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मरज़ जुदाई का (अतुकांत)

जुदाई है महरुमी-ए-मरज़ क्या, जुदाई कहे क्या

हो ज़िन्दगी में खुशी का मौसम या मातम इन्तिहा

कर देती है दिल को बेहाल हर हाल में यह

रातें मेरी हैं बार-ए-गुनाह अब जुदाई में तेरी

किस्सा: है  कुश्त-ए-ग़म, यह तसव्वुर है कैसा

कहीं आकर पास  दबे पाँव न लौट जाओ तुम

नींद तो क्या यह रातें अंगड़ाई तक हैं लेती नहीं

अंजाम के दिन बुला कर आख़िर में पूछेगा जो

आलम अफ़्रोज़ खुदा उसूलन पास बुला कर मुझे

यूँ मायूस हो क्यूँ? मलाल है? आरिज़: है…

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Added by vijay nikore on May 28, 2018 at 1:30pm — 10 Comments

पार्टियां चलती रहीं (लघुकथा)

"पलट! तेरा ध्यान किधर है? शराब, कबाब और हैदराबादी बिरयानी इधर है!" अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाती पार्टी की दी हुई पार्टी में सदस्यों में से एक ने टीवी देख रहे दूसरे साथी से कहा।



"जुमले कैच कर रहा होगा, जुमलेदार भाषण या कथा रचने के लिए!" दूसरा बोला।



"कथा, कविता कह ले या भाषण, लघुकथा! किसी पर तेरी कलम कोई कमाल नहीं कर पायेगी! सभी मतदाता सम्मोहित कर लिये गए हैं अपनी लहर में, ख़ास तौर से महिलायें और स्टूडेंट्स!" कुछ पैग नमकीन के बाद हलक में गुटकने के बाद पहला झूमते हुए…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 27, 2018 at 6:02pm — 4 Comments

मेरी आँखों में कभी अक्स ये अपना देखो

मेरी आँखों में कभी अक्स ये अपना देखो

इस बहाने ही सही प्यार का सहरा देखो

बेखबर गुल के लवों को छुआ ज्यों भँवरे ने

ले के अंगड़ाई कहा गुल ने ये पहरा देखो

वो नजाकत से मिले फिर उतर गये दिल में

अब कहे दिल की सदा हुस्न का जलवा देखो

मौला पंडित की लकीरों पे यहाँ सब चलते

तुम लकीरों से हटे हो तो ये फतवा देखो

वो भिखारी का भेष धरके बनेगा मालिक

अब सियासत में यूं ही रोज तमाशा देखो

साइकिल हाथ के हाथी के हैं जलवे देखे

अब कमल खिलने…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on May 27, 2018 at 5:30pm — No Comments

समय की लाठियां (लघुकथा)

पार्क की ओर जाते हुए उन दोनों बुज़ुर्ग दोस्तों के दरमियाँ चल रही बातचीत और उनके हाथों में लहरा सी रही लाठियां नये दिवस की भोर के पूर्व, उनके अनुभव की लाठियां साबित हो रहीं थीं।



"... 'सही नीयत और सही तरक़्क़ी'! यह दावा करते हैं आजकल के दोगले नेता अपने मुल्क की ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करते हुए!" उनमें से एक ने कुछ झुंझलाते हुए कहा।



"... 'शाही नीयत और शाही तरक़्क़ी' है दरअसल! हम तो यही कहते हैं, यही देखते हैं हर तरफ़ और यही तो सुनते हैं!" दूसरे साथी बुज़ुर्ग ने व्यंग्यात्मक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 27, 2018 at 5:30am — 6 Comments

जब ये तपन दूर हो जाये |

दहक  रहा हर कोना कोना   ,  सूरज बना आग का गोला |
मुश्किल  हुआ निकलना घर से ,  लू ने आकर धावा बोला |
तर बदन होता पसीने से   ,  बिजली  बिना तरसता   टोला  |
बाहर कोई कैसे जाये    , विकट   तपन  ने जबड़ा  खोला |
 
