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भूख और पेट / लघुकथा / कान्ता राॅय

आज फिर सुबह - सुबह वह सलाम बजाने पहुँच गया उनके घर । साथ में ब्रेड - अंडे का पैकेट भी ले आया था । खाली हाथ कैसे आता भला ! वे अफसर जो ठहरे ! सुना था कि उनको भूख बहुत लगती है ।

लेकिन भूखा तो वह भी था । उसके पेट में भी दिनों दिन भूख की आग बढ़ रही थी ।

लेकिन क्या करें ! नित नये पैंतरे बदलता ,जाने कब किस बात पर वे खुश हो जाये और उसका काम बन जायें !

सरकारी अफसरों का मिजाज़ और उनकी भूख , तो वह जानता था , पर मिटाने का तरीका अभी सीख रहा था ।



शुरू - शुरू में तो काजू की बरफी भी… Continue

Added by kanta roy on February 23, 2016 at 7:00am — 8 Comments

गजल(मनन)

2212 2212 2

मेरी गजल कहती बहुत है

यह घाव भी करती बहुत है।1



मन का कहा करती अकड़कर

चुप भी कभी रहती बहुत है।2



घिरकर रदीफों से भले ही

यह काफिये रचती बहुत है।3



चलती पगों को यह सहेजे

बेजा भले बचती बहुत है।4



गम को बसा अपनी लहर में

बनकर नदी बहती बहुत है।5



कितने चलाते तीर शाइर

बिंधती मगर सजती बहुत है।6



आँसू छिपाकर के बहाती

हर रूक्न में रहती बहुत है।7



कितने उड़ा लेती सपन यह

अशआर भी कहती… Continue

Added by Manan Kumar singh on February 23, 2016 at 6:55am — 4 Comments

मत्तगयन्द सवैया...

[१]

प्यार मुहब्बत संग दया समता,करुणाकर ही रखते हैं.

क्रूर कठोर अघोर सभी जन मे, सदबुद्धि वही फलते हैं.

रावण कौरव कंस बली हिरणाक्ष,सभी पल मे क्षरते हैं.

धर्म सधे जनमानस के हित, सत्यम नित्य कहा करते हैं.

[२]

वक्त बली अति सौम्य तुला रख, नीति सुनीति सदा पगता है.

काल अकाल विधी विधना, सबके सब मूक बयां करता है.

मीन - नदी अति व्यग्र रहें, बगुला - तट शांत मजा चखता है.

वक्त समग्र विकास करे, पर मानव सत्य नहीं गहता…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 23, 2016 at 12:00am — 2 Comments

बस दृष्टा बने रहो

तोड़ कर आरोपित बन्धन 
जब जब
बंधना चाहा जी चाहे बंधन में
पूरी तरह असफलता केवल मिली
न कल न आज
सम्भव ही नहीं स्वंय का स्वंय से मुक्त होना
कभी दलील ने
कभी दहलीज़ ने
कभी सीखी सिखाई
नसों में दौड़ती तहज़ीब ने
रोक लिए कदम
बस केवल हो पाया  इंतज़ार
तारों के जागने का
धूप के भागने का
कि  एक मैं  रहूँ एक मेरा संसार
मेरा आकाश…
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Added by amita tiwari on February 22, 2016 at 10:30pm — 4 Comments

चुप हो जाते हैं ...

चुप हो जाते हैं.....

