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कुण्डलियाँ छंद

रूखासूखा खाय के, मन प्रसन्न हो  जाय,
छाव तले  सुस्ताय ले, ठंडा जल मिल जाय।
ठंडा जल मिल जाय,ध्यान रखे परिजनों का,
अपनेपन का भाव रख, भरता उदर औरो का…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 11, 2013 at 12:30pm — 3 Comments

सरस्वती-वंदना (चौपइया छंद पर एक प्रयास))

 आगामी बसंत पंचमी पर 'सरस्वती पूजन' के आयोजन  का कार्यक्रम है, उसीके उपलक्ष्य में इस वंदना की रचना किया हूँ ! सभी आदरणीयों से सादर निवेदन है कि कृपया इसके गुणों, दोषों से अवगत कराएं तथा आवश्यक प्रतीत होने पर उपयुक्त परिवर्तन भी सुझाएँ ! धन्यवाद !                                      

  

(मौलिक व अप्रकाशित)…

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Added by पीयूष द्विवेदी भारत on February 10, 2013 at 2:05pm — 10 Comments

वैलेंटाइन फ्लू (व्यंग)

 वैलेंटाइन  फ्लू (व्यंग)



त्राहिमाम  कर  रही  दिल्ली, फ़ैल  रहा  स्वाईंन फ्लू,

दूजे  सर  चढ़  के  बोल  रहा  सबके  वैलेंटाइन  फ्लू.

कही  मरीजों  की  है, कतारें  लम्बी  अस्पतालों  में,

और  हम  हैं  की  खोये  हैं  प्रेमिका  के  ख्यालों  में.

कही  परिजन  चीत्कार  कर  रहे  छाती पीटकर,

प्रेम  पत्र  लिख  रहे  हम  उसपर  इतर छिटकर.  

पड़ोस  में  एक  बीमार  पड़े  ,मदद  को हैं बुलाते,

पर  गुलाब  लिए  हाथ  में  हम  गीत हैं गुनगुनाते.

क्यों  औरों  का  दुःख  अपनाऊँ…

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Added by praveen singh "sagar" on February 10, 2013 at 12:42pm — 6 Comments

यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेंगे

ज़हर भर चुका है दिलों में हमारे
सभी सो रहे है खुदा के भरोसे

जुबां बंद फिर भी अजब शोर-गुल है
हैं जाने कहाँ गुम अमन के नज़ारे

धरम बेचते हैं धरम के पुजारी
हमें लूटते हैं ये रक्षक हमारे

भला कब हुआ है कभी दुश्मनी से
बचा ही नहीं कुछ लुटाते-लुटाते

बटा घर है बारी तो शमशान की अब
यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेंगे

धरम का था मतलब खुदा से मिलाना
खुदा को ही बांटा धरम क्या निभाते

Added by नादिर ख़ान on February 10, 2013 at 12:30am — 7 Comments

इश्क कि दास्तान है प्यारे

इन दिनों वो अपने आस पास रेशम बुनने लगी थी | बहुत ही महीन मगर चमकीली, हर समय बस एक ही धुन सवार हो गयी थी उस को  रेशम बुनने कि | जहाँ भी वो रहती  बस रेशम के धागों में उलझी हुई रहती |

कई कई बार वो घायल हो जाती, मगर वो रेशम बुनने में ही तल्लीन रहती उसके घायल मन से बना रेशम बहुत ही खूबसूरत होता |

 

वो पहले ऐसी नहीं थी | कितना तो काम होता था उसके पास, उसकी होड…

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Added by दिव्या on February 9, 2013 at 7:30pm — 16 Comments

लेख - अंतर्राष्ट्रीय फलक पर काशी के कवि

भारतेंदु , प्रेमचंद और प्रसाद की धरा वाराणसी साहित्य कला की दृष्टि से आज भी उर्वर है । बात लेखन की हो , चर्चा - विमर्श की या नयी ज़मीन -नयी धरा के तलाश की । कसक है तो इस बात की कि हम अपने साहित्यिक धरोहरों और समकालीन लेखन पर शोधपरक और समीक्षात्मक सिंहावलोकन नहीं कर पा रहे हैं । ऐसे में हाल में शहर वाराणसी के मध्य स्थित ऐतिहासिक "अभिमन्यू…
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Added by Abhinav Arun on February 9, 2013 at 3:35pm — 6 Comments

धीरे धीरे पढ़ें -कोई सुन ना ले

मौलिक -अप्रकाशित

सत्तावन "जो-कर" रहे, जोड़ा बावन ताश ।

महल बनाया दनादन, "सदन" दहलता ख़ास ।

सदन दहलता ख़ास, किंग को नहला पंजा।

रानी दहला जैक, कसे हर रोज शिकंजा ।

धक्का इक्का खाय, हिले नहिं पाया-पत्ता ।

खड़ा ताश का महल, शक्तिशाली कुल सत्ता ।।

Added by रविकर on February 9, 2013 at 10:40am — 11 Comments

"मेरी याद आयेगी "

जब कभी ख़ुद रोना होगा ,
मेरी याद आयेगी तब तुझको !