पशु पक्षी ब्याकुल गरमी से , जान बचाते हैं   छाया में |
चले राही लाचार होकर    ,  आग लगी है  जब काया में  |
तेज…
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Added by Shyam Narain Verma on May 26, 2018 at 3:30pm — 2 Comments

आपसी सहयोग - लघुकथा –

आपसी सहयोग - लघुकथा –

 साहित्यकार तरुण घोष के नवीनतम लघुकथा संग्रह "अपने मुँह मियाँ मिट्ठू" को वर्ष -2018 का सर्वश्रेष्ठ लघुकथा संग्रह चुना गया और  साहित्य जगत का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान "सूक्ष्मदर्शी" दिया गया।

यह समाचार मिलते ही उनकी प्रिय लेखनी अत्यधिक वाचाल हो गयी। सुबह से बस एक ही गुणगान किये जा रही थी,

"देखा, मेरी ताक़त को, क़माल की शक्ति और सोच है मेरे पास। आज मेरे कारण साहब का मस्तक सातवें आसमान पर है"।

घोष साहब की लिखने की मेज पर मौजूद स्याही की दवात, लिखने…

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Added by TEJ VEER SINGH on May 26, 2018 at 12:11pm — 10 Comments

नमक सी जलन...

नमक सी जलन  ..... 

मत समेटो
हृदय में
शूल सी स्मृतियों को
ये
जब तक रहेंगी
अपने लावे से
विगत पलों को
सुलगाती रहेंगी
इसलिए
रोको मत
बह जाने दो
इन
नमक सी जलन देती
स्मृतियों की खारी ढेरियों को
आंसूओं के
प्रपात में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 25, 2018 at 8:37pm — 7 Comments

दिव्य-कृति(कहानी )

“सर,इस सेम की बेल को खंबे पर लिपटने में मुश्किल आएगी |” मैंने सुरेंदर जी की तरफ़ देखते हुए कहा

“हाँ,मैं सोच रहा था की सामने वाली इमली में कील ठोककर बेल को उधर मोड़ दिया जाए |”

“ पेड़ में कील ! क्या यह पेड़ के लिए जानलेवा नहीं होगा |” मैंने कुछ परेशान होकर पूछा

“लोग पेड़ों में पूरा का पूरा मन्दिर बना देते हैं और तुम कहते हो की कील से पेड़ को नुकसान होगा |” उन्होंने मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए कहा

“सर ,मैंने पेड़ों से मार्ग की बात तो सुनी है पर क्या हमारे देश में कोई ऐसा पेड़…

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Added by somesh kumar on May 25, 2018 at 4:40pm — No Comments

छोटा वकील (लघुकथा)

"हमने तो सुना है कि बहुत ज़रूरी होने पर देर रात तक कोर्ट लग जाती है; वकील और जज साहिबान सब हाज़िर हो कर फैसले करते, करवाते हैं?" धरनीधर ने अपने विधायक महोदय से यह कहते हुए पूछा - "हमारे पास सारे सबूत हैं! सुनीता की आबरू लूटने वालों को तीन साल बाद भी कोई सज़ा न हुई? आप चाहें, तो सब तुरंत ही निबट जाये!"



"दरअसल सब लेन-देन के कारोबार हैं! तुमने न तो कोई बड़ा वकील किया है, न ही तुम्हारे वकील की वैसी कोई पहुंच है!" ऐसी कुछ दलीलें सुनाते हुए विधायक ने कहा - "तुम्हारे पास जितना जो कुछ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 24, 2018 at 2:43pm — 7 Comments

आज खुद को आज कहकर जानता है ..गजल

2122-2122-2122

.