मन ही मन

हम कितना बतियाते हैं

जब अक्सर

हम चुप हो जाते हैं//

कभी आँखें बोलती हैं

कभी लब थरथराते हैं

रुके हुए पाँव

मील का पत्थर हो जाते है

जब अचानक

हम चुप हो जाते हैं//

तारीकियों के कैनवास पे

रिश्तों की सिसकती रेखाओं से

अपनी तूलिका में

दर्द का रंग भरकर

उसमें सिमट जाते हैं

अक्सर जब

हम चुप हो जाते हैं//

तपती राहों पर

सूखे होते शज़र से लिपट…

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Added by Sushil Sarna on February 22, 2016 at 9:37pm — 2 Comments

पी.एच.डी. (एक कथा)

आज मेरी "दुष्कर्म" पर हो रही शोध को पुरे तीन साल हो गएI बस अब तो पर्यवेक्षक का फाइनल वेरिफिकेशन बाकि हैI उसी काम के लिए आज उन्होंने मुझे अपने घर पर बुलाया हैI

"गुड मॉर्निंग सर" - में घर में घुसते ही बोलीI

"आओ दामिनी किसी हो"

"ठीक हुँ सर"

घर में सन्नाटा था, में सोफे पर बैठ गईI "मेडम नहीं दिख रहे" कहाँ है?

वो मायके गई हैI, तपाक से जवाब मिलाI ये सुन में थोड़ी डर गई, वो मेरे पास आकर बैठ गए, मुझे अजीब सी घुटन होने लगीI मेरी धड़कने तेज हो गई, न जाने क्यों मुझे कुछ अनहोनी का…

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Added by harikishan ojha on February 22, 2016 at 8:46pm — No Comments

ग़ज़ल

हर कोई लालायित कितना, कैसे भी हों कालजयी

इस चक्कर में ठेला-ठाली, धक्का-मुक्की मची रही

नदी वही है, लहर वही है, और खिवईया रहे वही

लेकिन अपनी नाव अकेली बीच भंवर में फंसी रही

बार-बार समझाते उनको हम भी हैं तुम जैसे ही

बार-बार उनके भेजे में बात हमारी नहीं घुसी

छोडो तंज़-मिजाज़ी बातें, आओ बैठो गीत बुनें

खींचा-तानी करते-करते बात वहीं पे रुकी रही

(अप्रकाशित मौलिक) 

Added by anwar suhail on February 22, 2016 at 8:30pm — No Comments

अभिनय की महता(लघुकथा)/सतविंदर कुमार

अपनी मांग को लेकर एक समुदाय के लोग शांति से आंदोलन कर रहे थे। अचानक आंदोलन ने उग्र रूप लिया। अन्य समुदायों से झड़पें हुई। मारा-मारी हुई। छोटी-बड़ी सड़कें बन्द। लूट-पाट शुरू। यह सब ऎसे चला की मारा-मारी में हुई झड़पों में कइयों की जानें भी गई।

एक पत्रकार मांग को लेकर आंदोलन कर रहे समुदाय के बड़े नेता से

-यह जो हो रहा है, क्या यह सब ठीक है?

-जब चारों तरफ आगजनी हो, मारा-मारी हो, सब अपने ही लोग अपनों को मारने पर तुले हों, जनता हालातों से तंग आ गई हो तो कुछ ठीक कहा जा सकता है? यह…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2016 at 3:00pm — 5 Comments

दोहे-पंकज का प्रयास

राजनीति के खेल में, दाँव लग गया देश।
घूम रहे गद्दार भी, धर नेता का वेष।।

बच कर रहिये दोस्तों, करिये सोच विचार।
उकसावे में अन्य के, न करिये व्यवहार।।

चञ्चल मन को रोकिये, हिंसा तो है पाप।
संविधान की बात को, प्रथम मानिये आप।।

यहाँ वहां मत फेंकिये, कूड़ा कचरा यार।
आएगा उड़ कर वही, पुनः आपके द्वार।।

पंकज का तो नीर से, जीवन का सम्बन्ध।
जिसकी आँख में है नहीं, कैसे हो अनुबंध।।


मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 12:45pm — 6 Comments

लाल कलम :लघुकथा: हरि प्रकाश दुबे

आख़िरकार आज पिछले सत्रह सालों की साधना रंग ला ही गई, कसम से क्या–क्या पापड़ बेलने पड़े इस सचिवालय तक पहुँचने के लिए... नए सचिव साहब, मन ही मन सोचते हुए, कभी अपने खूबसूरत दफ्तर और कभी अपने स्वागत में प्रस्तुत फूलों के अम्बार को देख–देख कर मुस्करा रहे थे कि तभी, दरवाजे की घंटी बज उठी, एक आवाज आयी “क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? “जी, फ़रमाइए।”