बेइज्ज़त करेंगे अपने बेईमान कहकर ,
बेवफ़ा वो ख़ुद बेवफ़ा कहेंगे जब तुझको!

अँधेरे में पड़े रहोगे हमेशा,
लोग उजाला कहेंगे जब तुझको!

टूटी हुई कश्ती भी धोखा देगी ,
निगल जायेगा दर्द का समंदर जब तुझको!

दर्द आँखों में सीने में घाव होगा,
ज़िन्दगी ओढ़ा देगी जब कफ़न तुझको!

राम शिरोमंनी पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on February 8, 2013 at 7:19pm — 2 Comments

लोकायुक्त का छापा

लोकायुक्त का छापा

नाम से ज़्यादा अहम, होता कवियों का उपनाम

उपनाम कवियों को देते,एक नई पहचान

सलिल, सरल, प्यासा, घायल, आहत, अटल, अचल

एक कवि ने नाम में जोड़ा, कवि करोड़ीमल

कवि करोड़ीमल थे फक्कड़ और बिंदास

पैसा रुपया धन दौलत न…

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Added by Dr.Ajay Khare on February 8, 2013 at 12:30pm — 7 Comments

जब कामदेव संतप्‍त हुए (चौपाई)

जब शिवजी का ध्‍यान भंग करने के लिए मदनदेव को कहा गया तो वे राजी तो हो गए किंतु उनका मन गहरी सोच में पड़ गया उनकी कशमकश को दर्शाने के लिए चौपाईयां लिखी जिसमें आवश्‍यक सुधार आदरणीय अम्‍बरीष जी ने सुझाया जिसके बाद इसे ओबीओ के पटल पर रखने का साहस कर पा रहा हूं ।…

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Added by राजेश 'मृदु' on February 8, 2013 at 12:07pm — 5 Comments

मौसम का मिजाज बिगड़ गया है ।।

वसंत जाने कहाँ उड़ गया है ...।
मौसम का मिजाज बिगड़ गया है ।।
बारिस ने ऐसा कहर ढा दिया है ;
कोयल से सुर ही बिछड़ गया है ...।।
बर्फ इतने गिरे, मेघ रुकते नही ;
जैसे धरा से गगन झगड़ गया है ।।
जितना दूषित जल, उतना ही पवन ;
बनकर दानव प्रदूषण अकड़ गया है ...।।
छोड़ विज्ञान की, बातें भगवान् की
अपना ही मंदिर उजड़ गया है ......।।

Added by श्रीराम on February 7, 2013 at 11:00pm — 3 Comments

इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"

इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"



बुरा न बोलिए उसे अगर कठिन गुजर हुआ

सिवाय वक़्त के बता न कौन हमसफ़र हुआ



तलाशते रहा जिसे रखे मिलन कि तिश्नगी

सुनी नहीं सदा अजीज यार बे-खबर हुआ



बदल नहीं सके उसे कहा सनम जिसे कभी

सनम रहा सनम बने न प्यार का असर हुआ



बढीं तमाम गर्दिशें चली हवा गुमान की

बुझा चिराग प्यार का निजाम बेअसर हुआ



गुरूर जिस्म पे कभी न कीजिये हुजूर यूँ

उसूल सुन हयात का मनुज नहीं अमर हुआ



न राह दिख रही मुझे न "दीप" मंजिलें…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 7, 2013 at 8:17pm — 13 Comments

इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"



इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"



झुके कभी कभी उठे नज़र बड़ी कमाल है

अदायगी ग़ज़ब कि बेनजीर बेमिसाल है



इधर उधर घुमा घुमा अजीब घूर घूर के

जबाब मांगती नज़र बड़ा गहन सवाल है



तराश नाजुकी भरी कि लब लगें गुलाब से

महक रही नफस नफस हसीं शबे विसाल है



नदी नहीं दिखे यहाँ समा रहा जिगर जहाँ

सियाह चश्म झील से गुमा हुआ गजाल है



सदैव सत्य बोलना बुरा भले रहे मगर  

जरूर आजमाइए असर भरा ख़याल है



जहर भरा हरेक हर्फ़ चख सकीं न दीमकें  

इसी…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 7, 2013 at 7:51pm — 10 Comments

जागे आर्यावर्त, गर्त में जाय दुश्मनी -

मौलिक-अप्रकाशित 

एकनिष्ठ हों कोशिशें, भाई-चारा शर्त |

भाग्योदय हो देश का, जागे आर्यावर्त |

जागे आर्यावर्त, गर्त में जाय दुश्मनी |

वह हिंसा-आमर्ष, ख़तम हों दुष्ट-अवगुनी |

संविधान ही धर्म, मर्ममय स्वर्ण-पृष्ठ हो |

हो चिंतन एकात्म, कोशिशें एकनिष्ठ हों ||

Added by रविकर on February 7, 2013 at 2:34pm — 5 Comments

तुम बिन जिया जाये कैसे ………

तुम पास नहीं हो तो दिल मेरा बहुत उदास है !

