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एक तरही ग़ज़ल - “ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “ ( गिरिराज भंडारी )

“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “

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लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?

 

आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की

बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए

 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए

 

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार  नए

 

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  

 

ता कि नई सुबह में पायें सजी हुई हम किरणों को

‘’ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए ’’

**************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित  (  संशोधित  )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:12am

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपकी गरिमामयी उपस्थिति से , सहारना से ग़ज़ल कहना सार्थक हुआ | आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:10am

आ. जवाहर लाल भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:09am

आदरणीय राम भाई , आपका बहुत आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:08am

आदरणीय गोपाल भाई , आपकी प्रतिक्रया से बहुत खुशी हुई , इस बहार में मात्राओं का ताल मेल ही बहुत ज़रूरी होताहै , साधा पाया है जान कर खुशी हुई | आपका हार्दिक आभार |

पच्‍छीम, दच्छिन  स्वीकार्य होना तो चाहिए , मैं  दावा नहीं करता , लें अस्वीकार्य भी हो असली शब्द की मात्राएँ भी वही हैं , इसीलिये मैं प्रयोग के तौर में उपयोग कर लिया हूँ  | आपका पुन: आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:01am

आदरणीय विजय शंकर भाई गज़ल की सराहना और अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 6:00am

आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफजाई का तहे दिल से शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 5:59am

आदरणीया राजेश जी , आपकी उपस्थिति और सराहना के गज़ल कहना सार्थक कर दिया | आपका दिली शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2014 at 5:58am

आदरणीय हरि वल्लभ भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका बहुत आभार

Comment by vijay nikore on September 10, 2014 at 11:33pm

बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है। बधाई, आदरणीय गिरिराज जी।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 10, 2014 at 10:30pm

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  

सार्थक सन्देश के साथ सम्पूर्ण गजल! आदरणीय गिरिराज जी!

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