“जय हिन्द सर, मै आपका ‘वैयक्तिक सहायक’ हूँ, आपका इस नए कार्य क्षेत्र में स्वागत है, मेरी तरफ से ये तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये साहब।”

“ओह ! धन्यवाद आपका,…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 22, 2016 at 10:06am — 6 Comments

एक छायावादी , एक छातावादी -डॉo विजय शंकर

वह जो

तपती दुपहरी मे

चिलमिलाती धूप में ,

जी तोड़ परिश्रम कर रहा है ,

पसीने में नहाया ,

कमा रहा है अपने लिए ,

अपने निजी सुख के लिए ,

वह सुख जो एक कल्पना है ,

तपती दुपहरी में भी वह एक

अदृश्य छाया का सुख भोग रहा है ,

कैसा छायावादी है वह ,

घोर अन्धकार में भी

रौशनी के मजे ले रहा है।

कठोर कष्ट में भी कैसा सुखद

काल्पनिक सुख भोग रहा है I

वह एक छायावादी है।

वह एक छायावादी है।



और एक वह है जो ,

विभिन्न सुरक्षा… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 22, 2016 at 8:00am — 4 Comments

मेरी प्यारी व्यथा

115

मेरी प्यारी व्यथा

===========

खपरैल से निर्विघ्न आती

वर्षा की अनुपम फुहारों से,

आर्द्रशीत अनिल ने, भिगोया था तनमन अपना।

मेंढकों की सी जिंदगी में उस दिन...

अपनी 'भुजा की तकिये' के नीचे से आता,

बड़े चाव से, तुम्हारा--- स्वर सुना।



गुंजरित बसंत कहीं पल्लवित वसुंधरा

स्वतंत्र कामना समूह के अनोखे जाल में

बटोरे थी, आकर्षक संन्निधि अपनी,

'बक मीन दर्शन' की दशा को ,

चित्त दे, सौरभ विखेरते शशांक में,

भूख प्यास भूल, तुझे पल पल…

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Added by Dr T R Sukul on February 21, 2016 at 4:49pm — 4 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए (एक ग़ज़ल)......//डॉ.प्राची

2122 1122 1122 22



सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,

उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।



है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा

सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।



आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ

अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।



जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन

मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 21, 2016 at 2:30pm — 40 Comments

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती --आशुतोष

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती

ये बारिश बँध के इन नदियों को भी बहने कहाँ देती

गजब का तैश अहदे नौ के इस आदम में देखा है

ये ऐठन आदमी को आज कुछ सहने कहाँ देती

हुए आजाद आजादी मिली कहने को बस हमको

मगर दहशत दिलों की कुछ हमें कहने कहाँ देती

ये बहशीपन ये गुंडागर्दी ये आतंक का साया

शराफत मेरी दुनिया में…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on February 21, 2016 at 2:08pm — 11 Comments

मौसम चुनावी

मौसम !

आजकल हर किसी चीज का मौसम हो रहा है। ष्षादी का मौसम, खरमास का मौसम मेला का मौसम और उपवास तथा स्नान का मौसम लगता है कि हमें मौसम के अलावा अन्य किसी तरह से रहा ही नहीं जाता। अब चुनाव का भी एक मौसम चल रहा है।

यह तुनक कर संजीव ने कहा और घर के भीतर भाग गया। उसके साथ बातचीत मंे ष्षामिल रहे नन्द गोपाल हक्के -बक्के रह गये और कुछ सोचत हुए सोफे पर पसर गये।

थोड़ी देर बाद पुनः संजीव ने वापस आकर बातचीतषुरू की । कहा कि अब अक्सर चुनाव हो रहे हैं और जनमानस में चुनावी लहर व्याप्त…

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Added by indravidyavachaspatitiwari on February 21, 2016 at 1:43pm — 1 Comment

''तुझको तेरी नज़रों में गिराने की है कोशिश !''