हर पल दिल में तेरा ही अहसास है !

जिधर देखूं बस तुम ही तुम नज़र आते हो !

और पलक झपकते ही ओझल हो जाते हो !

दिल की धड़कन से तेरी आवाज़ आती है !

मेरी हर सांस से तेरी आवाज़ आती है !

न जाने क्या हो गया है मुझे !

मैं बात करती हूँ , आवाज़ तेरी आती है !

जबसे तुमसे मिले हैं हम खुद से पराये हो गए हैं !

तेरी ही यादों में कुछ ऐसे दीवाने हो गए हैं !

सबके बीच रहते हुए भी तनहा हो गए हैं…

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Added by Parveen Malik on February 7, 2013 at 1:00pm — 7 Comments

तू तू मैं मैं

             तू तू मैं मैं 

पति पत्नीं में होता प्यार वेसुमार 

प्यार ही प्यार में होती तकरार

तकरार से संबंधों में आता निखार

तकरार से धुल जाता दिल का गुबार

प्राय: पति सदैव रहता खामोश

बस यदा कदा ही जताता आक्रोश

आपके कारण जिन्दगी मेरी नाश हो गई

हर बक्त तुम चुभने वाली फाँस हो गई

पल पल जलाती हो तुम मेरा खून

नहीं रहा जीवन में चैनोंसुकून

 खुशहाल जिन्दगी उदास…

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Added by Dr.Ajay Khare on February 7, 2013 at 1:00pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मुकद्दर का घोड़ा 122, 122 22 रदीफ के साथ (ग़ज़ल,छोटी बहर पर एक प्रयास )

122, 122 22 (ग़ज़ल)

जमाया हथौड़ा रब्बा 

कहीं का न छोड़ा रब्बा 

बना काँच का था नाज़ुक 

मुकद्दर का घोड़ा रब्बा 

हवा में उड़ाया उसने 

जतन से था जोड़ा रब्बा

तबाही का आलम उसने 

मेरी और मोड़ा रब्बा  

बेरह्मी से दिल को यूँ 

कई बार तोड़ा रब्बा  

रगों से लहू को मेरे

बराबर निचोड़ा रब्बा

चली थी  कहाँ मैं देखो   

कहाँ ला के छोड़ा रब्बा

मुकद्दर पे ताना कैसे

कसे मन निगोड़ा रब्बा 

लगे ए …

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Added by rajesh kumari on February 7, 2013 at 10:00am — 27 Comments

" कलयुग"

आलीशान वाहन में देखा ,
बैठा था एक सुन्दर पिल्ला !
खाने को इधर रोटी नहीं ,
गटक रहा था वह रसगुल्ला !

इर्ष्या हुयी पिल्ले से ,
क्रोध आ रहा रह-रह कर !
मै भूख से मर रहा ,
यह खा रहा पेट भरकर !

देख रहा ऐसी नज़रों से,
मानों समझ रहा भिखारी
सोचने पर मजबूर था ,
इतनी दयनीय दशा हमारी!

आदमी मरेगा भूख से ,
पिल्ला रसगुल्ला खायेगा !
किसी ने सच ही कहा है ,
ऐसा कलयुग आयेगा!

राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on February 6, 2013 at 8:30pm — 1 Comment


मुख्य प्रबंधक
हास्य घनाक्षरी - 2 / गणेश जी बागी

घनाक्षरी

आया मैं तो कुम्भ में कि, पाप कुछ…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 6, 2013 at 5:30pm — 20 Comments

गीत : आशियाना ... संजीव 'सलिल'

गीत :

आशियाना ...

संजीव 'सलिल'

*

धरा की शैया सुखद है, 

नील नभ का आशियाना ...

संग लेकिन मनुज तेरे 

कभी भी कुछ भी न जाना ...

*

जोड़ता तू फिर रहा है,

मोह-मद में घिर रहा है।

पुत्र है परब्रम्ह का पर 

वासना में तिर रहा है।

पंक में पंकज सदृश रह-

सीख पगले मुस्कुराना ...

*

उग रहा है सूर्य नित प्रति,

चाँद संध्या खिल रहा है। 

पालता है जो किसी को, 

वह किसी से पल रहा…

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Added by sanjiv verma 'salil' on February 6, 2013 at 5:00pm — 8 Comments

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