आज खुद को आज कहकर जानता है।।

हल वो बूढ़ा सा शज़र ,पर जानता है।।

किसका कितना पेट भूखा रह गया अब ।

घर का चूल्हा ही ये बेहतर जानता है ।।

कैसा बीता है शरद और ग्रीष्म बरखा।

मुझसे बेहतर घर का छप्पर जानता हैं।।

कैसे कटती हैं मेरी तन्हा सी रातें ।

खाट तकिया और बिस्तर जानता है।।

दर्द के किस दौर से गुजरा हुआ मैं।

आह का निकला ही अक्षर जानता है।।

आमोद बिंदौरी , मौलिक…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on May 24, 2018 at 9:30am — 5 Comments

चाय पर चर्चा (लघुकथा)

"अरे भाई ! इस दफ़ा तो पहले रोज़े से ही मैंने 'चाय' पीना छोड़ दिया इस रमज़ान में!" चाय का प्याला ले कर आये सल्लू से कहते हुए मिर्ज़ा साहिब ने अपनी तस्वीह (जापमाला) पर अपनी तर्जनी दौड़ाते हुए कहा- "पूरा एक हफ़्ता हो गया है आज!"



"तुम भी ग़ज़ब करते हो चच्चाजान! जैसे-तैसे आज निकले इधर से, और आजई जे ख़बर दे रये हो!" केतली हिलाते हुए दूसरे ग्राहक को चाय उड़ेलते हुए वह बोला - "तुम 'चाय' के शौक़ीन हमारे रेगुलर ग्राहकों में से हो, तुमईं ने छोड़ दई! ऐसो का हो गओ चच्चा! तम्बाकू-बीड़ी के बाद…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 24, 2018 at 12:30am — 7 Comments

किराये के रिशते (लघुकथा)

किराये के रिश्ते

रात भर नींद नहीं आई, और सुबह होते ही वह पार्क में आ गया। कल शाम को आए फोन से पैदा हुई समस्या अभी सुलझ नहीं रही थी । चाहे कोई हल नज़र नहीं आ रहा, मगर इस समस्या को हल किये बिना छोड़ा भी नहीं जा सकता। आख़र उनका है भी कौन है,जो सात समंदर पार हैं, मगर  इस बार महिंदरो उसकी बात से सहमत नहीं हो रही थी । उसका कहना कि “क्या करेंगे वहाँ जा कर हम, आप तो फिर भी यहाँ वहाँ घूम आते हो,मगर मैं ........",कह कर महिंदरो चुप हो गई।

"मैं तो वहाँ अकेली अंदर बैठी कैसे रह सकती हूँ, न कोई…

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Added by Mohan Begowal on May 23, 2018 at 10:00pm — 3 Comments

लघुकथा

नियति का अंत

प्लास्टर उतरी दीवारें खुद को अश्लील पोस्टरों में लपेटे कमरे में गुड़ी - मुड़ी पड़ी देह को खामोशी से देख रहीं थीं। दीवारों की सीलन सिसकियों के शोर के साथ गहरी होती जा रही थी।

" ओहो, तो तुम कौन सा पहली बार ऐसा होते देख रही हो! इतने सालों में न जाने कितनी ही बार तुमने ये सब देखा है", बन्द दरवाजे ने रुआंसी होती दीवारों को देखकर कहा। " पहले तो कभी तुम लोगों को ऐसा परेशान होते नही देखा!"

" चुप कर ! जन्म से यही दुनिया तो देखी थी, लगता था यही नियति होती है। मगर रात में…

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Added by मेघा राठी on May 23, 2018 at 6:51pm — 6 Comments

क्षणिकाएं :

क्षणिकाएं :

१.
तूफ़ान का अट्टहास
विनाश का आभास
काँपती रही
लौ दिए की
झील की लहरों पर
देर तक
आंधी के साथ हुए
जीवन मृत्यु के संघर्ष को
याद करके

२.
श्वास
नितांत अकेली
देह
चिता की सहेली
जीवन
अनबुझ पहेली

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 23, 2018 at 6:37pm — 9 Comments