दिल को आज पत्थर बनाने की है कोशिश !

ज़ज़्बात आज मेरे दबाने की है कोशिश !

.........................................

इल्ज़ाम नहीं तुझ पर तू सख्त दिल ही था ,

नरमाई मेरे दिल की मिटाने की है कोशिश !

........................................................

दरियादिली से मेरी उसको है शिकायत ,

आँखों में आंसू मेरे लाने की है कोशिश !

........................................................

हैं ज़ख्म दिए गहरे लफ़्ज़ों की कटारों से ,

दामन पे मेरे दाग लगाने… Continue

Added by shikha kaushik on February 21, 2016 at 12:33pm — 4 Comments

सूरज के तेवर (लघुकथा) [छंदोत्सव-58 चित्र से प्रेरित] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अपने दोस्त पेन्टर हबीब की नई पेन्टिंग को अरशद भाई बड़े ग़ौर से देख रहे थे। लाल, धूसर और काले रंगों से बनी पेन्टिंग में नदी के तट पर चिता तैयार करते युवक को और लकड़ियों से सजायी जा रही चिता को स्याह काले रंग से चित्रित किया गया था। लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि सुरमई से दिख रहे आसमान में लालिमा सी फैलाता सूरज भोर के समय का है या सूर्यास्त के वक़्त का !



"कहाँ उलझ गए अरशद भाई, पेन्टिंग नहीं आयी समझ में?"



"समझ तो गया हूँ, बस यह बता दो हबीब भाई कि यह सूर्योदय का चित्रण है या… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2016 at 12:02pm — 4 Comments

सवैया - ऋतुराज....

आठ भगण पर आधारित सवैया...किरीट सवैया कहलाती है.

-१-

पावन हैं ऋतुराज समाजिक,  मान सुज्ञान विधान प्रतिष्ठित.

पर्वत दृश्य समीर नदी रस,  धार सुप्रीति समान प्रतिष्ठित.

काम कमान लिये फिरता,  रति संग रखे हर बाण प्रतिष्ठित.

शंकर भस्म करे पल में,  वर काम अनंग प्रधान प्रतिष्ठित.

-२-

गंग तरंग उमंग लिये नव प्राण धरा रस से कर सिंचित.

पाप विकार अनिष्ट गरिष्ठ समेट बही यश से कर सिंचित.

शुद्ध प्रबुद्ध प्रणाम करे…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 21, 2016 at 5:13am — 2 Comments

प्रेम कहानी

         प्रेम कहानी

मेरी भी है प्रेम कहानी,जिसमे राजा और है रानी|

मिल कर खोला दिल का राज ,नदी किनारे की है बात|

कहा तुम्हारा साथ चाहिए ,प्यार भरे ज़ज्बात चाहिए|

दिल की बाते देना बोल ,नीम नहीं मिश्री के घोल|

मृग नैनी सु अधरों वाली ,तेरे बिना मै खाली खाली|

मेरी भी है प्रेम  कहानी ,जिसमे राजा और है रानी|

लड़की का जवाब

यही बात तो सब है कहते ,साथ हमारे कभी न रहते\

कभी यहाँ है कभी वहाँ है ,रब ही जाने कहा कहा है|

कभी है राधा कभी…

Continue

Added by Pankaj sagar on February 20, 2016 at 4:00pm — 1 Comment

शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा (ग़ज़ल)

212  212  212  212

शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा

शह्र में हर कोई भागता-सा लगा

अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू

आज कोई मुझे आइना-सा लगा

यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई

तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा

क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई

कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा

त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं

जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा

जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 19, 2016 at 8:59pm — 13 Comments

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