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शहरों की भीड़ भाड़ में

शहरों की भीड़ भाड़ में

बस आदमी ही आदमी।

चलता ही जा रहा है

थकता नहीं है आदमी।

वाहनों की दौड़ भाग से

नहीं इसे परहेज

न है इसे प्रतिद्वंद्विता

न द्वेष रखता है सहेज

इसका तो अपना ध्‍येय है

पीढ़ियों से अपराजेय है

फि‍र भी देवताओं सा

लगता नहीं है आदमी।

इसकी अभिलाषाओं का

अभी न अंत होना है

अभी न तृप्‍त होगा यह

अभी न संत होना है

अभी इसे विकास के

सोपानों पर चढ़ना है शेष

गगन गिरा गननकुसुम

बागानों पे चढ़ना है शेष

दौड़ मैराथन की है

रुकता नहीं है आदमी।

 

खाली हाथ आया है

खाली ही हाथ जाएगा।

प्रकृति के दस्‍तूर को

कभी न तोड़ पाएगा।

कैसा आकर्षण इसे

बाँधे हुए है आज तक

धरा की है महानता

साधे हुए है आज तक

उसकी दुर्दशा को बस

तकता नहीं है आदमी।

*मौलिक एवं अप्रकाशित*

 

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Comment by Dr. Vijai Shanker on September 10, 2014 at 12:05pm
बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय डॉo गोपाल कृष्णा भट्ट ' अकुल ' जी , इन शब्दों के साथ बहुत बहुत बधाई .
इस विशाल जन सैलाब में ,
खुद को ढूंढ रहा है आदमी ,
जाने कब से खोया भटका ,
पहचान बना रहा है आदमी ,
देवता तो उसने इतने बना दिए
इंसान नहीं बन पा रहा है आदमी ॥

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