पढ़ न पाए ये ज़माना इश्क की तहरीर अब

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

पढ़ न पाए ये ज़माना इश्क की तहरीर अब 

इसलिए ही ख़त जलाये औ तेरी तस्वीर अब

मंदिरो-मस्ज़िद में जाकर मिन्नतें-सजदा किये

फिर भी तुमसे दूर रहना है मेरी तक़दीर अब|

लोग कुछ मजनूँ कहें अब और कुछ फ़रहाद भी

यह तुम्हारे इश्क की ही लग रही तासीर अब |

ज़ख़्म गहरा हो गया हो या कि फिर नासूर तो

प्यार का ही लेप उस पर हो दवा अक्सीर अब|

है मुक़द्दर में नही मत सोचकर बैठो मियाँ

बदलेगी तक़दीर निश्चित…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on May 23, 2018 at 1:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल 212×4

ख्वाब थे जो वही हूबहू हो गए।
जुस्तजू जिसकी थी रूबरू हो गए।।

इश्क करने की उनको मिली है सज़ा।
देखो बदनाम वो चार सू हो गए।।

फ़ायदा यूँ भटकने का हमको हुआ।।
खुद से ही आज हम रूबरू हो गए।।

बेचते रात दिन जो अना को सदा।
वो ज़माने की अब आबरू हो गए।।

आप कहते न थकती थी जिनकी ज़ुबां।
आज उनके लिए हम तो तू हो गए।।

मौलिक /अप्रकाशित

राम शिरोमणि पाठक

Added by ram shiromani pathak on May 23, 2018 at 12:21pm — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लाएँगी खुशियाँ तभी जीवन में उल्लास (गीत )

दोहे की टेक ले कर उल्लाला छंद पर गीत (उल्लास )



जब तक जीवन में रहे , जीवित हास प्रहास । 

लायेंगी खुशियाँ तभी , जीवन में उल्लास । 



तम करता जब नृत्य है , उगता तब आदित्य है । 

पूर्वजों का कथ्य है , लेकिन बिल्कुल सत्य है । 

तन में श्रम की शक्ति हो , मन में हो विश्वास । 

लाएँगी खुशियाँ तभी , जीवन में उल्लास । 





अहम वहम को छोड़ दे , ईर्ष्या का रुख मोड़ दे । 

नफ़रत को झ्न्झोड़ दे , दिल से दिल को जोड़ दे । 

आयेगा चल कर तभी , तेरे पास उजास…

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Added by rajesh kumari on May 22, 2018 at 5:40pm — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
ग़ज़ल (गणेश जी बागी)

पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।

बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।

चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?

मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।

खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,

रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।

जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।

प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।

अच्छे-दिन, काले-धन की…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 22, 2018 at 3:30pm — 17 Comments

ग़ज़ल(2122 1212 22)

मुंतजिर हूँ मैं इक जमाने से।
आ जा मिलने किसी बहाने से।।

उनकी गलियों से जब भी गुजरा हूँ।
ज़ख़्म उभरे हैं कुछ पुराने से।।

दिल की बातें ज़ुबां पे आने दो।
कह दो! मिलता है क्या छुपाने से।।

मेरे घर भी कभी तो आया कर।
ज़िन्दा हो जाता तेरे आने से।।

इश्क़ की आग राम है ऐसी।
ये तो बुझती नहीं बुझाने से।।

मौलिक/अप्रकाशित

राम शिरोमणि पाठक

Added by ram shiromani pathak on May 21, 2018 at 11:30pm — 8 Comments

कितने रोगों से बच जाते

जब कागज के ये रुपये

सुन्दर सिक्कों में ढल जाते

तब सचमुच अच्छा होता

कितने रोगों से बच जाते



कम से कम गंदे नोटों को

हमें नहीं छूना पड़ता

जिनमें गुटखा पीक लगा हो

और हिसाब लिखा चुभता



तभी पुराने महाराजे

सुन्दर सिक्के गढ़वाते थे

जो भी हो , गंदे सिक्के

पानी  से तो धुल जाते थे

सिक्कों की प्राचीन प्रथा

सचमुच में कितनी अच्छी थी

स्वस्थ रहे जनता अपनी

यह सुभग भावना सच्ची…

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Added by Usha Awasthi on May 21, 2018 at 7:30pm — 2 Comments

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