बदलना
अच्छा है ....पर एक हद तक
और वो हद
खुद तय करनी होती है
ऐसी हद जिसके भीतर
किसी का दिल न टूटे
कोई रोये न....बीते लम्हें याद कर
वादे याद कर मलाल न करे
वो हद जो
दूर करे पर नफरत न पलने दे
याद रहे पर इंतज़ार न रहने दे
रिश्तों में बदलना
कभी भी सुख नहीं देता
चुभन...दर्द...अफ़सोस और
बेचैनी लिए
पल-पल ज़िन्दगी गिनता है
इन सब से परे
कितना आसान…
ContinueAdded by Priyanka singh on September 7, 2014 at 3:07pm — 5 Comments
आसमानी फ़ासले
बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद
हमारी बातों में मिठास की आभाएँ
ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती
सुखद अनुभवों की छवियाँ ...
हो चुकीं इतिहास
समय-असमय अब अप्रभाषित
शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती
अस्तित्व को अनस्तित्व करती
निज अहं को आदतन संवारती
आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी
अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय…
ContinueAdded by vijay nikore on September 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments
Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 2:00pm — 12 Comments
Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 1:30pm — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
******************************
रहे अरमाँ अधूरे जो, लगे मन को सताने फिर
चला है चाँद दरिया में हटा घूँघट नहाने फिर /1/
***
नसीहत सब को दें चाहे बताकर दिन पुराने फिर
नजारा छुप के पर्दे में मगर लेंगे सयाने फिर /2/
***
उन्हें मौका मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी
सितारे नीर भरने के गढे़ंगे कुछ बहाने फिर /3/
***
छुपा सकता नहीं कुछ भी खुदा से जब करम अपने
रखूँ मैं किस से पर्दा तब बता तू ही…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 7, 2014 at 10:30am — 8 Comments
न होना दूर नज़रों से कसम हमको खिलाती थी
न दे जब साथ लब उसके इशारो से बुलाती थी
किताबों में छुपाती थी दिया हमने जो दिल उसको
बचा नज़रे सभी की वो उसे दिल से लगाती थी
चुरा नज़रे सभी की हम मिले जब बाग में इक दिन
लगा कर वो गले हमको बढ़ी धड़कन सुनाती थी
कभी आँखों मे डाले अाँख कर देता शरारत तो
चुरा कर वो नज़र हमसे जरा सा मुस्कुराती थी
न भूलेगे कभी हम तो बिताये साथ पल उसके
छुपा कर चाँद सा मुखड़ा हमें हरदम सताती…
Added by Akhand Gahmari on September 6, 2014 at 8:30pm — 20 Comments
बरामदे की सीढ़ियाँ देख , कजरी नीचे खड़ी हो गई , संकोच वश उसके कदम ऊपर बढ़ ही नहीं रहे थे ॥ लाली ने उसको पुकारा -'आओ ना , वहाँ क्यों खड़ी हो ? कजरी सकुचाते हुये बोली -' का है कि हम छोट जात है न , और हंम लोगन का बड़े लोगन के घर की चौखट के भीतर नहीं जाना होत है अइसा हमारी माई कहे रही !!' लाली ने उसका हाथ पकड़ा और ऊपर खींच लिया , ' चलो भी !! ' अंदर पहुँच कर बड़ी सी हवेली देख कजरी की अंखे चौंधिया गई । ' लागे है बहुत बड़े लोग हैं ' मन मे सोचा उसने । धीरे धीरे अंदर बढ़ती गई एक कमरे का किवाड़ थोड़ा खुला…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 6, 2014 at 6:30pm — 11 Comments
२१२२/ २१२२/२१२२/२१२
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जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,
ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.
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ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.
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अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.
.
शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:25pm — 27 Comments
पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चैखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।
लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।
पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा…
Added by Sulabh Agnihotri on September 6, 2014 at 5:11pm — 8 Comments
1222 1222
बुजुर्गों की कमाई में
थी बरकत पाई पाई में
न दुख है ना परेशानी
ख़ुदा से आशनाई में
दिवारों को बना दे घर
हुनर है वो लुगाई में
जहां में पाठ निकले झूठ
थे शामिल जो पढ़ाई में
हम आके शहर पछताए
लुटे हम तो दवाई में
रहे ना जिस्मो जां साबुत
उसूलों की लड़ाई में
ज़मी ज़र जोरू की खातिर
दिवारें भाई भाई में
तू भी गुमनाम दूरी रख
मिले ना कुछ भलाई में
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on September 6, 2014 at 4:27pm — 7 Comments
भाईचारा बढ़े संग हम सब त्योहार मनायें।
इक ही घर परिवार शहर के हैं सबको अपनायें।
क्यूँ आतंक घृणा बर्बरता गली गली फैली है।
क्यों बरपाती कहर फज़ा यह तो यहाँ बढ़ी पली है।
पैठी हुईं जड़ें गहरी संस्कृति की युगों युगों से,
आयें कभी भी जलजले यह कभी नहीं बदली है।
भूले भटके मिलें राह में, उनको राह बतायें।
भाईचारा बढ़े---------------
दामन ना छूटे सच का ना लालच लूटे घर को।
हिंसा मज़हब के दम जेहादी बन शहर शहर…
ContinueAdded by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 6, 2014 at 12:23pm — 2 Comments
पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?
हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?
चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,
सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?
हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,
आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?
गर करोगे प्यार , बदले वही पाओगे,
वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?
भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,
चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?
दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को
रोच परचम झूठ का…
Added by Neeraj Neer on September 6, 2014 at 11:48am — 16 Comments
छै दोहे – गिरिराज भंडारी
********************
भाव शिल्प में आ सके , बस उतना ही बोल
मन का दरवाज़ा अभी , मत पूरा तू खोल
यदि कोशिश निर्बाध हो, सध जाता है छंद
घबरा मत , शर्मा नहीं, गलती से मति मंद
गेय बनाना है अगर , छंद , कलों को जान
और रचेगा छंद जब , कल का रखना मान
शिल्प ज्ञान को पूर्ण कर , याद रहे गुरु पाठ
इंसा होके काम तू , मत करना ज्यों काठ
चाहे बातें हों कठिन , रखना भाषा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 6, 2014 at 8:30am — 10 Comments
चार पांच किक के बाद किसी तरह स्कूटर स्टार्ट हुई मास्साहब की | पसीना पोंछते हुए जैसे ही बैठने को हुए कि एक गाड़ी आकर रुकी | गाड़ी से उतरकर उस नौजवान ने मास्साहब के पैर छुए और एक पैकेट उन्हें देने लगा |
वो अभी सोच ही रहे थे कि नौजवान बोला " सर , आपकी शिक्षा का ही सुपरिणाम है कि आज मैं कुछ बन पाया हूँ , आज के दिन इंकार मत करिये " | मास्साहब ने पलट कर एक नज़र दरवाजे पर खड़ी अपनी पत्नी की तरफ देखा और विनम्रता से पैकेट लौटाते हुए बोले " तुम्हारे आदर से बड़ी भेंट कुछ और नहीं हो सकती , जीवन में और…
Added by विनय कुमार on September 6, 2014 at 12:27am — 6 Comments
चाँद बढ़ता रहा...... चाँद घटता रहा.
यूँ कलेजा हमारा ........धड़कता रहा.
--
उलझने रात सी ....क्यों पसरती रहीं.
वो दरम्याँ बदलियों .... भटकता रहा.
--
टिमटिमाता सितारा रहा... भोर तक.
शब सरे आसमा को.... खटकता रहा.
--
उस हवेली पे जलता था... कोई दिया
बन पतंगा सा उस पे.... फटकता रहा.…
Added by harivallabh sharma on September 5, 2014 at 8:30pm — 21 Comments
विधान : 7 सगण + 1 एक रगण (कुल 24 वर्ण )
घन राति अमावस पावस की तम तोम म बैठि गुजारा करूँ I
गुनिकै मन मे रतनाकर के जल नील क नक्श उतारा करूँ I
सुषमा नभ की अवलोकि सदा मन में यहु भाव विचारा करूँ I
जग माहि रचा व बसा प्रभु का वह रूप अनूप निहारा करूँ I
* * *
करि सम्पुट नैन भली विधि सों, प्रभु को धरि ध्यान निहारा करूँ I
कछु भक्ति करूँ, कछु ध्यान धरूँ,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 5, 2014 at 8:00pm — 19 Comments
देवों से हमको मिला, संस्कृत का उपहार।
देवनागरी तब बनी, संस्कृति का आधार।
युग पुरुषों ने तो रचे, हिन्दी में बहु छंद।
पर नवयुग की पौध ने, किए कोश सब बंद।
वेद ऋचाओं का नहीं, हुआ उचित सम्मान।
हिन्द पुत्र भूले सभी, हिन्दी का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 5, 2014 at 6:30pm — 8 Comments
“हेप्पी टीचर्स डे”(संस्मरण)
सन १९८६ में विशाखापत्तनम नेवल पब्लिक स्कूल में शिक्षण काल के दौरान का ये वाकया.... छठी कक्षा का सबसे शरारती छात्र आये दिन कोई न कोई शरारत करना और ढेर सारी डांट खाना|होम वर्क कभी पूरा करके ना लाना क्लास में दूसरे पढ़ते हुए छात्रों को भी डिस्टर्ब करना मानो उसकी आदत ही बन गई थी|बहुत बार दंड देकर दुःख भी होता था,किन्तु वो था कि सुधरने का नाम ही नहीं लेता था|माँ बाप भी आकर मुझे बोलते थे की मैडम आप ही इसे सुधार सकती हो|उस दिन तो हद ही हो गई जब वो मेरी हिदायतों…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 5, 2014 at 11:52am — 14 Comments
शिक्षक यदि तुम गुरु बन जाते
कोटि-कोटि छात्रो के मस्तक चरणों में झुक जाते I
तुम ही अपना गौरव भूले
लोभ -मोह झूले पर झूले
व्यर्थ दंभ पर फिरते फूले
थोडा सा पछताते I
धर्म तूम्ही ने अपना छोड़ा
अध्यापन से मुखड़ा मोड़ा
राजनीति से नाता जोड़ा
तब भी न शरमाते I
कितनी धवल तुम्हारी काया
तुमने उस पर मैल चढ़ाया
शिक्षा को व्यवसाय बनाया
फिरते हो इतराते I
पद्धति की भी बलिहारी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 5, 2014 at 10:29am — 12 Comments
सबकुछ जाने सबकुछ समझे
पागल ये फिर भी धुन है
औचक टूट गए सपनों की
उचटी आँखों की धुन है |
इस धुन की ना जीभ सलामत
ना इस धुन के होठ सलामत
लँगड़े, बहरे, अंधे मन की
व्याकुल ये कैसी धुन है |
खेल-खिलौने टूटे-फूटे
भरे पोटली चिथड़े-पुथड़े
अत्तल-पत्तल बाँह दबाए
खोले-बाँधे की धुन है |
क्या खोया-पाना, ना पाना
अता-पता न कोई ठिकाना
भरे शहर की अटरी-पटरी
पर…
ContinueAdded by Santlal Karun on September 4, 2014 at 8:12pm — 27 Comments
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