June 27, 2016 at 3:30pm — 20 Comments

परिवार / लघुकथा

 " अरे साहब , क्या हो गया है तुमको , ऐसे जमीन पर ..... ! "

" कौन विमला ? इतने दिन कैसे छुट्टी कर ली तुमने .....आह ! मुझ बुढ़े का तो ख्याल करती "

" उठो ,चलो बिस्तर पर , ज्यादा बोलने का नही रे ! .... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "

" हाँ ,सही कहा , तुम्हारा अपना घर !"

" साहब ,एक बात कहूँ , अब तुम अकेले नहीं रह सकते हो , तुम्हारी बेटी को बुला लो "

" क्या कहा तुमने…

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Added by kanta roy on June 27, 2016 at 8:07am — 11 Comments

कौन आया ?/ कविता

मध्य निशा में मन अकुलाया

विरहन की पीड़ा विहलाया

छल यातना ओढ़ना बिछौना

अंतर वियोग में कौन आया ?



कच्चे धागे सा सुख सपना

निष्ठुरता से कैसी कामना

मेरा दिल मेरा खिलौना

झरते पत्ते -सा कौन आया ?



मृदु बादल की चाह नहीं

वृक्ष अशोक मेरी छाँह नहीं

तृष्णित सिंचित एकाकीपन

में चिता जलाने कौन आया ?



आज अकेला हर मानव है

जलता एकांत दानव है

नीम की मंजरित डाली में

प्रीत बाँधने कौन आया ?







मौलिक और… Continue

Added by kanta roy on June 24, 2016 at 2:38pm — 4 Comments

विकास-यात्रा /लघुकथा

"ओ रे बुधिया , अब ये फूस हटाना ही पड़ेगा अपनी टपरी से "

" ई का कह रहे हो बुड्ढा , अब हम सब बिना छत के रहें का ? "

" नाहीं रे , कुछ टीन टपरा जोड़  लेंगे  "

"  काहे जोड़ लेंगे  टीन-टप्पर , क्यु कहे तुम  फूस हटाने को ?"

" खेत से आवत रहें तो गाँव के जोरगरहा दुई जन  को कुछ कहते सुनत रहे , ओही से कहे है "

" का सुन लिये रहे हो ?"

" कहत रहे कि फुसहा घर गाँव के विकास में…

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Added by kanta roy on June 15, 2016 at 8:00pm — 5 Comments

गरीब होने का सुख /लघुकथा

 ईंट का आखिरी खेप सिर से उतार कर पास रखे ड्रम से पानी ले हाथ-मुँह धो सीधे उसके पास आकर खड़ा हो गया ।

" सेठ , अब जल्दी से आज का हिसाब कर दो "

" कल ले लेना इकट्ठे दोनों दिन की मजूरी ।"

" नहीं सेठ , आज का हिसाब आज करो , कल को मै काम आता या नहीं , भरोसा नहीं "

" मतलब "

" इस हफ्ते पाँच दिन काम किया ना , बहुत कमा लिया ,इतना ही काफी है । अब अगले हफ्ते ही काम पर आऊँगा ।"

" बहुत कमा लिया , हूँ ह ! इतनी-सी कमाई में क्या - क्या करोगे ?"

" क्या-क्या नहीं…

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Added by kanta roy on June 14, 2016 at 12:30pm — 22 Comments

काँपते पत्ते / लघुकथा

"सुनो , कुछ कहना है " बड़ी हिम्मत करके पति की तरफ देखा उसने ।

" क्या हुआ अब , आज फिर माँ से कहा-सुनी हो गई है क्या ?" उन्होंने पूछा ।

" अरे नहीं , माँ से कुछ नहीं हुआ । बात दीपू की है " उसने तीखे स्वर में कहा ।

" अब उसने क्या कर दिया "

" वो ..."

" वो क्या , अरे बताओ भी , किसी से सिर फुट्व्वल करके तो नहीं आया है " उन्होंने तमतमाये चेहरे से पूछा ।

" कैसी बात करते है आप , अपना दीपू वैसा नहीं है " वह एकदम से कह उठी ।

" तो कैसा है , अब तुम्हीं बता दो ? "

"…

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Added by kanta roy on June 13, 2016 at 10:00am — 14 Comments

विस्मित वो बिंदा थी / कविता

तुफानों से लड़ कर ,चूर - चूर हो जिंदा थी

बेकल ,चंचल, निर्जन ,निष्प्राण वो बिंदा थी

किसके लिये अखिल व्योम से मोती चुराये

आई थी मधु छाया आस मधुमास लिये

लहरों पर चलने वाली अहम से हारी थी

साहिल की निठुरता बेबस से टकराई थी

अंतर्मन में सुलगती , भटकती भ्रान्त- सी

औचित्यहीन कामनायें ज्वलित कान्त - सी

हरियाली छाहों तले स्पंदित वो जिंदा थी

इतराई सागर पर बौराई विस्मित वो बिंदा…

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Added by kanta roy on May 24, 2016 at 11:22am — 6 Comments

धर्म का ग्राफ / कविता

मन्दिर में मूर्ति का
रंग बदल रहा है
धर्मवर्धन के लिए
कर्म का ग्राफ भी बदल रहा है
धर्मानुयायी अपने - अपने चीथड़े उतार
मंदिर के चारों ओर टाँग कर
धर्म -कांड में लीन हो गये है
अब मटमैले मंदिर में 
पाप की मटियाली छायाएँ
चूने के पानी-सी  बुदबुदाती 
मंदिर के चेहरे से  धीमे - धीमे
उतर रही है ,टप ,टप ,टप .....

मौलिक और अप्रकाशित

Added by kanta roy on May 17, 2016 at 4:57pm — 8 Comments

मिलन / गद्यगीत पर एक प्रयास

जैसे ही धरती को छूने आकाश नीचे सरक कर आया कि अपने में सिमटती धरती घुटनों पर झुक गई।

ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों में ,निस्पंद- सा देवदार अपने ही साये में सिमटकर खड़ा रहा। पहाड़ों को भी अब अपनी अलंध्यता गलत साबित हो रही थी । उल्लासमय वातावरण में

मायावी संगीत-सी , अलग - अलग ताल ,अलग - अलग रंगों में सपने ,एक अविस्मृत अद्भुत मायाजाल -सी फैला गई । मोह - पाश का बँधन और मुक्ती की यातनामय चाहना , धूप के संग -संग पल -छिन उजालों के रंगों का भी बदलना , मन की अतल गहराईयों से निकलकर उगते चाँद पर सिन्दूरी रंग… Continue

Added by kanta roy on May 15, 2016 at 11:39am — 9 Comments

तलब / लघुकथा

" पापा मुझे कुछ रूपये चाहिए " ड्यूटी पर निकलने को तैयार भँवरलाल , बेटे की आवाज पर चौंक उठे ।

" कितने बार कहा , ड्यूटी पर जाते वक्त मत टोका करो , अभी तो दिये थे पिछले हफ्ते दस हजार ,उसका क्या हुआ ? "

" दस हजार से होता क्या है पापा ! सारे खर्च हो गये " नजरें चुराते हुए उसने कहा ,तो भँवरलाल ठठा कर हँस पड़े ।

" बता कितना चाहिए ? " जेब में पर्स टटोलते हुए पूछा ।

" सिर्फ चालिस हजार "

" क्या ,इतने सारे रूपये ! कौन सा ऐसा काम आन पड़ा ? "

" उससे आपको मतलब नहीं , बस आपको देना ही…

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Added by kanta roy on March 15, 2016 at 4:00pm — 13 Comments

लिटिल चैम्पियन ( लघुकथा )

"महज़ सात वर्ष की उम्र में "सिल्वर स्क्रीन लिटिल चैम्पियन" जीतने वाला तुम्हारे डांसर बेटे का ,ये क्या हाल हो गया रेखा ?"

 " उस लिटिल चैम्पियनशिप ने ही तो उसको बरबाद किया है " उसने अपने आँखों में उतरे समंदर को संभालते हुए कहा ।

 " ये क्या कह रही हो तुम ! "

 "हाँ ,सच कह रही हूँ , उस चैम्पियनशिप जीतने के बाद नाचने में ही वह लगा रहा , पढ़ाई छूट गयी उसकी , और तुम तो जानती हो कि फिल्मी दुनिया के भाई -भतीजेवाद में कहाँ मिलता है बाहर वालों को स्थान ? "

 " वह स्टेज परफॉर्मर तो बन…

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Added by kanta roy on February 28, 2016 at 11:00am — 6 Comments

रिश्तों की धुलाई / लघुकथा

उसने आज अपने सभी नये पुराने रिश्तों को धोकर साफ़ करने के विचार से , काली संदूक से उन्हें बाहर निकाला ।

पानी में गलाकर ,साबुन से घिसकर , खूब धोया । कितने मैल, कितनी काई , छूटकर नाली में बही , लेकिन उनमें से मैल निकलना अभी तक जारी था ।

रिश्तों की काई धोते - धोते हठात् पानी खत्म होने का एहसास हुआ । जरा सा पानीे बचा था ।

लगे हाथ उसने दोस्ती को बिना साबुन ही खंगाल लिया ।

उसे यकीन था , रगड़ कर धोये हुए समस्त रिश्ते चमक गये होंगे ।

सुखाने के लिये तार पर फैलाते वक्त वह चकित हुआ… Continue

Added by kanta roy on February 24, 2016 at 11:03am — 9 Comments

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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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